-डा. वरिंदर भाटिया-
प्रधानमंत्री जी ने एक बड़ा फैसला लेते हुए निजी मेडिकल कॉलेजों की आधी सीटों पर सरकारी जितनी फीस करने
का ऐलान किया है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि यूक्रेन और रूस की लड़ाई में वहां मेडिकल शिक्षा ग्रहण करने
गए भारतीय छात्रों का बड़ा नुक्सान हुआ है। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार हरियाणा में रहने वाले शाम लाल
(बदला नाम), जो पेशे से किसान हैं, 2019 में घर के गहने गिरवी रखकर उन्होंने अपने बेटे मोहन (बदला नाम)
का एडमिशन यूक्रेन की एक मेडिकल यूनिवर्सिटी में कराया था। पिता का सपना बेटे को डॉक्टर बनाना था। लेकिन
अब न सिर्फ शाम लाल बल्कि उनके जैसे हज़ारों परिवारों के सपनों पर संकट के बादल छा गए हैं। इसकी वजह है
यूक्रेन में रूस का हमला जिसके कारण हज़ारों छात्रों को मेडिकल की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर भारत लौटना पड़
रहा है। मोहन यूक्रेन स्टेट मेडिकल यूनिवर्सिटी में थर्ड ईयर के छात्र हैं। तीन साल में अब तक उनके बीस लाख
रुपए खर्च हो चुके हैं। छठा सेमेस्टर फरवरी में शुरू हुआ था। फीस भी भर दी थी, लेकिन हालात ऐसे थे कि भारत
लौटना पड़ा। यूक्रेन में अब जैसे हालात हैं, मोहन को नहीं लग रहा कि वह कभी वापस जा पाएंगे। मोहन अपने
करियर के बारे में वह कुछ नहीं सोच पा रहा है कि कैसे मैं डॉक्टर बन पाऊंगा। मोहन को यूक्रेन में मेडिकल की
पढ़ाई के लिए भेजना परिवार के लिए भी आसान नहीं था। मोहन के पिता बताते हैं, ‘गहने बैंक में रखकर लोन
लिया, किसान क्रेडिट कार्ड से पैसे उठाए, तब जाकर बच्चे की फीस भरी।
कपास की फसल भी कम हो रही है। एक-एक रुपए की परेशानी झेलकर बच्चे को डॉक्टर बनने के लिए भेजा था।’
मोहन जैसे क़रीब 18 हज़ार बच्चे हैं जो यूक्रेन छोड़कर मजबूरन भारत आ रहे हैं। किसी ने दो साल की पढ़ाई पूरी
की है तो किसी ने चार साल की। सब बच्चों के सामने बस एक ही सवाल है कि अब उनकी आगे की पढ़ाई कैसे
पूरी होगी? क्या उन्हें भारत में कहीं जगह मिल पाएगी या फिर उन्हें यूक्रेन में हालात ठीक होने का इंतजार करना
होगा। इस मामले को लेकर राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग यानी नेशनल मेडिकल कमीशन ने एक बयान जारी कर
यूक्रेन से लौटे भारतीय छात्रों को एक साल का बाध्यकारी इंटरनशिप भारत में ही पूरा करने की इजाज़त दे दी है।
हालांकि इसके लिए उन्हें फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्ज़ामिनेशन की परीक्षा पास करनी होगी। बयान में आयोग ने
कहा कि फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट लाइसेंस रेगुलेशन 2021 लागू करने के बाद से कुछ छात्रों को स्टेट मेडिकल
काउंसिल में पंजीकरण करवाने में परेशानी आ रही है, लेकिन स्टेट काउंसिल अब इन छात्रों की अर्जियां प्रोसेस कर
सकते हैं।
बयान में कहा गया है कि अगर छात्र को 18 नवंबर 2021 से पहले फॉरेन मेडिकल डिग्री या प्राइमरी
क्वालिफिकेशन मिल गई है या अगर छात्र ने 18 नवंबर 2021 से पहले विदेशी संस्थान में मेडिकल की अंडरग्रेजुएट
पढ़ाई के लिए दाखिला लिया था या फिर जिन्हें केंद्र सरकार ने विशेष नोटिफिकेशन के ज़रिए छूट दी है, उन पर
फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट लाइसेंस रेगुलेशन 2021 लागू नहीं होगा। एक मंत्री जी ने भारतीय छात्रों के लिए पोलैंड में
पढ़ाई पूरी करने की बात कही है। लेकिन यूक्रेन के मुक़ाबले पोलैंड में मेडिकल की पढ़ाई महंगी है। यूक्रेन में क़रीब
25 लाख में मेडिकल की पूरी पढ़ाई हो जाती है। वहीं पोलैंड में ये खर्चा 40 से 60 लाख रुपए तक का होता है।
अगर पोलैंड की यूनिवर्सिटी इसकी इजाज़त भी देती हैं तो भी भारतीय छात्रों के लिए वहां जाकर मेडिकल की पढ़ाई
पूरी करना मुश्किल होगा। पहले एक मेडिकल यूनिवर्सिटी से दूसरी मेडिकल यूनिवर्सिटी में बच्चों का ट्रांसफर होता
था। यूक्रेन से कज़ाखस्तान, किर्गीस्तान या फिर जॉर्जिया में यूक्रेन के बच्चे ट्रांसफर लेते थे, लेकिन नवंबर 2021 में
भारत सरकार ने नियम बदल दिए हैं जिसके तहत बच्चों को मेडिकल की पढ़ाई एक ही यूनिवर्सिटी से पूरी करनी
