-शैलेन्द्र चौहान- ‘कश्मीर’ घाटी में पहले पत्थरबाजों कोई खास जमात नहीं थी। वे किसी खास राजनैतिक धारा से भी जुड़े नहीं थे। वे ‘शेर’ हो सकते थे या ‘बकरा’, यानी शेख अब्दुल्ला के हिमायती या मीरवाइज मौलवी यूसुफ शाह के। उनकी कोई खास पहचान नहीं थी, न कोई नाम। लेकिन अब लगता है कि पत्थरबाजी पेशा बन गई है और इसे बजाप्ता नाम दिया गया है। खबर थी कि कुछ राजनीतिक नेता दिहाड़ी के आधार पर नौजवानों को नियुक्त करने लगे हैं, क्योंकि आजकल राजनैतिक कार्यकर्ताओं का मिलना मुश्किल हो गया है। इन बेरोजगार युवकों का एक काम विरोधियों पर पत्थर मारना भी होता था। लेकिन जल्द ही यह सूचनाएं भी आने लगीं कि पत्थरबाजों को उपलब्ध कराने के ठेकेदार भी पैदा हो गए हैं। मुहल्लों में अब पत्थरबाजों (कन्युल) और उनके ठेकेदारों की अपनी पहचान बन गई है। साफ है कि अगर यह बिकाऊ सेवा बन गई है तो इसके खरीदार भी होंगे और वे इस संगठित श्रम या सेवा का इस्तेमाल छोटे-मोटे झगड़ों के लिए नहीं, किसी बड़े या दूरगामी प्रभाव के लिए कर रहे होंगे। पत्थर सुलभ है, सस्ता है, इसे चलाने के लिए विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं और कानून में पत्थर हथियार नहीं है। तो कौन थे इस सेवा के ग्राहक। बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं। सैयद अलीशाह गीलानी, महबूबा सईद और मीरवाइज फारुख के बयानों से ही साफ है कि यह ‘आजादी’ की लड़ाई का नया साधन है।
पत्थरबाजी की ठेकेदारी भले ही प्रायोजित थी, लेकिन पिछले कुछ समय से जो दृश्य श्रीनगर और ‘कश्मीर’ घाटी के दूसरे कस्बों में दिखाई देते रहे हैं, क्या वे भी प्रायोजित हैं? हजारों की संख्या में प्रदर्शन, अपने सहयोगियों में पत्थर बांटती और स्वयं फेंकती औरतें, पथराव करने वाली भीड़ में सबसे आगे चलने वाले कमसिन बच्चे। भावनाओं का यह तूफान न तो नियंत्रित हो सकता है, न किसी से अनुशासित या प्रायोजित। यह भावनाओं के ज्वार की तरह नहीं, जो चढ़ते ही उतरने लगता है। यह किसी उफनती नदी का बांध टूटने जैसा है, जहां पानी सारे कायदे तोड़कर सब कुछ बहा ले जाता है। नदी के बांध की तरह कश्मीरी समाज में भी भीतर से कुछ टूट गया है। शायद वह भरोसा टूट गया है, जो लोग समय-समय पर अपने रहनुमाओं पर करने लगे थे। 1947 से ही उन्हें सब्जबाग दिखाए जाते रहे। शेख अब्दुल्ला ने कहा कि मैं तुम्हें व्यक्तिगत शासन से आजादी दिलाऊंगा। वह आजादी मिली तो कहने लगे कि यह आजादी पर्याप्त नहीं क्योंकि मेरी सत्ता अभी स्थायी नहीं। फिर जमायते इस्लामी ने कहा कि सही आजादी तो तभी आएगी, जब मजहबी शासन हो। फिर सीमा पार से बताया गया कि बिना हथियार आजादी नहीं मिल सकती। पाकिस्तान प्रशासित ‘कश्मीर’ को अड्डा बनाकर लोगों को अपनी गतिविधियों के लिए वित्तीय सहायता और भर्ती के लिए नौजवान पाकिस्तान से मिलते रहे। इस संदर्भ में ये आरोप बार-बार लगते रहे कि इन गुटों को पाकिस्तान की ख़ुफिया एजेंसी आई एस आई का समर्थन प्राप्त है। पाकिस्तान बार-बार इन आरोपों का खंडन करता आया है और कहता रहा है कि पाकिस्तान कश्मीरियों को केवल नैतिक समर्थन देता है। कश्मीरी आतंकवाद और घुसपैठ के मामले पर सरकार बार-बार चिंता जताती रही है और पडोसी देश तथा खुफिया एजेंसियों का इस मामले में नाम आता रहा है। सरकार की चिंता निश्चित रूप से जायज है और इस संभावना से इनकार भी नही किया जा सकता कि विदेशी ताकतें राज्य में भारत विरोधी माहौल पैदा करने की कोशिश में जुटी हैं। लेकिन, सवाल यह है कि खुद हमारी खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा बलों का राज्य की जनता के साथ क्या बर्ताव है? ज्यादातर कश्मीरी लोग खुद को भारत के साथ जोड़कर नहीं देखते हैं। कश्मीरियों का मानना है कि भारत सरकार ने उनकी मर्जी के खिलाफ ‘कश्मीर’ पर कब्जा कर रखा है और उनकी मर्जी को दबाकर रखा गया है यही वजह है कि कश्मीरियों के अंदर पीड़ित होने की भावना बहुत बलवती है।
