विनय गुप्ता
गत दो लोकसभा चुनाव में शर्मनाक पराजय के बाद अभी तक के राजनीतिक इतिहास में अपने सबसे बड़े दुर्दिनों का सामना कर रही कांग्रेस पार्टी समूहों में विभाजित होकर अवनति के मार्ग पर बेलगाम बढ़ती जा रही है। यह समस्याएं उसकी खुद की देन हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में कांग्रेस की राजनीति में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। इसके पीछे बहुत सारे कारण हो सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण यह भी माना जा रहा है कि आज की कांग्रेस में स्पष्ट दिशा और स्पष्ट नीति का अभाव-सा पैदा हो गया है। उसके जिम्मेदार नेताओं को यह भी नहीं पता कि कौन-से मुद्दे पर राजनीति की जानी चाहिए और किस पर नहीं। इसी कारण कांग्रेस का जो स्वरूप दिखाई दे रहा है, वह अविश्वसनीयता के घेरे में समाता जा रहा है। कांग्रेस के प्रति इसी अविश्वास के कारण उसके युवा नेताओं को अपना राजनीतिक भविष्य अंधकारमय लगने लगा है। इसलिए कांग्रेस के युवा नेता अब कांग्रेस से ही किनारा करने की भूमिका में आते जा रहे हैं।
कांग्रेस के अंदर जिस प्रकार की दुरूहता की स्थिति बनी है, उसके पीछे एक बड़ा कारण यह माना जा सकता है कि गत तीन दशक से कांग्रेस लगातार अवनति के मार्ग पर अग्रसित होती दिखाई दे रही है, ऐसी स्थिति में भविष्य में शिखर की राजनीति करने की महत्वाकांक्षा रखने वाले नेता सशंकित अपने सामने एक बड़ा प्रश्नचिह्न अंकित होते हुए देख रहे हैं। इसी कारण कांग्रेस का युवा वर्ग अपनी ही पार्टी से किनारा करने की मनःस्थिति की जाते हुए दिख रहे हैं। पहले मध्य प्रदेश में लंबे समय तक उपेक्षा का दंश भोगने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस को गहरा आघात दिया था, उसके कारण कांग्रेस को अपनी राज्य सत्ता से हाथ धोना पड़ा। अब लगभग वैसी ही स्थिति राजस्थान में प्रादुर्भित होती दिखाई दे रही है। राजस्थान की रेतीली राह पर अशोक गहलोत की गति फिसलन की अवस्था में है।यह स्थिति जहां एक ओर कांग्रेस के वरिष्ठ नेतृत्व के प्रति अनास्था की धारणा को जन्म देने वाला कहा जा सकता है, वहीं यह भी प्रदर्शित कर रहा है कि राहुल गांधी युवाओं को आकर्षित करने में असफल साबित हुए हैं। इसमें उनकी अनियंत्रित बयानबाजी भी कारण है। हम जानते हैं कि कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक बार नहीं, बल्कि कई बार गलतबयानी की है, जिसमें वे माफी भी मांग चुके हैं। यह बात सही है कि झूठ के सहारे आम जनता को भ्रमित किया जा सकता है, लेकिन जब सत्य सामने आता है, तब उसकी कलई खुल जाती है। सबसे बड़ी विसंगति तो तब बनती है, जब अपने नेता के बयान को कांग्रेस के अन्य नेता समर्थन करने वाले अंदाज में निरर्थक रूप से पुष्ट करने का असफल प्रयास करते हैं। ऐसे प्रयासों से भले ही यह भ्रम पाल ले कि उसने केन्द्र सरकार को घेर लिया, लेकिन वास्तविकता यही है कि इसके भंवर में वह स्वयं ही फंसी नजर आती है।
पिछले दो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जो राजनीतिक स्थिति बनी है, वह कांग्रेस को सबक देने के लिए काफी था, लेकिन इसके बाद भी अपनी शर्मनाक पराजय पर न तो कोई चिंतन ही किया है, और न ही उसने इस बात की जरूरत महसूस की। हां राहुल गांधी ने यह कहकर पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ दिया था कि अब पार्टी दूसरे किसी ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष बनाए जो गांधी परिवार से बाहर का हो, लेकिन यह बात ही हवाहवाई ही प्रमाणित हुई। यह ऐसे झूठ हैं जो कांग्रेस के लिए विनाशकारी साबित हो रहे हैं। राजस्थान कांग्रेस में चल रहे घमासान के कारण प्रदेश किस स्थिति में पहुंचेगी, यह शीघ्र ही पता चल जाएगा, लेकिन यह तो मानना ही होगा कि देश में कांग्रेस पार्टी के अंदर कहीं न कहीं विद्रोह करने की भावना परवान चढ़ती जा रही है। इसके लिए कांग्रेस अपनी कमियों को छिपाने के लिए भले ही भाजपा पर आरोप लगाने की राजनीति करे, लेकिन सत्य यह है कि इसके लिए कांग्रेस की कुछ नीतियां और वर्तमान में नेतृत्व की खामियां भी बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। अभी फिर से सुनाई देने लगा है कि राहुल गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने की मुहिम चल रही है। जो सीधे तौर पर जमीनी नेताओं को किनारे करने की राजनीतिक चाल है। मध्य प्रदेश के बाद अब राजस्थान में कांग्रेस सरकार के विदाई की तैयारी होने की स्थितियां निर्मित होने लगी हैं। राजस्थान में जमीनी राजनीति करने वाले सचिन पायलट बगावती स्वर मुखरित करने की मुद्रा में आ चुके हैं।
