लॉक डाउन में चरणबद्ध तरीके से छूट देने के बाद भले ही धार्मिक और व्यावसायिक गतिविधियां शुरू हो गईं हों,
लेकिन देश के नौनिहालों के मामले में सरकार अभी भी कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती है। मानव संसाधन विकास
मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने स्पष्ट कर दिया है कि अगस्त से पहले शैक्षणिक गतिविधियां शुरू नहीं की
जाएगी। इस संबंध में उनका मंत्रालय गृह और स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ मिलकर गाइडलाइन तैयार कर रहा है,
ताकि स्कूल खुलने के बाद भी सोशल डिस्टेंसिंग और अन्य स्वास्थ्य नियमों का समुचित पालन करवाया जा सके।
याद रहे कि कोरोना महामारी के फैलाव को रोकने के लिए लॉक डाउन से पहले ही देश के सभी स्कूल, कॉलेजों
और विश्वविद्यालयों को अगले आदेश तक के लिए बंद कर दिया गया था।
सरकार के इस दूरदर्शी फैसले ने स्कूल और कॉलेज जाने वाले बच्चों और युवाओं को बड़ी संख्या में संक्रमित होने
से बचा तो लिया, लेकिन पहले से ही चरमराई देश की शिक्षा व्यवस्था इससे पूरी तरह से ठप्प हो गई। संयुक्त
राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में
इस वायरस की वजह से हुए लॉकडाउन के कारण प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय तक के लगभग 32 करोड़
छात्र-छात्राओं का पठन पाठन का काम पूरी तरह से रुक गया, जिसमें 15.81 करोड़ लड़कियां और 16.25 करोड़
लड़के शामिल हैं। हालांकि केंद्रीय विद्यालय समेत कुछ निजी और सरकारी स्कूलों की ओर से ऑनलाइन शिक्षा की
व्यवस्था की गई है, लेकिन यह सभी विद्यार्थियों तक अपनी पहुँच बनाने में सफल नहीं हो सका है। सरकारी
स्कूलों में पढने वाले अधिकतर बच्चों के अभिभावकों के पास इंटरनेट की सुविधा न होने के कारण वह ऑनलाइन
एजुकेशन का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। इसके अतिरिक्त जम्मू कश्मीर में जहां सुरक्षा कारणों से इंटरनेट सेवा
बाधित होती रही, वहीं उत्तर प्रदेश और बिहार समेत देश के अन्य पिछड़े राज्यों के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले
विद्यार्थी भी ऑनलाइन क्लास की सुविधा का लाभ उठाने से वंचित रहे हैं।
स्कूल बंद होने का सबसे अधिक असर आर्थिक रूप से कमजोर एवं वंचित तबके के छात्र-छात्राओं पर पड़ा है। ऐसी
चिंताजनक स्थिति केवल भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर देखी गई है। यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार 14
अप्रैल 2020 तक अनुमानित रूप से 191 देशों में लगभग 1,575,270,054 छात्र (लर्नर) प्रभावित हुए हैं। इसमें
लड़कियों की संख्या 74.3 करोड़ है। प्रभावित होने वाले देशों में केवल अफ्रीका और भारत जैसे पिछड़े और
विकासशील देश ही शामिल नहीं हैं बल्कि रूस, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और कनाडा सहित कई विकसित देशों में भी
स्थानीय या क्षेत्रवार स्तर पर लॉकडाउन के कारण लाखों छात्र-छात्राओं का पठन-पाठन प्रभावित हुआ है। हालांकि
भारत में इसके लिए केंद्र से लेकर राज्य स्तर तक बहुत से प्रयास किये गए। छात्रों तक शिक्षा का लाभ पहुंचाने के
लिए आकाशवाणी और दूरदर्शन के माध्यम से भी सिलेबस पूरा कराने की बात कही गई, लेकिन बेहतर तालमेल की
कमी के कारण इस सुविधा का लाभ देश के सभी राज्यों के छात्र-छात्राओं को एकसमान नहीं मिल सका। इस मामले
में एक अच्छी बात देखने को यह मिली कि सभी राजनीतिक दल दलगत भावनाओं से ऊपर उठकर छात्रों की सेहत
के साथ साथ उनके भविष्य के लिए भी चिंतित नजर आये। लेकिन जमीनी स्तर पर उनकी चिंताएं बहुत अधिक
कारगर साबित होते नहीं दिखीं।
वहीं उच्च शिक्षा यानि ग्रेजुएशन से पीएचडी स्तर तक के शिक्षा की बात की जाये तो कोरोना महामारी ने इन्हें भी
