राजीव गोयल
भारतीय राजनीतिज्ञ असमंजस में है। आर्थिक ऊर्जा शहरी क्षेत्रों में है जबकि वोट की ताकत ग्रामीण अंचल में
है। शहरी क्षेत्रों के हिमायती नेताओं को लगभग हर चुनाव में मुंह की खानी पड़ती है, मगर वास्तविकता यह है
कि दुनिया भर में आर्थिक विकास ने अंततः शहरीकरण को बढ़ावा दिया है। यह एक कड़वा सच है कि देश में
अलग-अलग समय पर सत्ता में रहीं केंद्र सरकारें लोगों की आंखों में धूल झोंकते हुए बेरोज़गारी और गरीबी के
गलत आंकड़े पेश करती रही हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि वर्तमान शासक भी इस खेल में उसी तरह से शामिल हैं।
उससे भी ज्यादा खेदजनक तथ्य यह है कि ये आंकड़े एक निरर्थक बहस से मात्र बौद्धिक खुजलाहट का साधन
बनकर रह जाते हैं, हमारे सामने कोई ऐसा समाधान नहीं आता जो समस्या को जड़ से दूर करने की नीयत से
बताया गया हो। विभिन्न अध्ययनों से सिद्ध हुआ है कि देश के उन क्षेत्रों का तेजी से विकास हुआ है जहां
औद्योगीकरण आया। किसी भी प्रदेश के जिन हिस्सों में उद्योगों की स्थापना हुई वहां ढांचागत सुविधाएं,
शिक्षा सुविधाएं, सड़क, बिजली, पानी की सुविधाएं, बैंकिंग व्यवस्था, आवासीय व्यवस्था तथा शॉपिंग
सुविधाओं आदि में तेजी से विकास हुआ है। इसके बावजूद एक सच यह भी है कि अक्सर स्थानीय लोगों द्वारा
उद्योगों की स्थापना के कदमों का विरोध होता रहता है। आज हमें यह समझने की जरूरत है कि औद्योगिक
विकास के कारण होने वाले धनात्मक बदलाव को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाए ताकि इस संबंध में पाली जा रही
मिथ्या धारणाओं को तोड़ा जा सके।
हाल ही में एनजीओ बुलंदी ने एक शोध किया जिसका उद्देश्य हिमाचल प्रदेश में सामाजिक ढांचागत सुविधाओं
के विकास पर औद्योगीकरण के परिणामों पर लोगों के विचार जानना और उनका विश्लेषण करना था। इस
अध्ययन में राज्य में आर्थिक ढांचागत सुविधाओं के विकास में औद्योगीकरण की भूमिका पर जनमत सर्वेक्षण
के परिणामों का विश्लेषण भी शामिल था। सर्वेक्षण में भाग लेने वाले अधिकांश लोगों ने इस बात से सहमति
जताई कि राज्य में ढांचागत सुविधाओं के आधुनिकीकरण में औद्योगिक विकास की बड़ी भूमिका रही है।
परवाणू, बद्दी, काला अंब और पांवटा साहिब के निवासियों ने अधिकतर इस मत का समर्थन किया कि इन
क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना से ढांचागत सुविधाओं के आधुनिकीकरण में मदद मिली है। ज्ञातव्य है कि
हिमाचल प्रदेश पर्यावरण की दृष्टि से एक संवेदनशील राज्य है और लोगों की धारणा है कि विकास का हर
प्रयास राज्य के समग्र संतुलन के लिए हानिकारक होगा। इसके विपरीत हमारे अध्ययन से यह साबित हुआ है
कि उद्योगों के विस्तार ने राज्य में विकास की गति तेज की है। उद्योगों की स्थापना का यह मतलब कतई
नहीं है कि वे संतुलन के लिए हानिकारक ही होंगे। इसके विपरीत उद्योगों के विकास से उन क्षेत्रों तथा
स्थानीय लोगों के विकास की रफ्तार तेज हो सकती है। इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री एनआर नारायण मूर्ति ने
अपनी किताब ‘बेहतर भारत, बेहतर दुनिया’ में भी इसी तथ्य का समर्थन किया है कि शहरीकरण से विकास
को गति मिली है और अर्थव्यवस्था बेहतर हुई है। भारतवर्ष ऋषियों-मुनियों का देश रहा है।
हमारे देश में मोह-माया के त्याग की बड़ी महत्ता रही है जिसके कारण धनोपार्जन को हेय दृष्टि से देखा जाता
रहा है। ‘जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान’ की धारणा पर चलने वाले भारतीयों ने गरीबी को
