-सनत कुमार जैन-
भारत में एक बार फिर सामान नागरिक संहिता को लेकर 1947 वाली स्थितियां पैदा की जा रही हैं। इससे देश को एक बार फिर बांटने की कोशिश हो रही है। राजनीतिक फायदे के लिए समान नागरिक संहिता बनाने की जो कोशिश हो रही है भारतीय जनता पार्टी को भले लगता हो, कि इसका चुनाव में फायदा होगा। लेकिन ऐसा होना किसी भी हालत में संभव नहीं है। उल्टे इससे नुकसान बड़े पैमाने पर भाजपा को होगा। समान नागरिक संहिता को लेकर सभी विपक्षी दल सरकार से ड्राफ्ट मांग रहे हैं। सरकार किस तरह का कानून बनाना चाहती है। उसे सरकार सार्वजनिक करे, भाजपा और सरकार इसको लेकर मौन है। भारत की आबादी लगभग 140 करोड़ है। 140 करोड़ लोग खंड-खंड में बंटे हुए हैं। धार्मिक आधार पर मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन समुदाय भारतीय नागरिक हैं। मौलिक अधिकारों में जो धार्मिक स्वतंत्रता दी गई है। धर्म की जो आस्था इन समुदायों में बनी हुई है। समान कानून बनाकर आस्थाओं को खत्म करना, किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है। यदि ऐसा होता, तो भारत के लोकतंत्र में जो मौलिक अधिकार नागरिकों को संवैधानिक रुप से दिए गए हैं। उनमें धर्म का कोई उल्लेख नहीं होता। समान कानून में राष्ट्र का भी एक धर्म हो सकता है। धार्मिक आस्थाओं और परंपराओं को यदि एक ही लाठी से हांका जाएगा तो कल कोई भी सरकार कानून बनाकर सभी धर्मों, सभी भाषाओं और सभी परंपराओं को खत्म कर सकती है। यह भय अब हर समुदाय में बन रहा है। भारत में धार्मिक आधार पर मुस्लिम, ईसाई बौद्व धार्मिक अल्पसंख्यक की बड़ी आबादी है। वर्तमान सरकार इनको निशाने पर ले रही है। जब कानून बनेगा, तो उसका असर बौद्ध, सिख और जैन समुदाय पर भी पड़ेगा। भारत में सबसे बड़ी संख्या में बौद्ध समुदाय के हिंदुओं की संख्या है। उसके बाद सिख और जैन धर्म मानने वालों की संख्या है। भारत में बौद्ध और मुसलमान धर्म मानने वालों की आबादी लगभग 80 करोड़ से ज्यादा की है। आदिवासियों की संख्या भी भारत में कम नहीं है। बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों में अधिकांश पिछड़े और दलित समुदाय की जनसंख्या सबसे ज्यादा है। आदिवासी समुदाय भी धार्मिक आधार पर अपने आपको हिंदू नहीं मानता है। वह बड़े देव की पूजा अपने तौर तरीके से करता है। आदिवासियों की भी अपनी धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताएं हैं। बौद्ध धर्म मानने वाले लोग हिंदुओं के उच्च वर्ग को मनुवादियों का प्रतिनिधि मानकर, पिछले 5 दशक से लगातार इसके विरोध में खड़े हो रहे हैं। बहुजन समाज पार्टी के कांशीराम ने इन्हें हिंदू समाज से अलग सोच दी है। आदिवासियों के जंगलों को जिस तरह से कानून बनाकर हड़पा जा रहा है। आदिवासियों को जंगल से बेदखल करने से नक्सलवादी घटनाएं हो रही हैं। उसके पीछे जल, जंगल और जमीन की लड़ाई पिछले कई दशकों से देखने को मिल रही है। पिछले 60 सालों में नागरिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों के बारे में सभी वर्ग सजग हुए हैं। सभी अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख गए हैं। वहीं समयानुसार जो सामाजिक परिवर्तन आने चाहिए। वह समाज में शनै:शनै: आ भी रहे हैं। यह सारे सामाजिक परिवर्तन कानून के जरिए लागू नहीं हुए हैं। आज भारत के सभी राज्यों में खान-पान, कपड़ों को पहनने, भाषायी ज्ञान सब कुछ बदल रहा है। इसके लिए कोई कानून नहीं बनाया गया था। मुस्लिम पर्सनल ला में निकाह, तलाक, विरासत, जायजाद में लड़कियों का हिस्सा बहुविवाह इत्यादि के प्रावधान हैं। ईसाई समुदाय में विवाह अधिनियम 1872 के अंतर्गत कानूनन मान्य है। भारत में हजारों समुदाय हैं। सबके अपने-अपने देवी देवता हैं। सबकी अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। उन्हीं मान्यताओं और आस्थाओं के आधार पर लोग अपनी धार्मिक और सामाजिक नैतिकता के साथ अपना जीवन जीते हैं। समान नागरिक संहिता में इन सभी वर्गों के ऊपर असर पड़ेगा। केवल मुसलमान और ईसाई के ऊपर या बहुविवाह इत्यादि के समले तक सीमित नहीं रहेगा। हिन्दुओं के लिए भी अलग कानून बना हुआ है। भाजपा और केंद्र सरकार ने समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर बरैया के छत्ते में हाथ डाल दिया है। इससे बच पाना सरकार के लिए बहुत मुश्किल होगा। वह भी ऐसे समय पर जब बेरोजगारी, महंगाई और आर्थिक संकट से लगभग लगभग 90 फ़ीसदी आबादी जूझ रही हो। केंद्र सरकार आज जो करना चाहती है। 