-नीरजा चौधरी-
कांग्रेस को समायोजित करने के लिए पटना में विपक्षी दलों के सम्मेलन का समय 12 जून से बदलकर 23 जून कर दिया गया। समय परिवर्तन के कारण जो भी रहे हों, लेकिन 12 जून कांग्रेस के लिए कई असहज यादें लेकर आता है-और हो सकता है कि विपक्ष द्वारा उन्हें उकसाया गया हो।
गौरतलब है कि वर्ष 1975 में इसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को तिहरी मार झेलनी पड़ी थी- जिसने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदल दी। उस दिन की शुरुआत श्रीमती गांधी को एक व्यक्तिगत क्षति के साथ हुई- उनके विश्वासपात्र और करीबी सलाहकार डीपी धर (दुर्गा प्रसाद धर) की मृत्यु हो गई, जो उनके करीबी अधिकारियों के समूह ‘कश्मीरी माफिया’ के सदस्य और नेता थे। धर तब मास्को में राजदूत के रूप में तैनात थे और श्रीमती गांधी ने उन्हें परामर्श के लिए दिल्ली बुलाया था। उनके अंतिम संस्कार के तुरंत बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय का वह दूरगामी फैसला आया, जिसने उनके चुनाव को रद्द कर दिया था। और शाम को खबर आई कि कांग्रेस गुजरात का चुनाव विपक्षी दलों के समूह (जनता पार्टी) से हार गई, जिसने बाद में 1977 में उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया।
उसके ठीक तेरह दिन बाद 25 जून को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर जनता के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया, प्रेस सेंसरशिप की शुरुआत की और प्रमुख विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। यह कुछ ऐसा था, जिसने पार्टी को और नीचे गिरा दिया। इसलिए 12 जून से कांग्रेस के साथ-साथ अन्य विपक्षी पार्टियां भी असहज महसूस कर रही हैं।
तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है। कांग्रेस अब वह ताकत नहीं रही, जो पहले हुआ करती थी। और वही पार्टियां, जो इसके खिलाफ तब एकजुट हुई थीं, आज 2024 में भाजपा के खिलाफ बड़ी लड़ाई लड़ने की तैयारी के लिए इससे जुड़ना चाह रही हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी 23 जून को पटना में विपक्षी सम्मेलन में शामिल होने जा रहे हैं। कांग्रेस के बिना भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता पूरी नहीं होती है, यह कई क्षेत्रीय दल मानते हैं।
पटना का यह सम्मेलन इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इसमें 21 विपक्षी पार्टियां शामिल हो रही हैं, ऐसा अतीत में भी हुआ है, बल्कि इसलिए महत्वपूर्ण है कि इस बार इसमें वे लोग भी शामिल होंगे, जिन्होंने पहले कांग्रेस को लेकर आपत्तियां जताई थीं, हालांकि सभी मतभेदों को सुलझाया नहीं जा सका है। गैर-भाजपा दलों को 2019 में 62 फीसदी वोट मिले थे। विपक्षी नेताओं को मालूम है कि 2024 में जहां तक संभव हो, अधिक से अधिक लोकसभा क्षेत्रों में भाजपा के खिलाफ विपक्ष का एक संयुक्त प्रत्याशी खड़ा किया जाए। यही उनका मंत्र, कार्यक्रम और एजेंडा होना चाहिए। वास्तव में और कुछ मायने नहीं रखता। लेकिन अच्छे इरादों के बावजूद ऐसा कहना आसान है, करना मुश्किल। अगर पार्टियों में मतभेद होता है, तब तो यह और भी मुश्किल है। स्पष्ट रूप से, विपक्ष को भाजपा द्वारा अपनाई जा रही रणनीति से अलग रणनीति अपनानी होगी, जो उसे बड़ी जीत दिलाएगी। जाहिर है, विपक्षी दलों को फूंक-फूंककर कदम रखना होगा।
