राजीव गोयल
गत 16 अक्तूबर को फ़्रांस में पेरिस से 35 किलोमीटर दूर कोंफ्लां-सोंत-ओनोरौं नामक एक शहर में सैमुअल पाती
नामक इतिहास-भूगोल के एक स्कूली शिक्षक पर घात लगा कर चाकू से हमला कर मार डाला गया और उनका सिर
धड़ से अलग कर दिया गया। आरोप है कि शिक्षक सैमुअल पाती ने आठवीं कक्षा के अपने छात्रों को समाजशास्त्र
पढ़ाते समय फ़्रांस में विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व समझाते हुए पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद के उन
कार्टूनों का उदाहरण दिया था जो 2015 में फ़्रांस की कार्टून पत्रिका 'चार्ली एब्दो' में प्रकाशित हुए थे। इन्हीं व्यंग्य
चित्रों के प्रकाशन के कारण जनवरी 2015 में 'चार्ली एब्दो' पत्रिका के कार्यालय पर हुए हिंसक हमले के दौरान
अनेक पत्रकारों व चित्रकारों सहित 17 लोगों की हत्या कर दी गयी थी। गत 16 अक्तूबर को जब शिक्षक सैमुअल
पाती ने उन्हीं कार्टून्स का उदाहरण दिया और उससे जोड़कर फ़्रांस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रौशनी डाली।
इसके बाद उसी कक्षा की एक मुस्लिम छात्रा के पिता ने सोशल मीडिया में शिक्षक सैमुअल पाती के विरुद्ध निंदा-
अभियान छेड़ दिया। इस निंदा अभियान से प्रभावित होकर एक 18 वर्षीय मुस्लिम युवक ने सैमुअल पर उनके घर
जाते समय चाक़ू से हमला किया तथा उनका गला रेत कर सिर धड़ से अलग कर दिया। इस हिंसक कुकृत्य की
जितनी भी निंदा की जाए वह कम है। यह कार्रवाई किसी भी रूप में न इंसानी है न इस्लामी। बजाए इसके यह
हिंसक कृत्य पूरी तरह से ग़ैर इस्लामी व ग़ैर इंसानी यानी अमानवीय कृत्य है।
इसके पहले भी फ़्रांस में ही जब 2015 में इन्हीं कार्टून्स को प्रकाशित किया गया था तब भी फ़्रांस सहित अनेक
मुस्लिम बाहुल्य देशों में प्रदर्शन हुए थे जो कई कई देशों में हिंसक भी हो गए थे। इस बार भी कमोबेश वही
सूरतेहाल देखी जा रही है। बांग्लादेश व पाकिस्तान में फ़्रांस विरोधी प्रदर्शन के नाम पर हिंसक भीड़ ने उन
धर्मस्थलों व उस समुदाय के लोगों को अकारण ही निशाना बनाया व उन्हें क्षति पहुंचाई जिनका फ़्रांस के कार्टून
प्रकाशन प्रकरण से कोई वास्ता ही नहीं है।अनेक मुस्लिम देशों ने फ़्रांस निर्मित सामानों का बहिष्कार करने का भी
निर्णय किया। इस विषय पर बहस करने हेतु दो मुख्य बिंदु हैं। सबसे पहला फ़्रांस के क़ानून के मुताबिक़ वहां
विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मिलने वाली खुली छूट। फ़्रांस सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पूरी
पक्षधर है तथा इसका बचाव करती है। वहां के लोगों को भी इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। वहां यदि कोई कार्टूनिस्ट
ईसाई समुदाय के आराध्य महापुरुषों पर भी कोई कार्टून या व्यंग्य चित्र बनाता है तो किसी को ऐसी आपत्ति नहीं
होती की बात हत्या,प्रदर्शन या गला रेतने तक आ जाए। इस संबंध में एक बात और भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि स्वयं
इस्लाम धर्म में भी मुसलमानों को यह निर्देश दिया गया है कि वे जिस देश में भी रहें उस देश के क़ानून का
पालन करना अनिवार्य है। पूरे इस्लामिक इतिहास में किसी भी पैग़ंबर,इमाम,ख़लीफ़ा आदि से जुड़ी कोई एक घटना
भी ऐसी नहीं मिलेगी जबकि इस तरह की बातों को लेकर किसी की गर्दन रेत दी गयी हो।
दुर्भाग्यवश अलक़ाएदा,आईएसआईएस व तालिबान तथा इनसे जुड़े व इनका अनुसरण करने वाले अनेक हिंसक व
आतंकी संगठन इस्लाम के नाम का ही इस्तेमाल कर अक्सर कोई न कोई ऐसी दिल दहलाने वाली घटना अंजाम
