अर्पित गुप्ता
लोकतंत्र के अन्य तीन स्तंभों की तरह मीडिया भी समाज से कभी विलग नहीं हो सकता। भले ही मीडिया सूचना
संप्रेषण के अलावा समाज में बदलाव लाने में अहम भूमिका निभाता है, लेकिन उस पर भी अन्य स्तंभों की तरह
समाज का सीधा प्रभाव पड़ता है। वर्तमान में जब समूचा जगत वैश्विक महामारी कोविड-19 से संक्रमित है तो
मीडिया कैसे अछूता रह सकता है। वह भी उस काल में जब मीडिया लोगों के निजी जीवन में उनके साए की तरह
प्रवेश कर चुका हो। अधिकांश लोगों के दिन की शुरुआत और अंत मोबाइल या किसी ऐसे अन्य उपकरण के बिना
नहीं होती, जिससे सूचना संप्रेषित न होती हो। कोरोना जनित भय के इस वातावरण में जब पूरा देश सोशल
डिस्टेंसिंग के साए में जीते हुए, अपना अस्तित्व बचाने के लिए लॉकडाउन और कर्फ्यू का पालन कर रहा हो तो
मीडिया की भूमिका और भी अहम हो जाती है। उससे उम्मीद की जाती है कि वह आम आदमी की दुःख-तकली़फ
की कवरेज के अलावा भय के इस परिवेश में उसका संबल बनकर सामने आए। सामाजिक दूरी को मन कभी
स्वीकार नहीं कर पाता। घरों की बनावट, खासकर शहरी इला़कों में सोशल डिस्टेंसिंग के प्रतिकूल है। घर में
लगातार बने रहने से व्यक्ति पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ना लाज़िमी है। ऐसे में व्यक्ति अपना ध्यान हटाने के लिए
अन्य गतिविधियों का सहारा ले रहा है। बाह्य गतिविधियों के पूरी तरह ठप हो जाने से उसके पास अपने भीतर
प्रवेश के अलावा अध्ययन या मीडिया का सहारा ही शेष बचता है। ऐसे समय में व्यक्ति एक साधन से दूसरे साधन
में छलांग मारने पर मजबूर हो जाता है। सोशल मीडिया उसे परिवार में रहते हुए भी वह स्वतंत्रता प्रदान करता है,
जिसकी चाह हर आदमी करता है। ऐसे समय में सोशल मीडिया का अंधाधुंध इस्तेमाल होना स्वाभाविक है। इसके
माध्यम से ज़िंदगी अपने को प्रकट करने का ज़रिया ढूंढ रही है। कुछ अर्सा पहले तक संस्थाएं अपनी स्वार्थसिद्धि
के लिएगलत और गढ़ी हुई सूचनाएं संप्रेषित कर रही थीं। पर प्रशासन के स्तर पर यह चिंता कभी नहीं हुई थी
कि इस प्लेटफॉर्म पर क्या परोसा जा रहा है? लेकिन बदली परिस्थितियों में अब खुली आंखों के साथ इसकी
नि़गरानी आरंभ हो गई है। जिससे झूठी एवं गलत सूचनाओं और खबरों के संप्रेषण पर फिलहाल रोक लगाने में
कामयाबी मिली है। उल्लंघना करने वालों पर कार्रवाई भी हो रही है। लेकिन कालांतर में इसका लाभ तभी मिलेगा,
जब आंखें बंद न हों। सूचनाओं की बाढ़ सोशल मीडिया पर अब भी वैसी है, लेकिन कानून के डर से ज़हर फैलना
कम हुआ है। विडंबना है कि जहां मीडिया कर्मी अपनी जान जोखिम में डालकर कोरोना से संबंधित जानकारी
समाज तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं बहस के नाम पर कई खबरिया चैनल अब भी ज़हर उगल रहे हैं।
आर्थिक तंगी के इस दौर में कई मीडिया संस्थान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस विकट दौर में मीडिया
वर्तमान परिस्थितियों के आधार पर भविष्य की परिकल्पना करते हुए अपना सही लक्ष्य निर्धारित कर पत्रकारिता को
पुनः मिशन के रूप में बदलने की कोशिश कर सकता है। एॅम्बेडेड मीडिया के तमगे से बचते हुए स्वार्थवश कुछ
गौण मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय मीडिया को अहम मुद्दों को सामने लाने और एजेंडे को प्रॉपेगेंडा में न
बदल कर सामाजिक सद्भाव बढ़ाते हुए आगे चलना होगा। वजह स्पष्ट है कि अगर समाज रहेगा और सही दिशा
में बढ़ेगा तो नई सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिभाषाएं गढ़ी जा सकती हैं। लेकिन हालात सामान्य होने
पर अगर चांदी कूटने की पुरानी कोशिशें जारी रहती हैं और भविष्य में ऐसी ही परिस्थितियों का पुनः प्रकटीकरण
होता है, तो वापसी करना मुश्किल होगा।