शिशिर गुप्ता
मैं हमेशा से मानता रहा हूं कि अच्छे लोकतंत्र के लिए एक अच्छे विपक्ष का होना जरूरी है, परंतु दुर्भाग्य से हमारे
पास एक अच्छा विपक्ष नहीं है अथवा हम इसके काबिल नहीं हैं। विपक्ष केवल कमजोर ही दिखाई नहीं देता, बल्कि
इसमें पूर्वजों जैसा कैलिबर भी नहीं है, जैसा कि हम संसद में देखते हैं। वर्ष 2019 के चुनाव में इसकी शक्ति के
परिणाम के बाद राजनीतिक दल असमंजस में लगते हैं तथा भविष्य के अस्तित्व को लेकर वे आश्वस्त नहीं हैं।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसने देश पर 70 वर्षों तक राज किया, कमजोर स्थिति में लगती है जिसकी लोकसभा
में केवल 55 सीटें हैं। गांधी परिवार के लिए सबसे बुरी स्थिति यह है कि उनकी परंपरागत अमेठी सीट भी भाजपा
की नई उम्मीदवार स्मृति इरानी के पक्ष में चली गई। ऐसी बुरी स्थिति की गांधी परिवार ने कभी कल्पना भी नहीं
की थी, फिर भी उसने भाजपा के खिलाफ संसद और उसके बाहर, जहां वह जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थी, ‘वोकल
शाउट मैचिज’ शुरू कर दिए। इस हार से कांग्रेस ने कोई सबक नहीं लिया तथा राहुल गांधी, जिन्होंने कांग्रेस
अध्यक्ष पद से पहले इस्तीफा दे दिया था, वापसी कर रहे हैं जैसे इस बड़ी हार के लिए कोई जिम्मेदार नहीं था।
पार्टी के पास ऐसा कोई भी नेता नहीं है जो नरेंद्र मोदी की योग्यता व साहस का मुकाबला कर सके। दुर्भाग्य से देश
में हमारे पास ऐसे लोग नहीं हैं जो पार्टी के उच्च नेतृत्व में विश्वास प्रकट करने के बिना उम्मीदवारों में भरोसा
करेंगे। यह लोकतंत्र का अद्भुत असमंजस है कि लोग नेता का अनुगमन करते हैं तथा न कि नेता लोगों का नेतृत्व
करता है। प्रत्येक राज्य को एक ऐसे नेता की जरूरत है जिस पर विश्वास किया जा सके अथवा जो नागरिकों का
नेतृत्व करने के लिए क्षमता व विजन रखता हो। उड़ीसा में नवीन पटनायक, बिहार में नीतीश कुमार, बंगाल में
ममता बैनर्जी, पंजाब में अमरेंद्र सिंह, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में अशोक गहलोत,
मध्यप्रदेश में ही ज्योतिरादित्य सिंधिया, उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ तथा असम में हेमंत बिस्वास कुछ ऐसे
नेता हैं जो नेता के रूप में लोगों की पसंद के अनुसार उभरे हैं। अजीब बात यह है कि कांग्रेस में योग्यता के बजाय
गांधी परिवार के प्रति वफादारी को अधिमान दिया जाता है। अगर कांग्रेस को अपना अस्तित्व बचाना है तो इसे
जनता के बीच लोकप्रियता में योग्यता को अधिमान देना होगा तथा कमांड कर रहे नेता का आदर करना होगा।
कांग्रेस को कैसे बचाया जाए, इसकी एक मिसाल छोटा-सा राज्य हिमाचल प्रदेश है जहां आजादी अथवा राज्य के
निर्माण के बाद तीन बार भाजपा के जीतने के अलावा बाकी समय में कांग्रेस सत्ता में रही है। पिछला चुनाव कांग्रेस
हार गई और उसे विपक्ष में बैठना पड़ा। अब विपक्ष में बैठकर इसे बढि़या काम करना होगा तथा जनता के हितों
को सुरक्षित करना होगा। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि इसे अपना संगठन और कैडर बनाना होगा जिसके बारे में यह
परवाह नहीं करती है।
इसके अधिकतर नेता पार्टी की अंदरूनी प्रतिद्वंद्विता की लड़ाई में व्यस्त हैं। पार्टी के अंदरूनी विरोधाभास से उसे