देते रहते हैं जिससे इस्लाम बदनाम होता है। इन्हीं हिंसक वारदातों ने उन अनेकानेक पूर्वाग्रही ग़ैर मुस्लिम लोगों
को तथा ऐसे शासकों को हमेशा इस्लाम को जेहादी,हिंसक तथा असहिष्णु बताने का पूरा मौक़ा दिया है। यदि
इस्लाम इतना ही असहिष्णु धर्म होता तो हज़रत मुहम्मद उस यहूदी बूढ़ी औरत की बीमारी का हाल चाल जानने के
लिए उसकी कुटिया में न जाते जो रोज़ उन्हीं पर कूड़ा करकट फेंका करती थी। इस्लाम में बदला लेने से कहीं
ज़्यादा महत्व मुआफ़ी को दिया गया है। परन्तु निश्चित रूप से यह इस्लाम का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि हज़रत
मुहम्मद के समय से ही इस्लाम में रूढ़िवादी,कट्टरपंथी,साम्राज्य्वादी,इस्लाम को सत्ता से जोड़ने वाली तथा
अंधविश्वासी सोच पनपने लगी थी। पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के स्वर्गवास के फ़ौरन बाद ही ऐसी ताक़तों ने सिर
उठाना शुरू कर दिया। जिसके नतीजे में कभी हज़रत मुहम्मद के दामाद हज़रत अली को मस्जिद में शहीद किया
गया,कभी उनकी बेटी फ़ातिमा पर ज़ुल्म ढाए गए। कभी पैग़ंबर-ए-रसूल के नवासे हज़रात इमाम हुसैन व उनके
परिवार को कर्बला में शहीद किया गया। ऐसा ज़ुल्म ढाने वाले सभी लोग न ईसाई थे न यहूदी न ही हिन्दू बल्कि
यह सभी स्वयं को मुसलमान कहने वाले अल्लाह को अकबर का नारा बुलंद करने वाले और हज़रत मुहम्मद की
उम्मत बताने वाले मुस्लमान ही तो थे ?
उपरोक्त घटनाएं क्या ईश निंदा की श्रेणी से कम या हल्की हैं ? जब मुसलमान शासक व तत्कालीन मुसलमान
सत्ताधारी ही पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के परिवार पर अत्याचार कर रहे थे उस समय यदि मुहम्मद के घराने वालों के
पक्ष में मुस्लिम समाज इसी तरह सड़कों पर उतरा होता तो यज़ीद जैसे शासकों के पसीने छूट जाते। परन्तु तब
वही मुसलमान तमाशाई बने हुए थे जो आज हज़रत मुहम्मद से इतनी मुहब्बत जता रहे हैं जिसके लिए न तो ख़ुद
रसूल ने कहा,न उम्मीद रखी न ही इस्लामी थ्योरी व फ़लसफ़ा अथवा इस्लामी दिशा निर्देश इस बात की इजाज़त
देते हैं। बेशक इस बात पर तो बहस की जा सकती है और करनी भी चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की
सीमाएं निर्धारित हों। इस बात पर भी सवाल हो सकता है कि धर्म,धार्मिक मान्यताओं या धार्मिक महापुरुषों को
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में रखा जाए या इसे उस परिधि से बहार रखा जाए ? इसपर भी बहस हो
सकती है कि लोगों की धार्मिक भावनाओं के आहत होने का पैमाना क्या हो और क्या न हो। बहस इसपर होनी
चाहिए कि क्या भावनाएं आहत होने पर हिंसक हो जाना यहाँ तक कि इतना हिंसक हो जाना की पूरा देश व
दुनिया आपके बर्ताव को देखते हुए आपके धर्म व धार्मिक शिक्षाओं पर ही सवाल उठाने लगे? परन्तु उत्तेजना में
आकर गला रेत डालना,शांतिप्रिय भीड़ को तेज़ रफ़्तार ट्रक से रौंद डालना,सामूहिक हत्याओं को अंजाम देना व इनके
भयानक वीडीओ शेयर करना,दूसरे धर्मों के धर्मस्थलों पर हमले करना या उनके आराध्य देवी देवताओं या मूर्तियों
को तोड़ना,असिहष्णुता का प्रदर्शन करना व ऐसी सोच को बढ़ावा देना आदि किसी भी क़ीमत पर न तो मान्य है न
समाज इसको स्वीकार कर सकता है। दरअसल इस्लाम के लिए न तो कार्टून घातक हैं न उसकी आलोचना करने
वाले व इसके पूर्वाग्रही विरोधी या दुश्मन। बल्कि इस्लाम को कल भी पूर्वाग्रही व कट्टरपंथी सोच वाली हिंसक
मानसिकता व प्रवृति रखने वालों से ख़तरा था और आज भी वही ख़तरा बरक़रार है।