प्रभावित किया है। हालांकि देश के ज्यादातर कॉलेज और विश्वविद्यालयों ने ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से छात्र-
छात्राओं के पठन पाठन में आ रही रुकावटों को दूर करने का प्रयास किया है लेकिन इसे भी शत प्रतिशत सफल
नहीं कहा जा सकता है। विशेषकर छात्राओं के मामले में प्रतिशत का यह आंकड़ा और भी कम हो जाता है। ऑल
इंडिया सर्वे फॉर हायर एजुकेशन 2018 की रिपोर्ट के अनुसार शैक्षणिक वर्ष 2018-19 में देश में 3.74 करोड़
विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इनमें 1.82 करोड़ छात्राएं हैं, जो कुल विद्यार्थियों का पचास फीसदी से भी
कम है। इसकी सबसे बड़ी वजह माता पिता का आर्थिक रूप से कमजोर होना है जो सीधे तौर पर लड़कियों की
शिक्षा को प्रभावित करता है। भारत जैसे अल्प विकसित देशों में आज भी रूढ़िवादी विचारों के कारण लड़कियों की
उच्च शिक्षा को लड़कों की अपेक्षा अधिक महत्व नहीं दिया जाता है। देश के छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में
ज्यादातर लड़कियों की बारहवीं के बाद या तो उनकी पढ़ाई छुड़ाकर उन्हें घर के कामों में लगा दिया जाता है या
फिर उनकी शादी कर दी जाती है। ऐसे में लॉक डाउन के कारण कॉलेज और यूनिवर्सिटियों के बंद होने से लड़कों
की अपेक्षा लड़कियों की शिक्षा और भी अधिक खराब होने वाली है।
यूनेस्को की शिक्षा विभाग की सहायक महानिदेशक स्टेफेनिया गियनिनी भी इस संबंध में अपनी आशंका जाहिर कर
चुकी हैं। उनका कहना है कि इस वैश्विक महामारी के कारण शैक्षणिक कार्यकलाप बंद होना लड़कियों के लिए बीच
में ही पढ़ाई छोड़ने की चेतावनी है। इससे शिक्षा में लैंगिक अंतर जहां और भी अधिक बढ़ेगा वहीं विवाह की कानूनी
आयु से पहले ही लड़कियों की शादी की संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। उनके अनुसार कोरोना
संकट के बाद लॉक डाउन के कारण लगभग 89 प्रतिशत बच्चे शिक्षा से दूर हो गए हैं। इनमें पिछड़े तथा अल्प
विकसित देशों में लड़कियों की बहुत बड़ी संख्या है, जहां शिक्षा प्राप्त करना पहले ही किसी जंग जीतने से कम
नहीं है।
यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई कर रहे प्रत्येक चार में से एक छात्र की पढ़ाई इस
महामारी और लॉक डाउन की वजह से प्रभावित हो रही है। इससे निपटने के लिए यूनेस्को ने सभी देशों को आपात
उपायों को अपनाने का सुझाव दिया है। यूनेस्को महानिदेशक ऑडरे अजुले के अनुसार यह एक जटिल समस्या है।
एक ओर जहां छात्रों का स्वास्थ्य सर्वोपरि है तो वहीं दूसरी ओर उनकी प्रभावित होती शिक्षा को भी ध्यान में रखना
आवश्यक है। ऐसे में बच्चों की शिक्षा प्रभावित न हो, इसके लिए सभी देशों को मिलकर उच्च तकनीक, निम्न
तकनीक और बिना तकनीक वाले समाधान तलाशने के प्रयास करने होंगे। सबसे प्रभावशाली तरीके का फायदा सभी
देशों तक पहुंचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग और भागीदारी सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि वर्तमान वैश्विक
संकट से शिक्षा में काफी व्यवधान आया है। यदि ऐसी ही स्थिति बरकरार रहती है तो यह शिक्षा के अधिकार के
लिए खतरा हो सकता है।
गौरतलब है कि कोरोना वायरस से सुरक्षा के मद्देनजर देश में 25 मार्च से 21 दिनों का पहला लॉकडाउन लागू
किया गया था। लेकिन संक्रमण के बढ़ते खतरे के मद्देनजर लॉक डाउन की इस अवधि को चार बार बढ़ाया गया।
हालांकि जून में पांचवें चरण के लॉक डाउन में कुछ रियायतों के साथ ढ़ील भी दी जाने लगी है। लेकिन कोरोना
संकट की भयावहता को देखते हुए स्कूल और कॉलेजों को बंद रखने का फैसला सराहनीय है। बहरहाल देश के
नौनिहालों के भविष्य लिए फिलहाल इस दिशा में सभी राज्य सरकारों के साथ बेहतर समन्वय करते हुए केंद्र को
एक कड़े फैसले लेने की जरूरत है ताकि सभी राज्यों के छात्र-छात्राओं को शिक्षा का समुचित लाभ उठाने का अवसर
प्राप्त हो सके।