होगी। इसकी अनदेखी फिलीपींस और कुछ कैरेबियाई देश कर रहे थे। उन पर भारत सरकार ने बैन लगा दिया है।
अगर सरकार नियमों में थोड़ी ढील दे तो बच्चे पोलैंड के बजाय कज़ाख़स्तान, किर्गीस्तान, नेपाल और रोमानिया
जैसे देशों में आसानी से अपनी पढ़ाई पूरी कर सकते हैं। इन देशों में मेडिकल की पढ़ाई का खर्चा भी यूक्रेन जितना
ही है और यहां हर साल हजारों भारतीय छात्र जाते भी हैं। मेडिकल की पढ़ाई बीच में छोड़कर भारत लौटे बच्चे ये
मांग कर रहे हैं कि उनकी बची हुई पढ़ाई भारत में पूरी करवाई जाए। लेकिन क्या ये संभव है।
भारत में मेडिकल की क़रीब एक लाख सीटें हैं। ऐसे में हमें एमबीबीएस में क्वालिटी को भी बनाए रखना है। विदेश
से मेडिकल की पढ़ाई करने वाले सिर्फ पंद्रह प्रतिशत बच्चे ही भारत में फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जामिनेशन पास
कर पाते हैं। इसी तरह से भारत में क़रीब 88 हज़ार एमबीबीएस की सीटें हैं जिसके लिए क़रीब आठ लाख बच्चे
परीक्षा देते हैं। इन सीटों में पचास प्रतिशत सीटें प्राइवेट हैं। भारत में किसी भी प्राइवेट एमबीबीएस की सीट पर
एडमिशन का खर्चा 70 लाख से 1 करोड़ रुपए है। ऐसे में हर साल हजारों भारतीय छात्र अलग-अलग देशों में
मेडिकल की पढ़ाई के लिए जाते हैं। विदेश से मेडिकल की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद बच्चों को भारत में फॉरेन
मेडिकल ग्रेजुएट एग्ज़ामिनेशन की परीक्षा देनी होती है। इसे पास करने के बाद ही भारत में डॉक्टरी करने का
लाइसेंस मिलता है और प्रैक्टिस की जा सकती है। विदेश से मेडिकल की डिग्री के बाद भी बच्चे भारत में डॉक्टर
नहीं बन पाते। तीन सालों में यूक्रेन जाकर मेडिकल की पढ़ाई करने वाले सिर्फ 15 प्रतिशत छात्र ही फॉरेन मेडिकल
ग्रेजुएट एग्जामिनेशन पास कर पाए हैं। यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे छात्रों के मुताबिक़ वहां पहले तीन साल
तक थ्योरी पढ़ाई जाती है। चौथे साल से प्रैक्टिकल शुरू होते हैं। उन्हें हॉस्पिटल जाकर डॉक्टरी का काम सीखना
होता है। ऐसे में सवाल ये है कि मेडिकल की पढ़ाई कर रहे बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई कैसे करेंगे। रूस के हमले के
बाद हमारे टीचर भी यूक्रेन छोड़कर भाग गए हैं। ऑनलाइन पढ़ाई के लिए जो व्यवस्था थी वो भी रूसी हमलों में
तहत-नहस हो गई है।
अगर हम ऑनलाइन पढ़ेंगे तो प्रैक्टिकल सीख ही नहीं पाएंगे। हमरी सरकार को इस बारे में भी कुछ सोचना है।
इस समय भारत में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा संरचना पर ठोस ध्यान देने की जरूरत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन
द्वारा स्थापित मानक के अनुसार प्रति एक हजार लोगों के लिए कम से कम एक डॉक्टर होना चाहिए। भारत में
यह अनुपात अभी केवल 0.74 है। हमारे यहां 157 नए मेडिकल कॉलेज खुले हैं तथा लगभग 84 हजार के आसपास
कुल मेडिकल सीटें हैं। अगर हम देखें तो पिछले साल 16 लाख बच्चे नीट की परीक्षा में शामिल हुए थे। इस परीक्षा
के माध्यम से मात्र 84 हजार सीटों पर प्रवेश होता है। इनमें आधी सीटें ऐसी हैं जिन पर सरकारी कॉलेजों में
एडमिशन होता है। वहां अपेक्षाकृत फीस कम होती है, लेकिन अन्य सीटों पर प्रवेश के लिए फीस बहुत ज्यादा है।
सबसे अधिक जरूरी है कि गुणवत्तापूर्ण मेडिकल शिक्षा भी उपलब्ध कराने पर जोर हो। केवल मेडिकल कॉलेजों की
भरमार नहीं होनी चाहिए। स्वास्थ्य एक अति महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। उसमें आप किसी भी तरह का खिलवाड़ नहीं कर
सकते। आपको देखना होगा कि जब कॉलेजों को अनुमति दे रहे हैं या नए कॉलेज बना रहे हैं तो उनका
इन्फ्रास्ट्रक्चर भी बेहतर हो। यदि हम इन बातों का ध्यान रखते हुए हर साल पांच से दस नए मेडिकल कॉलेज
खोलें तो वर्तमान अंतराल को भरना संभव हो सकेगा। ऊपर किया गया विश्लेषण मेडिकल शिक्षा प्राप्त करने की
इच्छा रखने वाले भारतीय छात्रों की व्यथा बता रहा है। क्या अपने देश में किफायती, सुलभ और बेहतर मेडिकल
शिक्षा की रूपरेखा नहीं खिंची जा सकती है। आदरणीय प्रधानमंत्री जी से यह भी निवेदन होगा कि छात्र और
अभिभावकों के हित में देश में किफायती मेडिकल शिक्षा के विस्तार के लिए एक दीर्घकालीन योजना तुरंत बनाई
जाए।