2019 के लोकसभा नतीजे कांग्रेस के लिए बहुत बुरी खबर लेकर आए। और जैसा कि अपेक्षित था, देश
की सबसे पुरानी पार्टी में भूचाल आ गया। एक बार फिर हार की समीक्षा के लिए कमेटी का गठन हो
चुका है। पार्टी में इस्तीफों की बाढ़ आ गई है। खबर है कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस्तीफा देने
पर अड़े हैं। लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता से लेकर आम कार्यकर्ता तक राहुल गांधी और उनके नेतृत्व में
अपना विश्वास जता रहे हैं। यह अच्छी बात है कि ऐसे कठिन दौर में भी किसी संगठन का अपने नेतृत्व
पर भरोसा कायम रहे। लेकिन ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि लगातार मिलने वाली असफलताओं
के बावजूद उस संगठन के बड़े नेता से लेकर आम कार्यकर्ता तक अपने नेता के साथ मजबूती से खड़े
हों। सभी लोग राहुल को यह समझाने में लगे हैं कि उन्होंने चुनावों में बहुत मेहनत की और चुनावों में
पार्टी की हार क्यों हुई उसकी समीक्षा की जाएगी वे मन छोटा ना करें पार्टी हर हाल में उनके साथ है।
इससे पहले भी 2014 के लोकसभा चुनाव हों या फिर उसके बाद होने वाले विभिन्न राज्यों के
विधानसभा चुनाव भाजपा लगातार अपने कांग्रेस मुक्त भारत के सपने को चरितार्थ करने में लगी थी
और राज्य दर राज्य सत्ता कांग्रेस के हाथों से धीरे धीरे फिसलती जा रही थी। महाराष्ट्र हरियाणा
आंध्रप्रदेश हिमाचल प्रदेश असम जैसे राज्य जहाँ कहीं वो सत्ता में थी तो नकार दी गई तो गोआ
उत्तरप्रदेश बिहार गुजरात जैसे राज्य जहाँ सत्ता में नहीं थी तो भी नकार दी गई। और जिन तीन राज्यों
मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ राजिस्थान में अभी मात्र चार महीने पहले सत्ता में आई थी वहां भी वो इन चुनावों
में जनता का भरोसा नहीं जीत पाई। इन परिस्थितियों में राहुल का इस्तीफा देने की पेशकश करने और
कांग्रेस का उनमें एक बार फिर विश्वास जताना ना सिर्फ अत्यंत निराशाजनक है बल्कि कांग्रेस पार्टी के
भविष्य के लिए भी घातक है। दरअसल आपसी गुटबाजी के चलते गाँधी परिवार के ही किसी सदस्य के
हाथों कांग्रेस की कमान सौंपना कांग्रेस की आज की मजबूरी है। लेकिन यह भी सच है कि सोनिया गांधी
और काफी हद तक कांग्रेस के बड़े नेताओं की आपसी गुटबाजी का कांग्रेस की इस मजबूरी को बनाने में
काफी अहम योगदान रहा है। इन सभी के तात्कालिक स्वार्थों की राजनीति देश की सबसे बड़ी और सबसे
पुरानी पार्टी की यह दशा कर देगी इतनी दूरकालिक दृष्टि इनमें से किसी ने नहीं रखी। इसलिए आज
एक ऐसे शख्स के हाथों में पार्टी की कमान देना जिसके पास गाँधी परिवार का सदस्य होने के अलावा
और कोई योग्यता ना हो पार्टी की मजबूरी बन गई है। और खास बात यह रही कि राहुल गांधी ने भी
अब तक के अपने कार्यकाल को एक मजबूरी की भाँती इस तरह निभाया कि इस पूरे कालखंड विशेष तौर
पर चुनावों के समय के उनके आचरण और उसके बाद चुनाव परिणामों ने उनकी योग्यता पर ही
प्रश्नचिन्ह लगा दिए।
लेकिन अब राहुल नाराज़ बताए जा रहे हैं। पार्टी के कुछ नेताओं को छोड़कर वो किसी से नहीं मिल रहे
हैं क्योंकि पार्टी के कुछ नेताओं के पुत्र मोह को पार्टी की हार की वजह मान रहे हैं। उनका कहना है कि
इन नेताओं ने अपने स्वार्थ को पार्टी हित से ऊपर रखा। वैसे इस विषय में उनका अपनी मां सोनिया
गांधी के बारे में क्या विचार हैं यह जानना रोचक होगा। खैर, हम बात कर रहे थे कांग्रेस की हार की।
तो अगर सचमुच कांग्रेस अपनी वर्तमान स्थिति से दुखी है और इन परिस्थितियों से उबारना चाहती है
तो सबसे पहले उसे अपनी सोच और अपनी अप्रोच दोनों बदलनी होगी। आदमी जो चीज़ हासिल करना
चाहता है उसे उसपर फोकस करना चाहिए। सबसे बड़ी गलती जो कांग्रेस बार बार करती आ रही है कि
वो जीतना चाह रहे हैं लेकिन अपने प्रतिद्वंद्वी की जीत के कारणों के बजाए अपनी हार की समीक्षा
करते हैं। क्यों? कांग्रेस तो यह समीक्षा 1991 से लगभग लगातार ही करती आ रही है। राजीव गांधी की
हत्या के बाद भी कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया था। चाहे 1991 की नरसिम्हा राव की सरकार
हो या 2004 और 2009 की यूपीए की सरकार हो, कांग्रेस अपने दम पर पूर्ण बहुमत 1984 के बाद कभी
भी हासिल नहीं कर पाई। इस बीच वो कई बार हारी। 2014 तो कांग्रेस के इतिहास की सबसे बुरी हार
थी और 2019 सबके सामने है। जाहिर है पार्टी ने हर बार हार के कारणों की समीक्षा की होगी। सोचने
वाली बात है कि इतनी समीक्षाओं के बाद भी पार्टी का प्रदर्शन क्यों नहीं सुधर रहा?