महिमामंडित किया या फिर अपनी गरीबी के लिए कभी समाज को, कभी किस्मत को दोष दिया तो कभी ‘धन’
को ‘मिट्टी’ या ‘हाथों की मैल’ बता कर धनोपार्जन से मुंह मोड़ने का बहाना बना लिया। विडंबना यह थी कि
‘सादा जीवन, उच्च विचार’ की धारणा का ढिंढोरा पीटने वाले राजनेताओं और अधिकारियों का काला धन देशी-
विदेशी बैंकों में भरने लगा। उनके बच्चे विदेशों में पढ़े और आम जनता को टाट-पट्टी वाले स्कूल मिले। एक
वर्ग विशेष की छोटी से छोटी बीमारी का इलाज विदेशों में होने लगा और जनसाधारण जीवनरक्षक दवाइयों के
लिए भी तरसा। परिणाम यह हुआ कि सामान्यजन यह मानकर चलते रहे कि ‘जो धन कमाता है वह गरीबों
का खून चूसता है।’ यानी धारणा यह बनी कि धन कमाना बुराई है।
नब्बे के दशक में पहला बदलाव तब आया जब उदारीकरण ने धन को एक बुराई मानने की प्रवृत्ति को बहुत हद
तक समाप्त किया। उसके बावजूद जनमानस असमंजस में है। विरोधाभास यह है कि हममें से कोई निर्धनता में
नहीं जीना चाहता, पर हम अमीरों को कोसने से भी बाज नहीं आते। हम संपन्नता चाहते हैं, पर इसके लिए
जोखिम उठाने से डरते हैं। कैसी विलक्षण बात है कि दीवाली पर धूमधाम से लक्ष्मीपूजा करने वाले लोग अमीरों
को कोसना भी अपना परम कर्त्तव्य मानते हैं। हमारी चुनौती यह है कि हम अपनी कमियों और सीमाओं को
पहचानें, उस संसार के बारे में विचार करें जो हम बनाना चाहते हैं और उस संसार को बनाने के लिए त्याग
और मेहनत करें। अपनी कमियों को स्वीकार करना उन्हें मिटाने की दिशा में पहला कदम होगा। यह रटते जाने
का कोई लाभ नहीं है कि हम दुनिया का सर्वश्रेष्ठ देश हैं। कहने मात्र से भारत महान नहीं बनेगा, अपनी
कमियों को पहचानने, उन्नत देशों की अच्छाइयों से सीखने और वैसा बनने के लिए मेहनत करने से ही हम
एक आदर्श समाज की स्थापना कर सकते हैं। एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है।
यदि आप विश्व की सौ सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियों की सूची बनाएं तो पहले 63 स्थानों पर भिन्न-भिन्न देशों
का नाम आता है और शेष 37 स्थानों पर आईबीएम, माइक्रोसॉफ्ट तथा पेप्सिको जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं।
विश्व के शेष देश भी इन कंपनियों से बहुत छोटे हैं। इनमें से बहुत सी कंपनियां शोध और समाजसेवा पर
नियमित रूप से बड़े खर्च करती हैं। इन कंपनियों के सहयोग से बहुत से क्रांतिकारी आविष्कार हुए हैं जो शायद
अन्यथा संभव ही न हुए होते। तो भी, औद्योगीकरण के लाभ पर लट्टू हुए बिना इस बात का भी ध्यान रखा
जाना चाहिए कि उद्योग से पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे और औद्योगीकरण के कारण विस्थापित लोगों के
पुनर्वास और रोज़गार का काम भी साथ-साथ चले। रोजगार के अवसरों की कमी एक बहाना मात्र है। इंटरनेट
और तकनीक के मेल से नई क्रांति आई है। यह सही है कि रोज़गार छिने हैं, नौकरियां गई हैं, लेकिन यह भी
सच है कि नए ज़माने की आवश्यकताओं के अनुरूप हुनरमंद लोगों की मांग बढ़ी है और उनके वेतनमान में
उछाल आया है। एक और सच यह भी है कि कोरोना के इस संकट के समय कई बड़े उद्योगपतियों ने दिल
खोलकर सहायता की है। यह इसीलिए संभव था कि उनके पास ऐसे किसी समय के लिए धन उपलब्ध था।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सही सोच और नेतृत्व से सब कुछ संभव है। हमें इसी ओर काम करने की
आवश्यकता है, ताकि हम गरीबी से उबर कर एक विकसित समाज बन सकें।