कांग्रेस की राजनीति का प्रिय शगल रहा है कि जिस नेता के हाथों में शक्ति आ जाती है, वह अपना एक नया गुट बनाने की कवायद करने में लग जाता है, साथ ही अपने लिए खतरा बन सकने वाले नेताओं को किनारे करने की भी राजनीति प्रारंभ हो जाती है। उल्लेखनीय है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट के नाम पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए भी उठ चुके हैं। यह स्वाभाविक रूप से यही संकेत करते हैं कि इन दोनों नेताओं में काबिलियत है। जिसे कांग्रेस नेतृत्व पहचानने में असमर्थ साबित हुआ है। हमें यह भी स्मरण होगा कि कांग्रेस आलाकमान ने गत विधानसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रमुख चेहरे के रूप में प्रस्तुत किया था, लेकिन बाद की राजनीति में उनको किनारे कर दिया और कमलनाथ सत्ता के शिखर पर पदासीन हो गए। इसी प्रकार की स्थिति राजस्थान में अशोक गहलोत के साथ बनी, जिसमें सचिन पायलट को किनारे किया गया। लगभग डेढ़ साल तक सचिन पायलट ने अपमान का घूंट पीकर राजनीति की। और अब परिणाम सामने हैं।बूढ़ी सोच ज्यादा दिनों तक नहीं उठाई जा सकती है, पहले मध्य प्रदेश में और अब राजस्थान में बगावत की जो सुर मुखर होकर सामने आए हैं उससे यह तो साफ हो गया है कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व किसी भी तरह का बदलाव नहीं चाहता है। बहरहाल राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार संकट में है और अगर वह संकट से उबर भी जाती है तो आने वाले दिनों में उसके भविष्य पर खतरा मंडराता ही रहेगा। राजस्थान में सचिन पायलट मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे, लेकिन उन्हें दरकिनार कर राज्य की कमान गांधी परिवार के पुराने दरबारी अशोक गहलोत को सौंप दी। देश की राजनीति में भाजपा के उभार और विशेषकर 2014 के बाद की राजनीतिक परिस्थितियों पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अपनी ही गलतियों के कारण कांग्रेस सत्ता से हाथ धोना पड़ा। यही नहीं वह निरंतर कमजोर होती गई और जनता के बीच अपने विश्वास को भी बचाकर नहीं रख सकी।मध्य प्रदेश और राजस्थान की घटनाक्रमों से यह संदेश तो गया है कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र और अनुशासन पूरी तरह खत्म हो गया है। सवाल यह है कि मतदाताओं ने क्या इसी दिन को देखने के लिए राजस्थान में कांग्रेस को चुना था। ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ जो हुआ, वही राजस्थान में सचिन पायलट के साथ हुआ। संभावना यह भी है कि आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ में भी इसी इतिहास को न दोहरा दिया जाए क्योंकि वहां भी भूपेश बघेल और सिंह देव के बीच तनातनी की खबरें सामने आ रही हैं। राज्यों में कांग्रेस के भीतर क्या हो रहा है, शीर्ष नेतृत्व इससे बेखबर है या फिर आंख, मुंह और कान बंद करके बैठा हुआ है। राहुल गांधी जिनसे पार्टी के युवाओं को उम्मीदें हैं, राजस्थान में हो रही उठापटक के बीच अब तक सामने नहीं आए हैं। उनकी पूरी ऊर्जा इस पर खर्च हो रही है कि मोदी सरकार पर ट्वीट के जरिए कैसे निशाना साधा जाए। कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की नींद भी तब टूटती है जब पानी सिर से ऊपर गुजर जाता है। कहा जा रहा है सचिन पायलट ने अपने कदम बढ़ाने से पहले अपनी बात आलाकमान तक पहुंचाने की कोशिश की लेकिन उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया गया। अंतत: उन्हें बगावत जैसा कदम उठाना पड़ा।