अगर सच में कांग्रेस अपनी स्थिति सुधारना चाहती है तो,
1, सर्वप्रथम उसे स्वयं को चाटुकारों से मुक्त करना होगा।
2, यह बात सही है कि राहुल पर वंशवाद के आरोप लगते हैं और सुनने में आ रहा है कि अब वो गांधी
परिवार से बाहर का कोई अध्यक्ष बनाना चाहते हैं लेकिन यह भी सच है कि इस काम के लिए यह
उपयुक्त समय नहीं है।
3, राहुल के लिए यह समय है खुद को सिद्ध करने का ना कि परिस्थियों से भागने का। जिस पार्टी का
अध्यक्ष उन्हें परिवारवाद के कारण बनाया गया उसके लिए अब वो अधिकारबोध नहीं कर्तव्यबोध से एक
नई शुरुआत करें। जमीनी संगठनात्मक ठोस बदलाव करके उसमे से भ्रष्टाचार में लिप्त अहंकार में डूबे
और वीआईपी पञ्च सितारा संस्कृति में डूबे पुराने चेहरों से कांग्रेस को मुक्त करें और भविष्य के लिए
ऐसे नए चेहरे तैयार करें जो भविष्य में पार्टी की बागडोर संभलने के सक्षम हों और यह सुनिश्चित करें
कि आने वाले समय में कांग्रेस परिवारवाद की दीमक से मुक्त हो सके
4, जीतना चाहते हैं तो जीत के कारणों की समीक्षा करें हार की नहीं।
5, अपनी जीत की समीक्षा करें कि जब कांग्रेस जीतती थी तो क्यों जीतती थी क्योंकि कांग्रेस को अपनी
आज की हार के कारण अपनी पिछली विजय के कारणों में ही मिलेंगे।
दरअसल 1952 में जब आज़ाद भारत का पहला लोकसभा चुनाव हुआ था तब से लेकर 1971 तक के
चुनावों में कांग्रेस लगभग जीती हुई बाज़ी ही खेलती थी। देखा जाए तो ये चुनाव कांग्रेस के लिए लगभग
एकतरफा चुनाव होते थे। क्योंकि देश की आजादी के लिए एकता जरूरी थी इसलिए अपनी अलग अलग
विचारधाराओं के बावजूद देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले लगभग सभी संघठनों ने राष्ट्र हित को
ध्यान में रखते हुए कांग्रेस में विलय करके अपनी पहचान तक से समझौता कर लिया था। इसलिए
1947 में जब कांग्रेस के नेतृत्व में देश आजाद हुआ और महात्मा गांधी की इच्छानुसार जवाहरलाल नेहरु
देश के पहले प्रधानमंत्री बने तो देश में यह संदेश गया कि कांग्रेस ने ही देश को आज़ाद कराया है। और
जनमानस के इसी मनोविज्ञान का फायदा कांग्रेस को 1971 तक मिला। 1952 के पहले लोकसभा चुनावों
से लेकर 1971 तक कांग्रेस के सामने विपक्ष भी अनेक छोटे छोटे दलों में बंटा लगभग ना के ही बराबर
था। लेकिन समय के साथ विपक्ष मजबूत होता जा रहा था और शास्त्री जी के बाद वापस गांधी नेहरु
परिवार की शरण में जाने से कांग्रेस कमजोर। 1975 में कांग्रेस द्वारा देश पर थोपा गया आपातकाल
कांग्रेस की सत्ता पर कमजोर होती जा रही उसकी पकड़ का सबूत था। और 1977 में बुरी तरह हारने
वाली कांग्रेस जब 1980 में फिर एक बार जीती तो उसमें कांग्रेस की योग्यता से ज्यादा विपक्षी दलों का
योगदान था। और 1985 में कांग्रेस की जीत में इंदिरा गांधी की हत्या का। लेकिन 1985 में राजीव गांधी
के नेतृत्व में 400 से अधिक सीटें जीतने वाली कांग्रेस उसके बाद फिर कभी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर
पाई यहां तक कि राजीव गांधी की हत्या के बाद भी नहीं। यानी जब तक खेल एकतरफा था कांग्रेस
