डॉक्टर सीमा विजयवर्गीय
इंजीनियर राशिद हुसैन
राजस्थान नाम सुनते ही ज़ेहन में दूर तक फैले रेगिस्तान सूखे पहाड़, बिना साए के पेड़ , ख़ुश्क मौसम और पानी की किल्लत की तस्वीर उभरकर आती है। मगर देश के इसी सूबे में भर्तृहरि की तपोभूमि, ऐतिहासिक शहर है अलवर जो राजधानी दिल्ली से लगभग 150 km दूर है। यहाँ कई पर्यटक स्थल हैं जिसमें अपने पूर्वजों के शौर्य के प्रतीक बाला किला, भानगढ़ का किला ,मूसी महारानी की छतरी है तो इसी धरती के सीने पर एक बहुत ख़ूबसूरत सिलीसेढ़ नामक झील भी है जो पर्यटकों को अपनी और आकर्षित करती है ।भले ही प्रदेश में हरियाली लंबे समय बाद तपती धरती पर हुई हल्की बारिश की छींटों की तरह हो । इसी रेतीली सर ज़मीं पर जन्म लिया कोमल मन डॉ सीमा विजयवर्गीय ने जिन्होंने समाज को बहुत नज़दीक से देखा और अपनी भावनाओं को शेर बना कर ग़ज़ल की माला में पिरो दिया । ग़ज़लकारा अलवर की ऐतिहासिक और पर्यटन स्थल की पहचान से हटकर साहित्यिक संसार में अपना और अपने जिले का नाम रौशन करने का सुन्दर प्रयास कर रही हैं जो सराहनीय है
डॉ सीमा विजयवर्गीय की हाल ही में प्रकाशित चौथा ग़ज़ल -संग्रह “बुद्ध होना चाहती हूँ ” का विमोचन हुआ । उन्होंने नारी के विविध रूपों बेटी ,माँ ,बहन, पत्नी, प्रेमिका मन की संवेदनाओं को बड़ी ख़ूबसूरती से अपनी ग़ज़लों में अभिव्यक्त किया है वहीं समाज के हर पहलू को भी छुआ है। वह जुदाई का दर्द लिखती हैं तो मौसम में प्रफुल्लित मन का अहसास और प्रकृति का सौंदर्य भी लिखती हैं, वह देश प्रेम से ओतप्रोत ग़ज़लें लिखती हैं तो उनकी ग़ज़लें आध्यात्म की ओर भी ले जाती हैं । वह माँ के आँचल का सुख लिखती हैं तो पिता के साए की अहमियत भी बताती हैं।
उन्होंने अपनी गजलों में प्रेम को कुछ इस तरह परिभाषित किया है__
जो मेरी रूह तक में रम गया है।
उसी में डूब जाना चाहती हूँ।।
मुझे क्यों लगे यही,बस यही, तू यही कहीं मेरे पास है।
ये हवा भी मुझको बता गई तू यहीं कहीं मेरे पास है।।
मैं फूलों की तरह खिलना महकना चाहती हूँ बस।
हवाओं में फ़िज़ाओं में पुलकना चाहती हूँ बस।।
प्यार जीवन की अमूल्य निधि है, इसका महत्त्व न समझने वालों से कुछ इस अंदाज़ में बात करती हैं-
शिकायतें तुमको भी बहुत हैं
है शिकवे मेरे भी कम नहीं कुछ।
मगर सफ़र है बहुत ही छोटा
बहुत ही छोटी ज़िन्दगानी।।
न सोच लेना हैं धागे कच्चे जो टूट जाएँगे एक पल में।
है गहरे रिश्ते जन्म-जन्म के जनम-जनम की है यह कहानी।।
विरही के मन की स्थिति क्या होती है उसकी उलझन को कुछ यूँ लिखा है__
मेरी यह उलझन मेरी ये तड़पन उन्हें मैं आखिर बताऊँ कैसे।
चले गए हैं वो रूठ कर अब बताओ उनको मनाऊँ कैसे।।
आत्मा परमात्मा से मिलने के लिए कितनी लालायित है। ये रूहानी शेर देखिएगा __
ये बिंदी यह लाली यह मेहंदी महावर।
ये चूड़ी यह कंगन तुम्हारे लिए हैं।।
बनी आज मीरा तुम्हारे लिए ही।
ये गायन यह नर्तन तुम्हारे लिए हैं।।
आज के समय में दोस्ती को प्रेम समझने वाली लड़कियों के लिए भी हिदायत को ग़ज़ल के लहज़े में कहा है__
बात जो मैं तुमसे कह रही ग़ौर से तुम सुनो लड़कियों।
दिल की मासूमियत है अलग और ज़माना है बिल्कुल अलग।।
शायरा को बसंत का मौसम बहुत लुभाता है वह प्रकृति की सुंदरता का बखान अपने शेरों में कुछ इस तरह करती हैं_