जिसने भी जो सपना दिखाया, उसी ने उसे तोड़ दिया। संजीदा और खास मकसद कार्यकर्ताओं की उम्मीद पूरी नहीं हुई। इतनी जद्दोजहद के बाद उन्हें कोई नई बुनियादी सोच या अपने काम के लिए नई दिशा हासिल नहीं हो सकी। ऐसे में इस व्यापक आंदोलन की एक जुटता को लेकर शंका उत्पन्न होती है। एक बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है कि जमीनी स्तर पर चल रहे विभिन्न आंदोलनों में साझेदारी कैसे बने और कायम भी रहे। पिछले पांच साल के दौरान जो तुलनात्मक शांति नजर आई, उससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि ‘कश्मीर’ का मसला हल हो गया है या आसानी से हल हो सकता है। समस्या की तरफ से मुंह मोड़ने से रास्ता नहीं निकलता इस बात को ध्यान में रखकर कदम उठाए जायें तभी लंबी लड़ाई लड़ पाना संभव हो पाएगा। आज ‘कश्मीर’ देश के उन चंद राज्यों में शामिल है, जहां शिक्षा का प्रतिशत काफी ऊंचा है- औरतों में भी। लेकिन यह शिक्षा और डिग्रियां बेकार साबित हो रही हैं। हजारों पढे़-लिखे नौजवानों के लिए विकल्प केवल ‘कश्मीर’ से बाहर पलायन करना ही है। कई साल पहले जब आतंक के एक लंबे दौर के बाद ‘कश्मीर’ विधानसभा के लिए फिर से चुनाव कराने की चर्चा चल पड़ी थी तो हुरिर्यत के कहने पर घाटी में हड़ताल थीं। एक बुर्कापोश लड़की को चुनाव के बारे में पूछने पर उसने कहा कि वह इसलिए चुनाव चाहती हैं कि कोई तो जिम्मेदार सरकार आए। अगर नहीं आएगी तो हॉस्टल में रहकर पूरी की गई मेरी शिक्षा बेकार जाएगी। मेरे पिता मेरी शादी करके मुझे दफा कर देंगे और मुझे अपने अरमानों को अलविदा कहना होगा। लड़की को उम्मीद थी कि नई सरकार आएगी तो रोजगार के नए रास्ते खुलेंगे। ऐसी न जाने कितनी उम्मीदें तब से नाउम्मीदी में बदल चुकी हैं। ‘कश्मीर’ पर चल रही तमाम चर्चाओं के बीच कश्मीरी युवाओं का कहना है कि देश के कर्ताधर्ता कुछ कहने या करने से पहले एक बार उनकी बात तो सुनें। ‘कश्मीर’ की त्रासदी गरीबी की नहीं है। भारत और पाकिस्तान ‘कश्मीर’ के लिए लड़ ही नहीं रहे हैं, उसका सौदा करने को भी आमादा दिखते हैं। पाकिस्तान भारत को उकसाने के लिए कोई न कोई हरकत करता रहा है। खबर है पाकिस्तान के कब्जे वाले ‘कश्मीर’ (पीओके) में सामरिक रूप से महत्वपूर्ण गिलगित बल्टिस्तान क्षेत्र पर चीन का वर्चस्व बढता जा रहा है क्योंकि पाकिस्तान उसे उसका वास्तविक नियंत्रण सौंप रहा है। वहां पाकिस्तानी शासन के खिलाफ जबर्दस्त विद्रोह सुलग रहा है। अमेरिका भी यही चाहता है कि भारत और चीन के रिश्ते खराब हों। लम्बे अरसे से गिलगित पर अमेरिका की भी नजर रही है इसलिए अमेरिका भारत को उकसा रहा है। चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के 7000 से 11000 सैनिकों की वहां घुसपैठ हो गई है। यह क्षेत्र दुनिया के संपर्क से कटा हुआ है। विदेशी खुफिया सूत्रों, पाक मीडिया के हवाले से न्यूयार्क टाइम्स अखबार कहता है कि चीन पाकिस्तान के रास्ते सामरिक रूप से महत्वपूर्ण इस क्षेत्र में निर्बाध सडक और रेल संपर्क सुनिश्चित करने के लिए इस पर अपनी पकड़ बनाना चाहता है। इस मार्ग से बीजिंग पूर्वी चीन से बलूचिस्तान के गवादार, पासनी और ओरमरा में चीन द्वारा नवनिर्मित पाकिस्तानी नौसेना अड्डों पर जरूरी सामान और ऑयल टैंकर पहुंचा पाएगा।
आज कश्मीरी अवाम को नहीं मालूम कि उनका यह क्षेत्र इस देश का होगा, उसका होगा कि किसी का भी नहीं होगा। इस अनिश्चय और मूल्यहीनता के दौर में वे अपनी संस्कृति को भी खोते जा रहे हैं। जो लड़के सुरक्षा बलों पर पत्थर मारते हैं, वे कल की बात नहीं सोचते क्योंकि कल पर से ही उनका भरोसा उठ चुका है। वे अगर आजादी का नारा देते हैं तो उन्हें नहीं मालूम कि वे किससे आजादी चाहते हैं और आजादी का स्वरूप क्या होगा। वे जो करते हैं, उसके जरिए अपने अंदर के असंतोष और गुस्से को बाहर निकालना चाहते हैं। उनकी मांएं या बहनें जब पत्थर मारती हैं तो अपनों की मौत मातम मना रही होती हैं। उनके इस काम की व्याख्या और लोग करते हैं, जिन्हें भावनाओं को भुनाना आता है। वे पत्थर मारने में भी कोई मजहबी कर्मकांड देखते हैं। लेकिन आम कश्मीरी समाज सभी व्याख्याओं से परे एक क्षुब्ध और त्रस्त समाज है, जिसे पास जाकर, छूकर संभालना होगा, दूर से सहायता पैकेज/स्वायतता का आश्वासन देकर नहीं।