किसका इंडिया और किसका भारत

asiakhabar.com | August 4, 2023 | 4:24 pm IST
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-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-
भारत के राजनीतिक इतिहास में 17-18 जुलाई 2023 का दिन बाद में याद किया जाता रहेगा। इसी दिन कर्नाटक की राजधानी में सोनिया गान्धी अपनी सन्तानों राहुल गान्धी और प्रियंका गान्धी समेत बेंगलुरू में पधारी थीं। वहां देश के कुछ दूसरे नए-पुराने राजवंश भी एकत्रित हुए थे। मसलन मरहूम मुलायम सिंह का राजवंश, लालू यादव का राजवंश, चौधरी चरण सिंह का राजवंश, मरहूम करुणानिधि का राजवंश। इसके अतिरिक्त कुछ ज्ञात-अज्ञात राजनीतिक दल भी हाजिर थे। वैसे जो नए-पुराने राजवंश आए थे, उन्होंने भी देशकाल की जरूरत के अनुसार अपने-अपने लिए राजनीतिक दल बना रखे थे। कुछ ने स्वयं बनाए थे और कुछ ने बने बनाए राजनीतिक दल पर कब्जा कर लिया था। उदाहरण के लिए सोनिया गान्धी ने अपने पति की दुखद मृत्यु के बाद देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल इंडियन नैशनल कांग्रेस पर ही कब्जा कर लिया था। ये सभी दल किसलिए बेंगलुरू में एकत्रित हुए थे? मुख्य मुद्दा तो यही था कि राजवंशों को भारत के लोकतंत्र से किस प्रकार बचाया जाए? पिछले कुछ वर्षों से भारत के लोगों में नई चेतना और जागृति देखी जा रही है। वे विदेशी उपनिवेशवाद मानसिकता से मुक्त होते दिखाई दे रहे हैं।
इससे सबसे बड़ा धक्का देश के सबसे पुराने राजवंश, जिस पर सोनिया गान्धी ने येन केन प्रकारेण कब्जा कर लिया था, को ही लगा। यह राजवंश भारत के लोकतंत्र का शिकार होकर पक्षाघात की स्थिति में आने लगा था। सोनिया गान्धी को इस बात का श्रेय देना होगा कि उन्होंने अपने देश इटली के ही मैकियावली के सभी तौर तरीकों का प्रयोग करते हुए, कम्युनिस्टों व कुछ अन्य छोटे मोटे दलों की सहायता से दस साल तक इस राजवंश को किसी न किसी तरह परोक्ष रूप से ही सही, सत्ता पर बिठाए रखा। लेकिन जैसा कि इस प्रकार के संक्रमण काल में होता है, सभी सत्ताधारी लोग कोयलों की दलाली में मशगूल हो जाते हैं। उनको यह डर लगा रहता है कि पता नहीं लोग उन्हें कब उखाड़ फेंकेंगे। जाहिर है कोयलों की दलाली में मुंह तो काला होगा ही। वह हुआ और उनकी शिनाख्त भी हो गई। उसका जो परिणाम हो सकता था, वही हुआ। राजवंश सत्ता से बाहर हो गए। उन्हें सत्ता से बाहर हुए लगभग दस साल हो गए हैं।
राजकुंवर जवान हो गए। कई राजवंशों के राजकुंवर तो अधेड़ हो गए। अब 2024 में लोकसभा के लिए चुनाव होने वाले हैं। राजवंशों को लगता है यह आखिरी मौका है। यदि इस बार चूक गए तो शायद फिर कभी मौका न मिले। राजवंश पुरानी रियासतों की तरह इतिहास बन जाएंगे। आम लोगों के बलबूते बने राजनीतिक दल बचे रहेंगे। बेंगलुरु में जमावड़ा इसी हताशा में से निकला था। दरअसल इस देश में एक इंडिया है और दूसरा भारत है। इंडिया वह है जिसका निर्माण, उसकी पहचान अंग्रेजों ने इस देश पर अपने दो सौ साल के शासन काल में की है। अंग्रेज मानते थे कि भारत समाप्त हो चुका है, वह इतिहास के अन्धेरे में गुम हो चुका है। इस भूमि पर अलग अलग समुदायों के लोग रहते हैं जिनका आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। वे एक-दूसरे से अनजान ही नहीं बल्कि एक-दूसरे के शत्रु भी हैं। उनका कोई इतिहास नहीं है, कोई संस्कृति नहीं है। उनमें से अधिकांश तो बाहर से ही आए हुए हैं। इसलिए रुडयार्ड किपलिंग कहा करते थे, ये लोग ‘व्हिटमैन्ज बर्डन’ हैं। इनको सभ्य बना