कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद गैरभाजपा दलों का खुश होना स्वाभाविक है। यह बात और है कि बंगलुरू में 20 मई को हुए सिद्धारमैया के शपथ ग्रहण समारोह में यह प्रसन्नता कम ही दिखी। वहां जुटे विपक्षी नेताओं की मौजूदगी सिर्फ सांकेतिक ही नजर आई। विपक्षी राजनीति का कोई ठोस संकेत नहीं मिला। इसके बावजूद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पूरी शिद्दत से विपक्षी एकता की कमान थाम लेने की कोशिश में जुटे हुए हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और मौजूदा अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के साथ उनकी मुलाकात को इसी नजरिये से देखा जा सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन मुलाकातों के बावजूद कांग्रेस क्या विपक्षी एकता के लिए अपने नेतृत्व को कुरबान करने को तैयार होगी? कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस क्या विपक्षी गोलबंदी में उसी तरह नेपथ्य या पृष्ठभूमि में रहने को तैयार होगी, जैसे कर्नाटक चुनाव के पहले तक दिख रही थी?
इन सवालों से जूझने से पहले अतीत में चले केंद्रीय सत्ता विरोधी अभियानों की चर्चा करना उचित होगा। जिस तरह नीतीश प्रधानमंत्री मोदी विरोधी मुहिम की अगुआई करने की कोशिश में जुटे हैं, उससे लगता है कि उन्होंने हर हाल में मोदी को उखाड़ फेंकने का संकल्प ले लिया है। दो महीने पहले उनके सिपहसालार राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन ने अपनी अध्यक्षता में जनता दल यू की कार्यकारिणी का गठन किया था, लेकिन तब पार्टी के बड़े नेताओं में शुमार केसी त्यागी को कोई जगह नहीं मिली थी। ऐसा नहीं हो सकता कि त्यागी की रूखसती बिना नीतीश की मर्जी के हुई होगी। नीतीश भी जनता दल यू के वैसे ही आलाकमान हैं, जैसे वंशवादी दलों का आलाकमान है। जनता दल यू में भी अध्यक्ष की हैसियत नीतीश के सामने कुछ भी नहीं है। लेकिन मोदी विरोधी अभियान छेड़ने के बाद उन्हीं केसी त्यागी की उपयोगिता नीतीश कुमार को समझ आने लगी। केसी त्यागी के संबंध तमाम पार्टियों के नेताओं से हैं। नीतीश की उम्मीद है कि विपक्षी लामबंदी में केसी त्यागी के राजनीतिक रिश्ते सहयोगी हो सकते हैं।
नीतीश की कोशिशों से 1987 के विपक्षी अभियानों की याद आना स्वाभाविक है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी बोफोर्स दलाली के आरोपों से जूझ रहे थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई में अरूण नेहरू, रामधन, आरिफ मोहम्मद खान और सतपाल मलिक ने कांग्रेस से अलग राह अपना ली थी। तब नीतीश कुमार, शरद यादव के आदमी माने जाते थे और उन दिनों शरद के राजनीतिक बॉस देवीलाल का हरियाणा की सत्ता पर कब्जा था। तब उन्होंने राजीव विरोधी परिवर्तन रथ चला रखा था। उन दिनों आंध्र प्रदेश के नेता नंदमुरि तारक रामाराव ने तेलुगूदेशम पार्टी के बैनर तले यात्रा निकाल रखी थी। 1987 में समूचे विपक्ष को एक होने का मौका इलाहाबाद उपचुनाव से मिला था, जिसमें राजीव के लेफ्टिनेंट रहे वीपी सिंह उतरे थे और कांग्रेस के उम्मीदवार और उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री सुनील शास्त्री को हरा दिया था। सुनील शास्त्री बाद में भाजपा में शामिल हो गए थे।लेकिन इस बार ऐसी एकता होती नजर नहीं आ रही है। बीस मई को बंगलुरू में हुए सिद्धारमैया सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में आम आदमी पार्टी को बुलावा नहीं मिला। जिस ममता बनर्जी को मिला, उन्होंने खुद आने की बजाय अपनी सांसद काकोली दस्तगार को भेज दिया था। विपक्षी राजनीति के कद्दावर चेहरे शरद पवार भी नहीं थे। के. चंद्रशेखर राव को भी निमंत्रण नहीं था। आंध्र के मुख्यमंत्री जगन रेड्डी को कांग्रेस से बुलावा मिलना ही नहीं था। विपक्षी राजनीति के एक और अहम चेहरे नवीन पटनायक भी वहां नहीं पहुंचे। जाहिर है कि विपक्षी एकता का शिराजा बनने के पहले ही हिचकोलों में फंसता नजर आया।
भारतीय राजनीति में बीजेपी के उभार के बाद सांप्रदायिकता विरोधी लामबंदी के बहाने भाजपा विरोधी दल मुस्लिम वोट बैंक का साथ हासिल करने की कोशिश करते रहे हैं। अतीत में इस वोट बैंक पर सिर्फ कांग्रेस का ही असर होता था। लेकिन राम मंदिर आंदोलन के उभार और सामाजिक न्याय की राजनीति के बढ़ते प्रभाव के दौर में मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस से दरकता हुआ हर उस दल के इर्द-गिर्द इकट्ठा होता चला गया, जो स्थानीय स्तर पर उन दलों के साथ जुड़ता गया, जिनसे उन्हें सांप्रदायिकता विरोध के नाम पर भाजपा को हराने की उम्मीद थी। उसकी इस उम्मीद को उत्तर प्रदेश में साल 2012 तक समाजवादी पार्टी ने पूरी किया तो बिहार में लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल ने पूरा किया। इसी तरह मुस्लिम वोट बैंक की उम्मीदों का पतवार पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के हाथ सुरक्षित नजर आया। वैसे एक दौर में पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोट मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ था। लेकिन अब वह पूरी तरह ममता के साथ चला गया है। दिल्ली के पिछले दो विधानसभा चुनावों में इस वोट बैंक ने कांग्रेस का हाथ छोड़ आम आदमी पार्टी के साथ झाड़ू बुहारने में जुट गया। अभी आम आदमी पार्टी को दिल्ली में कम से कम विधानसभा चुनावों तक खतरा नजर नहीं आ रहा है। लेकिन यह तय है कि आगामी लोकसभा चुनावों में यह वोट बैंक आम आदमी पार्टी की बजाय कांग्रेस की ओर कर्नाटक की तरह लौट सकता है। इसलिए क्षेत्रीय दलों की चिंता स्वाभाविक है। इसीलिए वे कांग्रेस की अगुआई में नया विपक्षी गोलबंदी के लिए उतावले नजर नहीं आ रहे है। यह खतरा महाराष्ट्र में शरद पवार के साथ भी हो सकता है, अगर मुस्लिम मतदाताओं ने मन बना लिया तो जितना भी पवार को उसका साथ मिलता रहा है, वह उससे खिसक सकता है। अगर ऐसा होता है तो क्षेत्रीय क्षत्रपों की राजनीति का शिराजा बिखर सकता है। रही बात नीतीश कुमार की, तो उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। बिना बड़े राजनीतिक आधार के सिर्फ चेहरे के दम पर वे 2005 से लगातार बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए हैं। पहले उनका आधार भाजपा के साथ बनता रहा और अब राष्ट्रीय जनता दल उनके साथ है। वैसे नीतीश की उम्र हो गई है, इसलिए उन्हें भी लगता है कि अपनी जिंदगी के तकरीबन आखिरी चुनाव में कोशिश कर लेने में कोई हर्ज नहीं है।