अर्पित गुप्ता
राजनीति में महत्वाकाक्षाएं अहम होती हैं। वहां दलीय प्रतिबद्धता, राजनैतिक सुचिता और नैतिकता का कोई स्थान
नहीं होता है। राजनीति की यह परिभाषा हैं कि समय के साथ जो पाला बदल कर अपनी गोट फीट कर ले वह बड़ा
खिलाड़ी है। मध्यप्रदेश के बाद राजस्थान में जो पटकथा लिखी गई वह इसी नीति की अहम कड़ी है। क्योंकि
राजनीति की नैतिकता गिर चुकी है। जनसेवा की बातें सिर्फ़ मंचीय हो चली हैं। असली सरोकार तो 'पॉवर
पॉलटिक्स' से रह गया है। राजस्थान में गहलोत सरकार के खिलाफ़ तख्ता पलट की राजनीति कम से कम यहीं
संदेश देती है। देश और दुनिया कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहीं है।
भारत में मरीजों की संख्या नौ लाख से पार हो चुकी हैं। हर रोज तकरीब 2500 से अधिक लोगों की मौत हो रहीं
है। इस दौरान जहां सरकारों के सामने लोगों की जान बचाने कि चुनौती है, वहीं अंधी-बहरी और बेशर्म राजनीति
'सरकार बनाने और गिराने' का खेल खेल रहीं है। राजनीति और राजनेताओं को अपने लोकतांत्रिक दायित्वों के प्रति
कोई भी जवाबदेही और नैतिकता नहीँ दिखती है। ऐसी राजनीति और सत्ता जन अधिकारों का गला घोंटती दिखती
हैं। यह जनादेश का अपमान है। क्योंकि राजस्थान की जनता ने भाजपा के खिलाफ़ कांग्रेस को जनादेश दिया है।
अगर इस जनादेश का सम्मान कांग्रेस और गहलोत सरकार नहीँ कर पाती है तो यह जनता के साथ विश्वासघात
है। इस कुचक्र में शामिल सचिन और कांग्रेस को जनता कभी माफ़ नहीँ करेगी।
यह वक्त सरकार गिराने और सरकार बनाने का नहीँ है। बल्कि सत्ता, सरकारें, प्रतिपक्ष और राजनेताओं को अपने
कर्तव्य और सामाजिक दायित्व को समझना होगा। लेकिन मध्यप्रदेश के बाद राजस्थान में भी कोरोना काल में ही
यह साजिश क्यों रची जा रहीं है। अगर ऐसी बातें थीं भी तो सचिन पायलट को अच्छे वक्त का इंतजार करना
चाहिए था। राजस्थान की जनता ने जिस विश्वास से उन्हें अपना जनमत दिया था उसका सम्मान करना चाहिए
था। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से लाख मतभेद होते हुए भी इसे मनभेद के धरातल पर नहीँ लाना चाहिए था।
क्योंकि यह वक्त आपदा काल है। अर्थव्यवस्था गर्त में चली गई है। नौकरियाँ ख़त्म हो गई हैं। 'लॉकडाउन' की
वजह से व्यापर-उद्योग सब चौपट हो चला है। कोरोना हर दिन देश के सामने नई चुनौती लेकर खड़ा है। राजस्थान
भी अतिसंवेदनशील कतार में है, फ़िर इस तरह कि राजनीति क्यों? सचिन पायलट को यह लड़ाई संगठन स्तर पर
हल करना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीँ हुआ। जिसका लाभ अब सीधे भाजपा उठाना चाहती है। घर की इस लड़ाई
के लिए ख़ुद कांग्रेस जिम्मेदार है, वह भी दस जनपथ।
मध्यप्रदेश के बाद राजस्थान की घटना ने यह साबित कर दिया है कि कांग्रेस मतलब 'दस जनपथ' कि कमान
संगठन पर कमजोर पड़ गई है। कांग्रेस अब मुठ्ठी में कैद भक्तों के साथ सिमट गई है। गाँधी परिवार को संगठन
के कमजोर होने से कोई मतलब नहीँ है, वह केवल अपने वफादारों के साथ अंतिम सांस लेने को मज़बूर है। जबकि
संगठन में युवा नेतृत्व बिखर रहा है। सिंधिया के बाद अब सचिन पार्टी के लिए मुसीबत साबित हुए हैं। कांग्रेस के
शीर्ष नेतृत्व के लिए यह चुनौती का वक्त है। भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत के मिशन में लगी है। वह कांग्रेस के
खिलाफ़ कोई भी ऐसा अवसर नहीँ छोड़ना चाहती है जिसका उसे भविष्य में खमियाजा भुगतना पड़े।
मध्यप्रदेश और राजस्थान में जो हुआ उसमें भाजपा की भूमिका से इनकार नहीँ किया जा सकता है। अशोक