मसलन, भाजपा के पास मोदी के रूप में एक शक्तिशाली और लोकप्रिय नेता है। विपक्ष के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जो मोदी को ‘टक्कर’ दे सके और अधिकांश दलों को स्वीकार्य हो- निश्चित रूप से चुनाव से पहले तो नहीं ही। यही विपक्ष का कमजोर बिंदु है। हालांकि राहुल गांधी ने अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से काफी लोकप्रियता हासिल की है, पर कई क्षेत्रीय दलों को वह स्वीकार्य नहीं होंगे। इसलिए विपक्ष को अपनी कमजोरियों को उजागर करने के बजाय अपनी ताकत का इस्तेमाल करना होगा। यदि उन्हें सरकार बनाने लायक सीटें मिलती हैं, तो चुनाव के बाद नेता चुना जा सकता है। चुनावों के दौरान लोगों की आर्थिक कठिनाइयों को मुद्दा बनाने से फर्क पड़ सकता है, हालांकि भाजपा के पास भी कई चालें होंगी। उसके पास लोगों को लुभाने के लिए कई चीजें हैं, जैसे नौ-10 सितंबर को दिल्ली में जी-20 शिखर सम्मेलन के जरिये वह यह साबित कर सकती है कि भारत विश्वगुरु बन रहा है और दुनिया के तमाम नेता इसके दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं। या जनवरी, 2024 में अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन, जो भाजपा की सांस्कृतिक परियोजना पर जोर देता है।
लोकसभा चुनाव में तीन तरह के निर्वाचन क्षेत्र हैं-करीब 200 सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा से है, दूसरी ऐसी सीटें हैं, जहां क्षेत्रीय दलों का मुकाबला भाजपा से है और तीसरे वर्ग में वैसी बहुत-सी सीटें हैं, जहां कांग्रेस के खिलाफ क्षेत्रीय पार्टियां हैं।
एनसीपी जैसी पार्टियां गुजरात या कर्नाटक जैसे राज्यों में कांग्रेस के खिलाफ उम्मीदवार न उतारकर मदद कर सकती हैं, जहां वे असली खिलाड़ी नहीं हैं, बल्कि ‘वोट कटवा’ बन सकती हैं। और कांग्रेस उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दलों की मदद कर सकती है, जहां उसका सफाया हो चुका है। तीसरी श्रेणी आसान लग सकती है, जहां वामपंथी और कांग्रेस एक-दूसरे से मुकाबला कर रहे हैं, जैसा कि केरल में, लेकिन यहां सहमति बनाना सबसे मुश्किल साबित होगा।
हालांकि ममता बनर्जी और अखिलेश यादव अपने सूबे में कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने को लेकर शांत हैं, यह मुसलमानों का बदलता मिजाज है, जो इन दलों को फिर से कांग्रेस से जुड़ने के लिए प्रेरित कर सकता है। हाल के महीनों में अल्पसंख्यकों ने कांग्रेस को वोट देने का रुझान दिखाया है। अल्पसंख्यक वोट तभी बंट सकते हैं, जब कि सपा व कांग्रेस और तृणमूल व कांग्रेस के बीच मजबूत गठबंधन न हों।
अंततः सब कुछ इस पर निर्भर करेगा कि विपक्षी पार्टियां आमने-सामने की लड़ाई को कितनी गंभीरता से लेती हैं। इसके लिए एक-एक निर्वाचन क्षेत्र में कठिन परिश्रम की आवश्यकता होगी। इन प्रयासों को शरद पवार जैसे वरिष्ठ नेताओं के समर्थन की जरूरत होगी, जो गड़बड़ियों (जो होना तय है) को दूर कर सकते हैं। निस्संदेह पटना सम्मेलन में विपक्षी एकता की बेहतरीन तस्वीर सामने आएगी, लेकिन असली सवाल यह है कि वहां इकट्ठा होने वाले विपक्षी नेता किस हद तक ऐसा तंत्र बनाने में सक्षम होंगे, जो जमीनी स्तर पर एकता को प्रदर्शित करे।