बाहर निकलना होगा। यह दुख की बात है कि हाईकमान संगठन की प्लानिंग में रुचि नहीं रखता है। अगर
हाईकमान का समर्थन मिल गया होता तो वीरभद्र सिंह की जगह ठाकुर कौल सिंह को आसानी से लाया जा सकता
था, लेकिन स्थितियां ऐसी बना दी गईं कि पार्टी की अंदरूनी लड़ाई के कारण वह अपने विधानसभा क्षेत्र में चुनाव
हार गए। वीरभद्र सिंह निःसंदेह पार्टी के बड़े व गैर-विवादित नेता हैं, लेकिन वह इस तरह काम कर रहे हैं कि
दूसरों को विकसित होने में मदद नहीं मिल रही है। पंजाब, राजस्थान व अन्य क्षेत्रों के बारे में भी यही सच है।
कांग्रेस को युवा नेतृत्व के नाम पर अनुभवी नेतृत्व में अपना आधार नहीं खोना चाहिए। नए नेतृत्व को जबकि
उभारा जा सकता है, फिर भी महत्त्वपूर्ण है कि पार्टी के वरिष्ठ व जनता में मुकाम रखने वाले नेताओं को संरक्षित
किया जाए। वीरभद्र सिंह निःसंदेह एक लोकप्रिय नेता हैं, फिर भी यह सच्चाई है कि उन्हें भी केंद्र से लाया गया था
तथा इंदिरा गांधी ने उनकी उभरने में मदद की थी। नेतृत्व को उभारने की एक प्रणाली होती है। अंततः इसे नए
‘रिक्रूट्स’ की इच्छा पर छोड़ दिया जाता है। कांग्रेस को पहले सक्षम व योग्य अनुभवी नेताओं को उभारने के लिए
चयन करना चाहिए और उन्हें संरक्षण देना चाहिए। दूसरे, इसे प्रतिद्वंद्विता की राजनीति का समाधान करना
चाहिए क्योंकि इसकी वजह से मध्य प्रदेश व अन्य स्थानों पर पार्टी को नुकसान हुआ है।
तीसरे, पार्टी को कैडर के साथ ग्रासरूट संगठनों को विकसित करने के लिए एक व्यापक व नियोजित अभियान
चलाना चाहिए। चौथे, पार्टी को राहुल गांधी को ‘चौकीदार चोर है’ अथवा ‘सरेंडर मोदी’ जैसी अव्यावहारिक राजनीति
करने से रोकना होगा। राहुल गांधी को ठोस उपलब्धियों के आधार पर अपनी छवि का निर्माण करना चाहिए। एक
शिक्षक के रूप में मैं उनकी गंभीरता, बुद्धिमता तथा सभ्य आचरण को महसूस करता हूं। (जब मैं राजीव गांधी से,
जब वह प्रधानमंत्री थे, मिला था तो यही गुण मैंने उनमें भी देखे थे।) जो कोई भी राहुल गांधी का एक प्रधानमंत्री
की खिल्ली उड़ाने अथवा तिरस्कार करने के लिए मार्गदर्शन कर रहा है, वह गलत शिक्षा दे रहा है। जनता इस तरह
के व्यवहार को पसंद नहीं करती है तथा उन्हें मजाक का पात्र मानती है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि कांग्रेस तथा
अन्य दलों के पास भी नरेंद्र मोदी जितना सक्षम कोई विकल्प नहीं है, विपक्ष में रहते हुए इस बार भी तथा अगले
चुनाव के बाद भी यह विकल्प मिलना मुश्किल लगता है। कांग्रेस को एक मूल्यवान विपक्ष के रूप में उभरना होगा,
बजाय इसके कि वह संसद में मात्र शोरोगुल ही करती रहे। नेहरू के दिनों को याद करते हैं तो लोहिया, जयप्रकाश,
डांगे, जॉर्ज फर्नांडीज व अशोक मेहता ने अपनी प्रतिभा से संसद को प्रभावित किया, जबकि आजकल वहां केवल
शोरोगुल हो रहा है, उसमें गंभीरता नहीं है। कांग्रेस को वह योग्यता हासिल करनी होगी जो उसके पास उस समय
थी जब उसने अंग्रेजों से आजादी छीन ली थी। लेकिन आज की कांग्रेस, कांग्रेस से ही लड़ती नजर आती है। भारत
को कांग्रेस की जरूरत है तथा इसे इससे ही बचाना जरूरी हो गया है।