गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, कनाडा
कहाँ राधा संग सदा ही,
कृष्ण जगती प्रीति करते;
भाव उनके रहे उर में,
बहे धारा कर्म करते!
धरा कितनी गोपिकाएँ,
उन्हें मिलने को बुलाएँ;
कंस कितने तंग करके,
त्राण अपना करना चाहें!
मारते कब वे किसी को,
स्वयं मरने मन सिधाएँ;
तन मनों की यज्ञशाला,
आत्म में वे ताल लाएँ!
मिले कितनी बार आकर,
श्याम सूरत देख जाएँ;
पर कहाँ कौरव तमिस्रा,
छोड़ उनकी प्रीति जानें!
हर घड़ी है महाभारत,
कराना पार्थों से पड़ता;
‘मधु’ प्रभु बन सारथी,
सृष्टि सृजन लय प्रलय करते!