अर्पित गुप्ता
ग्रीन पीस इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि कीटनाशक बच्चों के दिमाग को घुन की तरह खोखला कर रहे हैं। बच्चों
के मानसिक विकास पर कीटनाशकों के प्रभाव के अध्ययन में यह सामने आया कि देश के कई राज्यों में
कीटनाशकों का इस्तेमाल सरकार द्वारा निर्धारित वैज्ञानिक मापदंडों के अनुरूप नहीं है। कंपनियां इनका इस्तेमाल
मनमानी तरीके से कर रही हैं, जिससे बच्चों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। पानी-भोजन की शुद्धता के नाम पर
रासायनिक जहरीले तत्वों की जो मात्रा इस्तेमाल की जा रही है, वह बच्चों के लिए ही नहीं, बल्कि बड़ों के लिए भी
बेहद नुकसानदायक है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है और उत्पादन बढ़ रहा है, वैसे-वैसे
खाद्यान्नों के भंडार गृहों और खेतों में चूहों और अन्य कीट-पतंगों का प्रकोप भी बढ़ता जा रहा है। इससे हर साल
ग्यारह हजार करोड़ रुपए के कृषि उत्पाद, फल और मेवे नष्ट हो जाते हैं। इतनी बड़ी मात्रा में कृषि उत्पादों की
बर्बादी को रोकने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर कीनाशकों का इस्तेमाल होता है।
गौरतलब है, चूहों और कीटों की रोकथाम के लिए देशी तरीकों को अपनाकर महफूज रहा जा सकता है। एक आंकड़े
के मुताबिक 1950 में कृषि उत्पादों और अन्य उत्पादों को बचाने के लिए दो हजार टन कीटनाशकों का इस्तेमाल
किया गया था। अब इसकी खपत बढ़ कर 94 हजार टन हो गई है, यानी बहत्तर सालों में 95 हजार टन
कीटनाशकों का उपयोग बढ़ा है। अब तो शायद ही कोई ऐसी चीज हो, जिसको सुरक्षित रखने के लिए कीटनाशकों
का उपयोग न किया जाता हो। जैविक खेती के उत्पादों को छोड़ दिया जाए तो, पीने और खाने की हर वस्तु में
कीटनाशक मिलाए जाते हैं। आज देश का सारा पर्यावरण कीटनाशकों के इस्तेमाल से जहरीला हो गया है। एम्स के
फार्माकोलॉजी विभाग के एक अध्ययन के अनुसार घरों में मच्छर और कॉकरोच मारने के लिए छिड़के जाने वाले
कीटनाशकों का चौदह वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर असर बहुत घातक असर पड़ता है। कहने का मतलब यह है कि
घर में ही बच्चे जाने-अनजाने में कीटनाशकों की चपेट में आते जा रहे हैं। बिडंबना तो यह है कि शिक्षित घरों में
भी इसके प्रति खास जागरूकता नहीं है। घरों में मंहगे-चमकीले सेब, केले, आम, बैंगन, भिंडी, लौकी, नेनुआ जैसी
इस्तेमाल होने वाली तमाम सब्जियों में कीटनाशकों का इस्तेमाल, एक नहीं, दो-तीन स्तरीय होने लगा है। खेत में
जहां इनका उपयोग फसल बढ़ाने के लिए किया जाता है, वहीं रोगों से बचाव के लिए भी इन्हें इस्तेमाल किया
जाता है। फिर इन्हें चमकदार बनाने के लिए फोलिडज नामक रसायन में डुबोया जाता है।
दो साल पहले पश्चिम बंगाल, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात व दक्षिण के राज्यों में कपास की फसल पर सफेद
मक्खियों के लाइलाज हमले का मुख्य कारण इन पर अंधाधुंध कीटनाशक छिड़के गए हैं। इससे जहां जमीन में जहर
घुलता जा रहा है, वहीं जीवन, पर्यावरण, विविधता को भी नुकसान पहुंच रहा है।
शोध के मुताबिक जिन क्षेत्रों की फसलों में कीटनाशक दवाओं का प्रयोग अधिक किया जाता है, वहां पिछले 50
सालों में कई वनस्पतियां और कीट-पतंगे हमेशा के लिए खत्म हो गए हैं। देश में कई ऐसे इलाके हैं, जहां
कीटनाशकों की गंध के कारण सारा वातावरण जहरीला बनता जा रहा है और सांस, त्वचा, दिल एवं दिमाग संबंधी
बीमारियां आमतौर पर होने लगी हैं। विशेषकर हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और दिल्ली में कई
इलाके पर्यावरण के नजरिए से पूरी तरह खराब हो गए हैं। जानेमाने वैज्ञानिक, पर्यावरणविद् और चिकित्सकों के
अनुसार कीटनाशकों से छिड़काव किए गए टमाटर, बैंगन और सेब आदि खाने से किडनी, छाती, स्नायुतंत्र, पाचन
अंग और मस्तिष्क पर असर पडऩे लगा है।