गहलोत का साफ आरोप है कि भाजपा 'हार्स ट्रेडिंग' कर रहीं थीं और उसमें कांग्रेस के लोग भी शामिल थे। उन्होंने
यह भी दावा किया है कि उसका पूरा प्रमाण है। उन्होंने कहा कि यह साजिश राज्यसभा चुनाव के दौरान यह
साजिश रची गई थीं। फ़िलहाल यह जाँच का विषय है। लेकिन राजस्थान में भाजपा कि चाल फंस गई है, क्योंकि
कांग्रेस यहां मध्यप्रदेश जैसी कमजोर नहीँ दिखती है। यहीं कारण हैं कि सचिन को लेकर भाजपा बेहद फूँक- फूँक
कर क़दम रख रहीं है। मंत्रीमंडल से सचिन पायलट और उनके करीबियों की बर्खास्तगी के बाद भी भाजपा 'सेफ
मोड' पर है। वह विश्वासमत की बात नहीँ उठाना चाहती है। क्योंकि भाजपा के पास अभी उचित गिनती नहीँ
दिखती है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राज्यपाल कलराज मिश्र से मिलकर सरकार के पास पर्याप्त संख्याबल होने
का दावा भी कर चुके हैं।
सचिन पायलट कह चुके हैं कि वह भाजपा में नहीँ जाएंगे, फ़िर उनका नया ठिकाना क्या होगा? हालांकि कांग्रेस में
सचिन प्रकरण को लेकर युवा कार्यकर्ताओं में काफी रोष है। युवा शीर्ष नेतृत्व के इस फैसले से नराज है। इस मामले
में कांग्रेस दो फाड़ दिखती है। प्रियंका गाँधी को भी इस जंग में कूदना पड़ा है। हालात इस तरह के बन रहें हैं कि
सचिन पायलट ख़ुद अपनी जाल में फंसते दिखते हैं। अब उनकी घर वापसी होगी या फ़िर नई पार्टी बनाएंगे।
क्योंकि मुख्यमंत्री गहलोत 18 विधायकों की सूची राज्य विधानसभा सचिवालय को सौंप चुके हैं। मुख्यमंत्री चाहते हैं
कि दलबदल कानून के दायरे में बगावती विधायकों के खिलाफ़ कार्रवाई हो। विधानसभा अध्यक्ष अगर इस पर
फैसला लेते हैं तो गहलोत सरकार की मुश्किल कम हो जाएगी। क्योंकि विधायकों के अयोग्य ठहराए जाने के बाद
विधानसभा में बहुमत सिद्ध करना गहलोत के लिए आसान हो जाएगा।
कांग्रेस के कई नेता चाहते हैं कि पायलट की वापसी हो। सचिन पायलट भाजपा का दामन थाम कर बहुत कुछ
हासिल नहीँ कर सकते हैं। उनकी जो हैसियत कांग्रेस में है भाजपा में नहीँ रहेगी। वह कुछ पल के लिए भाजपा के
समर्थन से मुख्यमंत्री बन भी जाय तो यह रेस अधिक लंबी होने वाली नहीँ है। क्योंकि वसुंधरा राजे अपनी नाक पर
मक्खी क्यों बैठने देंगी? कांग्रेस में अब निर्णायक भूमिका वाले नेतृत्व की आवश्यकता है, जिसमें इंदिरा गांधी जैसी
निर्णय क्षमता हो। जिनके सामने विरोधी कभी उभर नहीं पाए। उनकी राजनैतिक कुशलता और मुखर नेतृत्व पार्टी
के आतंरिक विरोधियों और गुटबाजों पर हमेंशा भारी पड़ी। लेकिन सोनिया गांधी और बेटे राहुल में यह कार्यशैली
नहीं दिखती है।
गाँधी परिवार और राहुल गाँधी के बेहद करीबी एक-एक कर बिखर रहें हैं, लेकिन उन्हें साथ रखने की कोई ठोस
नीति नहीँ दिखती है। कांग्रेस में आतंरिक लोकतंत्र खत्म हो चला है। संगठन कि चिंता के बजाय पारिवारिक
अस्तित्व कि अहमियत अधिक दी जा रहीं है। क्या 'दस जनपथ' यानी सोनिया गांधी जानबूझ कर कांग्रेस की
कमान किसी युवा नेतृत्व के हाथ नहीं सौंपना चाहती हैं।
क्योंकि ऐसा करने से जहां पार्टी पर गांधी परिवार की कमान कमजोर होगी। वहीं गाँधी परिवार का वर्चस्व पार्टी में
ख़त्म हो जाएगा। निश्चित रुप से कांग्रेस और शीर्ष नेतृत्व को इस मामले में दखल देना चाहिए। क्योंकि संगठन
सबसे महत्वपूर्ण है। ज्योंतिरादित्य के बाद अब सचिन उसी राह पर हैं। यह कांग्रेस के लिए चिंता और चिंतन का
विषय है। लेकिन इस सियासी सहमात के खेल में अगर गहलोत सरकार गिरती है तो सच्चे अर्थों में यह जन
विश्वास के साथ आघात होगा। यहां जीत गहलोत कि हो या सचिन कि, भाजपा कि जय हो या कांग्रेस कि
पराजय, लेकिन पराजित तो जनादेश और लोकतंत्र होगा।