नए तराने नए फ़साने सुनाने आया बसंत फिर से।
सुहाने मौसम के रंग सारे दिखाने आया बसंत फिर से।।
फुहारे छम-छम-सी नाचती है धरा भी नदिया सी बह चली है।
ये हँसते-खिलते-मचलते झूले मेरी उमंगे बढ़ा रहे हैं।।
देश दुनिया में हो रही हिंसा लड़ाई झगड़े से कवयित्री का मन बहुत व्यथित होता है। वो अपने इस दुख को इस तरह बयांँ करती हैं__
रहे मंजर न ख़ुशतर तो सुकून से कौन बैठेगा।
जले ये धरती अम्बर तो सुकूँ से कौन बैठेगा।।
फिर नफ़रत को मिटाने की चाहत का इज़हार कुछ यूँ करती हैं_
मिटा नफ़रत की राहों को मैं उल्फत बाँट दूँ सबको।
कभी ऐसा भी लगता है मैं चाहत बाँट दूँ सबको।।
सीमा पर शहीद हुए जवान की विधवा के मन की पीड़ा को लेखिका ने पढ़ा और यूँ व्यक्त किया है__
जो ज़िंदा लाश बनकर जी रही हैं अपने आँगन में।
शहीदों की वो बेवाएँ विवश करती हैं लिखने को।।
माँ की ममता और उससे फैज्याब होने के लिए जिनकी मां हयात हैं उनको हिदायत करते हुए कहती हैं__
माँ के आँचल में रख के सर अपना।
दो घड़ी चैन से बिताया कर।।
फिर माँ को याद करते उनकी कभी न पूरी होने वाली कमी को इन शब्दों में ढालती हैं__
साथ अपने तू क्यों ले गई ।
प्यार की झप्पियाँ मेरी माँ।।
आज किससे गले में मिलूँ।
हर तरफ दूरियाँ मेरी माँ।।
कवयित्री की नज़र वृद्धाश्रम पर भी पैनी है वो आज के आधुनिक कलयुगी औलाद की कहानी भी बड़ी जिम्मेदारी से कहती हैं__
इस नए घर को करीने से सजाना चाहता है।
माँ की वो खटिया पुरानी भी हटाना चाहता है।।
जब किसी के पिता इस दुनिया में नहीं रहते तब उनकी कमी कैसे महसूस होती है उनके साए की अहमियत को दर्शाती हुई लिखती हैं__
रिश्तों में महसूस न होती अब कुछ गरमाई बाबा।
उथलेपन में कब की खोई दिल की गहराई बाबा।।
लेखिका ने रोटी की ज़रूरत का जिक्र भी बख़ूबी किया है_
भूखे के सपनों में जब भी आती है।
चाँद सरीखी दिख जाती है ये रोटी।।
ग़ज़लकारा जब बचपन की अठखेलियों के ख़यालों में खो जाती हैं तो गाँव की सादगी भरी जिंदगी की यादों से पाठक और श्रोता का मन भर आता है_
परियों वाली एक कहानी तुम्हें सुनाऊँ भोले बचपन।
या कागज़ की नाव बनाकर ख़ूब रिझाऊँ भोले बचपन।।
वो अपनापन, वो भोलापन, वो व्यवहार बचा ही होगा।
गाँवों में अब भी थोड़ा तो पिछला प्यार बचा ही होगा।।
कुल मिलाकर सार ये है ग़ज़लकार का यह संग्रह समाज का मुकम्मल आईना है जिसमें बचपन की अठखेलियाँ,जवानी का प्यार ,दिवाली की खुशियाँ, गाँव की सादगी, मिट्टी से प्रेम ,भाईचारे की बात, तो माता पिता का सान्निध्य उनके बिना यतीम जिंदगी को बेहद सलीके से लिखा गया है साथ ही इनकी ग़ज़लें शिल्प की दृष्टि से भी बेजोड़ हैं। आपकी ग़ज़लों में विशिष्ट बहरें अपने पूर्ण कसावट के साथ प्रयोग की गई हैं। व्याकरण निबद्धता आपकी ग़ज़लों की प्रमुखता से देखने को मिलती है। आप सुप्रसिद्ध उस्ताद शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ साहब की शिष्या हैं, उनका नाम आप ऐसे ही रौशन करती रहें। डॉक्टर सीमा विजयवर्गीय गजल संग्रह” बुद्ध होना चाहती हूँ” ग़ज़ल-परम्परा का उत्तरोत्तर विकास है। आप बधाई की पात्र हैं आपकी साहित्यिक यात्रा यूँ चलती रहे मेरी शुभकामनाएँ। आप ही के शेर से अपनी कलम को विराम देना चाहूँगा-
ख़ून, हत्या, साजिशों से हैं घिरी चारों दिशाएँ
पर इसी परिवेश में मैं बुद्ध होना चाहती हूँ