जीतती रही लेकिन जब जब सामने विपक्ष मजबूत और एक होकर आया वो हारी है।
इसलिए आज अगर राहुल कांग्रेस को मजबूत करना चाहते है तो सबसे पहले उन्हें खुद को मजबूत करना
होगा क्योंकि वो इस बात को समझ लें कि भले ही वो मुहं में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हों लेकिन
उनके सामने चुनौतियाँ नेहरू से अधिक हैं। क्योंकि तब कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वी ना तो सक्षम थे और ना
ही उनमें एकता थी लेकिन आज राहुल का जिनसे सामना है वो एक भी हैं और सक्षम भी यह वो दो बार
साबित कर चुके हैं वो भी पहले से अधिक ताकत के साथ।
अगर वो कांग्रेस को वाकई में मजबूत करना चाहते हैं तो उनके नाम में जो गाँधी लगा है उसे चरितार्थ
करना होगा। गांधीजी ने अफ्रीका से लौटने पर देश के स्वतंत्रता आंदोलन को शुरू करने से पहले पूरे
भारत का भ्रमण किया था वो भी ट्रेन के तृतीय श्रेणी के डब्बे में ताकि वे असली भारत को जान पाएं।
राहुल को भी अगर लोगों के दिल में जगह बनानी है तो उन्हें भारत को समझना होगा यहां के जनमानस
का मन पढ़ना होगा। राजनीति में विदेश से हासिल डिग्री विपक्ष का मुँह तो बन्द कर सकती है लेकिन
वोट नहीं दिलवा सकती। ऎ सी कमरों में रोज़ प्रेस कॉन्फ्रेंस करके विपक्ष पर आरोप तो लगाए जा सकते
हैं लेकिन उन आरोपों पर देश की विश्वसनीयता नहीं जीती जा सकती। जिस पार्टी की आज़ादी के बाद
पहली सरकार पर ही भ्रष्टाचार के आरोप लग गए हों और 2014 तक आते आते अनगिनत आरोपों से
घिर चुकी हो लोगों के मन में ऐसी पार्टी के लिए एक बार फिर जगह बनाना राहुल के लिए आसान नहीं
होगा। खास तौर पर तब जब मात्र चार महीने पुरानी मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार पर भ्रष्टाचार के
आरोप सिद्ध हो रहे हों। लेकिन अगर वो सच में कांग्रेस को इस हार से उबारना चाहते है तो उन्हें
भ्रष्टाचार पर अपना कड़ा रुख देश को दिखाना होगा। लेकिन जब एक प्रदेश की कांग्रेस सरकार के
भ्रष्टाचार के तार आलाकमान के ही दफ्तर से जुड़ रहे हों तो?
और सबसे महत्वपूर्ण बात पार्टी की विचारधारा को नए सिरे से स्पष्ठ करना होगा। आज जो राहुल अपने
कुछ नेताओं पर पार्टी हित से पहले स्व हित को रखने का आरोप लगा रहे हैं वो राहुल भूल रहे हैं कि
राष्ट्र हित से पहले पार्टी हित और पार्टी हित से पहले स्वयं का हित कांग्रेस की शुरू से ही परंपरा रही है।
इसीलिए उसने सेक्युलरिज्म की आड़ में तुष्टीकरण अभिव्यक्ति की आड़ में देशविरोधी गतिविधियों का
समर्थन मानवाधिकारों की आड़ में अलगाववादियों का समर्थन जैसे कदमों से वोटबैंक की राजनीति करने
से भी परहेज नहीं किया।
लेकिन अब अगर राहुल कांग्रेस को सच में उबारना चाहते हैं तो उन्हें शुरुआत से शुरू करना होगा।
कांग्रेस की विचारधारा से लेकर परंपरा को बदलना होगा क्योंकि जितना आवश्यक कांग्रेस का खुद को इस
हार से उभारना है उतना ही आवश्यक इस देश के लोकतंत्र के लिए एक मजबूत विपक्ष का होना है।