छले दिनों आसियान और ईस्ट एशिया समिट को लेकर माहौल खूब गरम रहा। राजनीतिक विश्लेषण में कई नई बातें कही गई। एशिया को विश्व राजनीति का भूकेंद्र माना गया। कहा गया 19वीं सदी अंग्रेजों की थी, 20वीं अमेरिकी थी, और 21वीं शताब्दी एशिया की है। ये बातें पिछले 15 दिनों की विश्व राजनीति में देखने को मिली। इस सोच के आयाम भी हैं, उन आयाम के भीतर एक नई सोच के उद्भव को बखूबी देखा जा सकता है। चीन में 19 महाधिवेशन के उपरांत चीन का राष्ट्रपति दुनिया के सर्वशक्तिशाली नेताओं की गिनती में सबसे ऊंचे पायदान पर है। अगर शीत युद्ध के वर्षो को याद किया जाए तो देश के साथ नेताओं की छवि भी महत्त्वपूर्ण होती थी। चाहे वह नाम रोनाल्ड रीगन का हो या गोर्बाच्योव या किसी और का। उसी अंदाज में शी जिनपिंग का महिमामंडन चीन में हुआ है। राष्ट्रपति शी जिनपिंग के कुछ फार्मूले हैं, जिन पर वह अपनी विदेश नीति को चलने की कोशिश कर रहे हैं। उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण चीन को दुनिया का सबसे अहम देश बनाना है। दूसरा एकल चीन नीति हर उस देश के लिए महत्त्वपूर्ण होगा जो चीन के साथ व्यापार या दोस्ताना संबंध रखना चाहता है। तीसरा, चीन ने पश्चिमी दुनिया को एक और चुनौती दी है। शी जिनपिंग ने साम्यवादी व्यवस्था में चीन की विशेषताओं के साथ जिस नये राजनीतिक सिद्धांत का आगाज किया है, वह पश्चिमी दुनिया के लोकतंत्र को चुनौती देगा। अमेरिकी राष्ट्रपति की ईस्ट एशिया यात्रा और पुन: मनीला में आसियान और ईस्ट एशिया सम्मलेन में भारत के प्रधानमंत्री के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बातचीत कई मायनों में महत्त्वपूर्ण थी। बातचीत में जापान, ऑस्ट्रेलिया को शामिल किया गया। बात ज्यादा रोचक तब बन गई जब अमेरिकी राष्ट्रपति ने एशिया पैसिफिक की जगह इंडो पैसिफिक शब्द का प्रयोग किया। दरअसल, यह शब्द पहली बार 2005 में प्रयोग में आया था, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा ईस्ट एशिया समिट में प्रयोग में लाने का मतलब कुछ और ही है। अमेरिका, भारत को इस क्षेत्र में अहम कड़ी बनाना चाहता है। उसकी सोच चीन की शक्ति को एशिया में रोकने की है। भारत के प्रधानमंत्री ने भी जिस तरह से अपनी बातों को रखा, वे बातें भी अमेरिकी राष्ट्रपति के शब्दों से मिलकर एक ही कहानी कहती हैं, और वह कहानी चीन को कब्जे में लाने की गाथा है क्योंकि चीन पहले से ही एशिया में अपनी एकमुश्त धुन बजने की बात कह चुका है। उसकी नजर एशिया की राजनीति पर काबिज होने पर है। हिंद प्रशांत क्षेत्र में चीन की चुनौती का मुकाबला करने के लिए भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका एक साथ आए हैं। इस क्षेत्र में सहयोग और उसके भविष्य की स्थिति पर चारों देशों ने मनीला में पहली बार वार्ता की। चीन की बढ़ती सैन्य और आर्थिक ताकत के बीच इन देशों ने माना है कि स्वतंत्र, खुले और समावेशी हिंद-प्रशांत क्षेत्र से ही दीर्घकालिक नियंतण्र हित जुड़े हैं। भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान को मिलाकर चतुष्कोणीय संगठन बनाने का विचार 10 साल पहले आया था। एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपेक), आसियान और पूर्वी एशिया के देशों की बैठक के साथ-साथ भारत-अमेरिका, भारत-जापान और हिंद-प्रशांत क्षेत्र के रणनीतिक चतुर्भुज देशों (भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया) के बीच हुई बैठकों में कुछ अहम विषय निकल कर सामने आए, जो नियंतण्र संबंधों की पुनर्रचना का संकेत देते हैं। यद्यपि इन बैठकों में आर्थिक हित भी र्चचा का विषय रहे, लेकिन सही अर्थो में सामरिक विषय और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भावी रणनीतिक तैयारियां ही इनके केंद्र में थीं। मनीला में इन नियंतण्र नेताओं का मिलना न केवल अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप, बल्कि भारत के प्रधानमंत्री सहित जापान एवं ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्रियों की चतुराइयों से भरपूर कूटनीतिक यात्रा का अहम पड़ाव भी था। लेकिन इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि जापान का सबसे ज्यादा व्यापार चीन के साथ होता है। चीन और जापान में संघर्ष की स्थिति है। विशेषकर जैसे अबे जापान के प्रधानमंत्री बने हैं। 2005 से ही जापान अपने शांतिपूर्ण संविधान में बदलाव लाकर आणविक शक्ति को बहाल करना चाहता है। जापान यह सब कुछ चीन की वजह से करना चाहता है। चीन उत्तर कोरिया को आणविक मदद कर उसे निष्कंटक आतंकवादी देश बना चुका है, जो सबके लिए सरदर्द बना हुआ है। विश्व राजनीति का थिएटर एशिया बना हुआ है। खेलारी कई हैं। मुद्दे भी अनेक हैं, लेकिन शतरंज की विसात भारत और चीन के बीच ही है। पहली पारी डोकलाम में खेली गई, दूसरी की शुरु आत ईस्ट एशिया में हुई है, जिसमें आसियान के दस देश भी शामिल हैं। आसियान देशों की मजबूत इच्छा है कि आर्थिक और सामरिक रूप से इस क्षेत्रमें भारत, चीन के विरोध के रूप में आगे आए। यह प्रस्ताव रोचक तो है, लेकिन जोखिम भरा भी। चीन का व्यापार आज भी जापान और आसियान देशों से भारत की तुलना में कई गुना ज्यादा होता है। इसलिए बात बिगड़ने का भी डर है। शीतयुद्ध के गहन काल में अमेरिका ने चीन विरोध छोड़कर शटल कूटनीति के तहत चीन को गले लगा लिया था। सीटो और सिएटो जैसे सैन्य गठबंधनों में अमेरिका के साथ जुड़े हुए देश अचानक घबरा गए कि अब किस तरफ जाएं? अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ऊंट किस ओर बैठेगा, उसका निर्धारण उस नये राजनीतिक समीकरण से तय होती है, जो राष्ट्रहित द्वारा निर्धारित होता है। चीन अपनी विदेश नीति, आतंकवाद का सिद्धांत और आर्थिक सोच में जान बूझकर भारत को दूर रखना चाहता है। उसे मालूम है कि भारत की विशालता और प्रधानमंत्री की आक्रामक विदेश नीति निश्चित रूप से चीन के लिए चुनौतियां बनेगी। कांग्रेस के कार्यकाल में चीन की कूटनीति पर भारत की सरकार खंडों में बंटी हुई थी। मोदी के समय चीन का फार्मूला काम नहीं कर रहा। भारत चीन के पाले में जाकर चीन को ललकार रहा है। ऐसे हालात में चीन के राष्ट्रपति के लिएआर्थिक विकास और सैनिक विस्तार की नीति को एक साथ लागू करना आसान नहीं होगा।