1947 से संविधान बनने तक, हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने धार्मिक और भाषाई आधार को मौलिक अधिकारों में शामिल किया। ताकि भारत एकजुट रह सके। धार्मिक आधार पर यदि कोई रीति-रिवाज और धार्मिक आस्थायें थी। उन्हें धार्मिक आधार पर स्वीकार किया गया। भारत की धार्मिक एवं सामाजिक विविधता को एक माला के स्वरुप में पिरोने का जो काम हमारे राजनेताओं ने किया था। वह अपने आप में उस समय का सबसे दुरूह कार्य था। हजारों, लाखों वर्षों से भारत राजा रजवाड़ों का देश रहा है। नागरिकों ने स्वतंत्रता कभी राजतंत्र में देखी ही नहीं थी। अंग्रेजों के 90 साल की शासन व्यवस्था में हजारों राज्यों के राजा जब अंग्रेजों के अधीन आए, तब अंग्रेजों ने ही भारत में नियम कायदे कानून बनाकर एक शासन व्यवस्था शुरू की। सारे देश को एक सूत्र में पिरोने का काम अंग्रेजों ने किया। अंग्रेजों के समय पर भी समान नागरिक संहिता नहीं बनाई जा सकी। जबकि हम गुलाम थे। 1947 के बाद से भारत के नागरिक स्वतंत्र हैं। सभी नागरिकों को जनतंत्र में मौलिक अधिकार दिए गए हैं। सभी धर्म के लोगों को अपनी- अपनी आस्था के अनुसार धर्म को मानने की स्वतंत्रता दी गई है। न्याय के लिए न्यायपालिका है। धर्म धारण करने की वस्तु है। नैतिकता से व्यक्ति, परिवार, समाज और देश का उत्थान होता है। धर्म नैतिकता का सबसे बड़ा आधार है। धर्म चाहे कोई भी हो। धार्मिक आस्थायें हमारी नैतिकता को बरकरार रखती हैं। जो समाज नैतिक होता है, वह धर्म और कानून से स्व नियंत्रित होता है। कानून बनाकर और दंडित करके कभी भी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती है। यदि बन सकती होती, तो इतने सारे कानून हैं। उन कानूनों का पालन आसानी से होने लगता। अपराधों को रोकने के लिए, भारत सरकार ने बहुत सारे कानून पिछले वर्षों में बनाए हैं, बहुत कठोर कानून हैं। इसके बाद भी अपराध नियंत्रित ना होकर और बढ़ते ही जा रहे हैं। यह मान लेना कि समान नागरिक संहिता बनाकर हम राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समीकरणों को मजबूत कर लेंगे, कभी संभव नहीं होगा। आस्था, विश्वास और नैतिकता के सहारे ही व्यक्ति , परिवार, समाज का उत्थान संभव है। कानून की जगह हमें नैतिकता पर ध्यान देने की जरुरत है। जिस दिन हम नैतिकता के साथ निजी जीवन जीना शुरु कर देंगे। उसके बाद कानून में समान नागरिक संहिता बनाने की जरूरत नहीं होगी। ना तो किसी व्यक्ति के एक से विचार हो सकते हैं। न ही उसका एक धर्म हो सकता है। न ही किसी एक विषय पर उसकी आस्था हो सकती है। मान्यवर यहां यह भी ध्यान रखना होगा, कि पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव संप्रदाय के लोग आपस में एक दूसरे के साथ लड़ते रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव संप्रदाय को मानने वाले सारे लोग सनातन धर्म मानने वाले हिंदू हैं। लेकिन यह सभी हिन्दू अनादि काल से आज तक न तो कभी एक हुए हैं, न कभी एक होंगे। सबकी अपनी अपनी मान्यताएं हैं। भारत महावीर का देश है। उन्होंने अनेकांतवाद का सिद्वांत दिया तभी देश में हिंसा रुकी। किसी भी दो व्यक्ति के विचार एक नहीं हो सकते है। परिवार में माता-पिता और बच्चों के विचार कभी एक नहीं हुए। जैसे ही हम अपने विचारों को मानने के लिए विवश करते हैं। वहीं से हिंसा शुरु हो जाती है। कानून बनाकर हम पारिवारिक हिंसा को नहीं रोक पा रहे हैं। तब करोडों लोगों की हजारों आस्थाओं और परम्पराओं को कानून बनाकर कैसे रोक सकते हैं। इससे सामूहिक हिंसा बढ़ना तय है। यही हिंसा विभाजन का कारण बनती है। जब हम परिवार को एकजुट रख पायेंगे। इस विषय पर केंद्र सरकार और भाजपा को गंभीरता से विचार करना चाहिए। नहीं किया तो भविष्य में देश और समाज को नुकसान होगा। भाजपा का अस्तित्व भी खतरे में पड़ सकता है।