शिशिर गुप्ता
माननीय उच्च न्यायालय शिमला का यह फैसला हिमाचल की कार्यसंस्कृति के कई आयाम जोड़ेगा और इसके
प्रकाश में कई भ्रांतियां तथा खुशफहमियां टूटेंगी। अदालत ने कर्मचारी हेकड़ी को कड़ा जवाब देते हुए याद दिलाया,
तुम चाहे कितने ऊंचे बनो-कानून तुमसे ऊपर है। कानून को परिभाषित करती इन पंक्तियों को अगर समाज और
राष्ट्र याद कर ले, तो हमारा रवैया ही नहीं बदलेगा, बल्कि स्वानुशासन व नैतिकता के पैमाने भी बदलेंगे। माननीय
अदालत के सामने एक स्थानांतरण को टालने की वजह और नजरअंदाज करने की जिद दिखाई दे रही थी। मामला
एक असिस्टेंट कमिश्नर राजस्व एवं कराधान के स्थानांतरण व इस अवधि में बढ़ते अवकाश का था, जहां प्रार्थी की
नीयत का फैसला भी अपेक्षित था। प्रार्थी के तर्क अस्वीकार हुए और ऐसी प्रवृत्ति भी जो अकसर अवांछित
स्थानांतरण की अवज्ञा में बहाने गढ़ लेती है।
माननीय अदालत का पैगाम स्पष्ट है और इसके संदर्भ में कर्मचारी नियम, निर्देश व कानून को संरक्षण मिलता है।
खास बात यह भी कि फैसले के आलोक में जो निर्देश मिल रहे हैं, उन्हें सरकार और समस्त कर्मचारियों को भी
पढ़ लेना चाहिए ताकि राज्य की कार्यसंस्कृति, कर्मचारी अनुशासन तथा सरकार के संकल्प बरकरार रहें। हम इसे
मात्र एक केस नहीं समझ सकते, बल्कि यह अतीत से जारी ऐसी परंपराओं पर भी चोट है, जिनके तहत आज तक
स्थानांतरण नीति या तो अप्रासंगिक हो चुकी है या इसे कोई भी ठोकर मार कर निकलता रहा है। विडंबना यह भी
है कि वर्षों की घोषणाएं व संकल्पों के बावजूद आज तक कोई भी सरकार एक पारदर्शी स्थानांतरण नीति नहीं बना
सकी, बल्कि कई बार तो बिना पद्धति के हांके गए ट्रांसफर आर्डर ही वापस लेने पड़ते हैं।
खासतौर पर प्रशासनिक या वरिष्ठ अधिकारियों के स्थानांतरण आदेश बार-बार बदल दिए जाते हैं या कई बार एक
ही अधिकारी या कर्मचारी बार-बार ट्रासंफर होने का शिकार बन जाता है। ट्रांसफर के इर्द-गिर्द घूम रही या बिगड़
रही सरकारी कार्यसंस्कृति का हर्जाना विभागीय क्षमता को चुकाना पड़ता है, जबकि इसका मुख्य केंद्र बन कर राज्य
सचिवालय का प्रमुख दायित्व ही स्थानांतरण की अहमियत बन जाता है। स्थानांतरणों की जरूरत इसके एहसास या
वास्तविकता के आधार को भी प्रताडि़त करती है, जबकि सत्ता बदलने के उपहार में यह पार्टियों का कॉडर बनने से
भी गुरेज नहीं करती। शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस तथा अधोसंरचना निर्माण से जुड़े विभागों की स्थानांतरण परिपाटी
को भी कसूरवार ठहराया जा सकता है या सक्षम व ईमानदार अधिकारियों के लिए कई बार यह जल्लाद की तरह
पेश आती है। पहले स्थानांतरण से जुड़े किस्से होते थे अब स्थानांतरण ही एक ऐसा किस्सा है, जिसका जिक्र केवल
सियासी विशेषाधिकार हो गया। कोई बडे़ से बड़ा अधिकारी भी अपने विभाग की कार्यसंस्कृति सुधारने की नीयत से
किसी अदने कर्मचारी का तबादला नहीं कर सकता और न ही काम के लिहाज से टीम चुन सकता है।
दूसरी ओर साल भर स्थानांतरणों के फरमान एक तरह से अनिश्चय की स्थिति ही पैदा करते हैं। प्रत्येक विभाग
अपनी लीडरशिप के मुताबिक लक्ष्य तय करके काम करता है और यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि योजना
निर्धारण से कार्यान्वयन के क्रम तक एक तालमेल व समन्वय कायम करना पड़ता है। कई बार देखा गया है कि
कड़क अधिकारी को अपने फैसलों की कीमत स्थानांतरण से चुकानी पड़ती है। धीरे-धीरे प्रदेश में राजनीतिक तौर पर
चाबुक बड़ी होती जा रही है या हर तरह के फैसलों और कानून के सामने माफिया तंत्र पैदा हो रहा है। ट्रैफिक
नियंत्रण से अवैध खनन तक पुलिस महकमों से जनापेक्षाएं ही सुशासन का परिचय बनती हैं, लेकिन फर्ज की
परीक्षा में खरे उतरते अधिकारियों को कब बैरक मिल जाए, कहा नहीं जा सकता। वीआईपी ड्यूटी में असफल माने
गए टॉप पुलिस आफिसरों की ट्रांसफर अगर एक रिवायत हो सकती है, तो हर स्थानांतरण की पायदान पर न्याय
का मूल्यांकन भी तो हो। कहना न होगा कि हिमाचल में जब तक स्थानांतरण के नियम व नीति को स्पष्ट तथा
सक्षम नहीं बनाया जाता, हर आर्डर को खुर्दबुर्द करने का तंत्र भी विकसित होता रहेगा।