कर एक नए राष्ट्र का निर्माण करना पड़ रहा है। यदि आजादी की लड़ाई को ही देखा जाए तो जवाहर लाल नेहरु अपने को इंडिया की विरासत से जोडक़र देखते थे। वे भी कहा करते थे कि हम एक नए राष्ट्र का निर्माण कर रहे हैं। लेकिन महात्मा गान्धी और सरदार पटेल अपने आपको भारत की विरासत से जोड़ते थे। यही कारण था कि नेहरु महात्मा गान्धी का सम्मान तो करते थे, जिसके अनेक राजनीतिक कारण हो सकते हैं, लेकिन वे महात्मा गान्धी के चिन्तन को स्वीकार नहीं करते थे। यहां तक कि उन्होंने महात्मा गान्धी के हिन्द स्वराज के थीसिस को भी अस्वीकार कर दिया था।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन जी कहा करते थे कि हमारे देश में इंडिया और भारत में लड़ाई छिड़ी हुई है। इंडिया भारत को पराजित करना चाहता है। लेकिन इंडिया की आत्मा और विरासत इतनी सशक्त और प्राचीन है कि वह इसमें सफल नहीं हो पाता। लेकिन अंग्रेजों के चले जाने के बाद भारत की सत्ता जिन लोगों के हाथ में आई, वे भारत का नहीं इंडिया का प्रतिनिधित्व करते थे। संविधान बनाते समय भी इंडिया और भारत की यह लड़ाई चलती रही। लेकिन बाबा साहिब अंबेडकर ने अपने संविधान में स्पष्ट कर दिया कि जिसको तुम इंडिया कह रहे हो वह दरअसल भारत है। भारत प्राचीन है। उसी की विरासत को सम्भालने के लिए अंबेडकर ने बहुत प्रयास करके संंस्कृत सीखी थी। उसी की विरासत को बचाने के लिए अंबेडकर ने नागपुर में दीक्षा ली थी। नेहरु के अंबेडकर विरोध का एक कारण यह भी था कि नेहरु अंग्रेजों के बनाए इंडिया से चिपके हुए थे और अंबेडकर भारत की आत्मा से जुड़े थे। कांग्रेस के भीतर भी यदि किसी कालखंड में भारत का कोई प्रतिनिधि आ गया तो उसकी दुर्दशा ही हुई। लाल बहादुर शास्त्री की हत्या से आज तक पर्दा नहीं उठा है। नरसिम्हा राव की स्मृति का भी आज की कांग्रेस जिस प्रकार अपमान कर रही है, उसका भी यही कारण है। नरेन्द्र मोदी के केन्द्र में आ जाने से इंडिया हाशिए पर चला गया है और भारत केन्द्र में आ गया है। भारत की जुबान सत्ता के गलियारों में भी सुनाई देने लगी है।
संथाल भी राष्ट्रपति बन सकते हैं। मृतप्राय भारतीय भाषाओं में भी जान आने लगी है। भारत इंडिया की जुबान अंग्रेजी को छोड़ कर अपनी जनभाषाओं में बोलने लगा है। भारतीय संस्कृति के प्रतीक पुन: नजर आने लगे हैं। एक समय था जब पंडित जवाहर लाल नेहरु ने राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को इसलिए हडक़ा दिया था कि वे कुम्भ में चले गए थे जो भारतीय संस्कृति का पुण्य प्रवाह है। सरदार पटेल को इसलिए अपमानित होना पड़ा था कि उन्होंने सोमनाथ के मंदिर को पुन: बनाने का प्रयास किया था। डा. राजेन्द्र प्रसाद के तो इस अवसर पर दिए गए भाषण का ही सरकारी आकाशवाणी ने बहिष्कार कर दिया था। वे दिन थे जब भारत पर इंडिया का राज था। लेकिन दिन बदले। भारत स्वयं ही जागृत हो गया। कभी सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखा था, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का शिलान्यास स्वयं भारत के प्रधानमंत्री कर रहे हैं। भारत जाग गया है। इसलिए इंडिया कसमसा रहा है। इसे इतिहास की नियति ही कहना होगा कि इंडिया को भारत पर लादने के प्रयास इतालवी मूल की सोनिया गान्धी कर रही हैं। लगता है इतिहास ने अपना एक चक्र पूरा कर लिया है। संविधान सभा में बाबा साहिब अंबेडकर का दिया अंतिम भाषण सभी को पढ़ लेना चाहिए, उसी में से रास्ता मिल जाएगा।


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