जैसे जैसे गर्मी शुरू हो रही है देश भर में पानी की कमी की ख़बरें चिंता का विषय बनती जा रही हैं।
पिछले कुछ वर्षों में देश के कई क्षेत्रों में मई और जून महीने में डैम-जलाशयों तथा नदियों के सूखने और
पानी की त्राहिमाम के रोंगटे खड़े कर देने वालीं ख़बरें लगातार मिलती रही हैं। वह भी ऐसे समय में जब
इंसान वैज्ञानिक और आधुनिक उच्च तकनीक से लैस मशीनी युग में जी रहा है। यह अटल सत्य है कि
पानी के बिना इंसानी सभ्यता का कोई वजूद नहीं है। विश्व की सभी सभ्यताओं का विकास नदियों के
किनारे ही हुआ है। दंत कथाओं में पानी की महत्ता की चर्चा मिलती है। वास्तव में पानी का लोक विज्ञान
काफी समृद्ध रहा है और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होने के साथ-साथ यह लोगों की दिनचर्या में रचा-
बसा रहा है। हजारों सालों से इसका अनुसरण करते हुए लोगों ने पानी का अपनी आवश्यकतानुसार न
केवल उपयोग किया है बल्कि समस्त जीव जगत के लिए भी उनका हिस्सा भी छोड़ा है। लेकिन यह
ज्ञान आज के आधुनिक पाठ्य पुस्तकों से गायब है। पनिहारी के पावों और पानी के ठांमों से मापा जाने
वाला पानी आधुनिक शिक्षा में इंचों, फुटों, मीटरों, किलोमीटरों, गैलन और लीटरों में नापा जाने लगा।
लेकिन इसके बावजूद पानी का विकल्प क्या हो सकता है? यह सवाल अब भी आधुनिक विज्ञानं के लिए
रहस्य बना हुआ है।
विज्ञान और विकास ने पानी को लेकर प्रचलित लोक ज्ञान को भूलाकर नया ज्ञान तैयार कर दिया और
इसका विकल्प ढूंढने की बजाये इसे व्यापार का हिस्सा बना दिया। कल-कल करती नदियों की धाराओं को
पहले बांधों में बांधा गया और फिर इसे बोतलों में बंद कर दिया गया। नल से नालियों में बहाना शुरू
किया। पाताल फोड़ कर प्राकृतिक खजाने को निचैड़ना शुरू किया। कृषि सिंचाई से लेकर कोल्ड ड्रिंक
बनाने की कवायद शुरू हुई, तो पानी ज्ञान से पतला हो कर गायब होने के कगार पर पहुँच गया।
आधुनिक तकनीक से पानी को बांधों में बांध कर पाइप लाइनों के जरिए घरों की देहरी तक पहुंचाने की
राजकीय जिद्द और सामाजिक स्वीकार्यता के चलते सदियों से जन-जीवन की प्यास बुझाने वाले
पारंपरिक स्रोत इतिहास के खंदेड़े बन गए।
याद होगा 1999 से 2005 के अकालों के बीच का वह समय जब इंदिरा गांधी नहर के किनारे बसे लोग
पीने के पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस गए थे। रेगिस्तान में नहर का पानी देख कर यहां के
निवासियों ने जैसे बादलों को देख कर अपने घड़े ही फोड़ दिए थे। पारंपरिक जल स्रोतों को भूल कर
नहरों को अपना भविष्य मान लिया। परंतु मानव निर्मित यह योजनाएं असफल साबित हुईं और नहर
बंदी में पराये पानी ने धोखा दिया, तब एक बार फिर से पारंपरिक जल स्रोत ही याद आये। लेकिन तब
बहुत देर हो चुकी थी। सरकार का खजाना भरने की लालची मानसिकता ने पारंपरिक जलस्रोतों और
चारागाहों को कृषि भूमि में तब्दील कर बेच दिया था। रेगिस्तान में पानी की समस्या को मिटाने के लिए
निकाली गई इंदिरा गांधी नहर पेयजल के मामले में उतनी खरी नहीं है, जितने स्व. अनुपम मिश्र के
‘आज भी खरे हैं तालाब’ में पारंपरिक जलस्रोत हैं।
समुदाय की प्यास बुझाने के लिए निर्मित किए गए यह पारंपरिक जल स्रोत सरकारी धन के मोहताज
नहीं थे। समाज की मेहनतकश जनता ने या फिर व्यापारिक दानीजनों ने अपने मुनाफे के कुछ भाग को
धार्मिक भावना और अपनी पीढ़ी के नाम के अमृत्व की आकांक्षा से आर्थिक सहयोग प्रदान कर निर्माण
कराया, लेकिन निर्माण करने वाला समाज का मेहनतकश तबका ही रहा। यह सिलसिला निर्माण तक
सीमित नहीं रहा बल्कि प्रबंधन व्यवस्था की संस्कृति विकसित हुई जो पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान के रूप में
कानो-कान पहुंचती और कर्तव्य बनती रही। आजादी के बाद इस व्यवस्था को तोड़ने का पूरा बंदोबस्त
सरकारी नीतियों के तहत हुआ। पारंपरिक जल स्रोतों व चारागाहों की जमीनों को कहने के तौर पर
सामुदायिक कहा गया, लेकिन असल में यह सरकार के अधिकर क्षेत्र में आ गई। पानी को उपभोग की
वस्तु बनकार व्यापार के दायरे में लाया गया और पेयजल उपलब्धता का जिम्मा सरकार ने लिया।
समाज ने न केवल अपने पारंपरिक स्रोतों बल्कि अपने पानी की स्वनिर्भता से हाथ झटक लिए। शहर तो
वैसे ही अपने विकास के साथ पारंपरिक संस्कृति से नाता तोड़ लेता है, लेकिन गांवों ने भी अपने पुरखों
द्वारा दिए गए इन उपहारों को विरासत के अवशेष मानकर नाता तोड़ लिया तो एक नया ज्ञान उपजा।
इस नए ज्ञान ने पानी और पारंपरिक जल स्रोतों के संदर्भ में समाज के विपरीत मानसिकता वाले ऐसे
वर्ग खड़े कर दिए और पानी के ज्ञान को गाद की तरह गाढ़ा बना दिया।
अंत में एक वर्ग ऐसा बचता है, जो आज भी पानी की एक-एक बूंद के लिए पसीना बहा रहा है। मुश्किल
यह है जिनको पानी और जीवन की जरूरत है, वह आज मौन है और जिनको पारंपरिक स्रोतों से कोई
सरोकार नहीं, वह इसे व्यापार का हिस्सा बना कर इसे मिटियामेट करने पर तुले हैं। पारंपरिक जल स्रोतों
की हिफाजत और बंदोबस्त केवल जागरूक और ज्ञानी समाज ही कर सकता है। समय आ गया है,
पारंपरिक जल स्रोतों की सामाजिक सुरक्षा का, सामाजिक क्रांति का, उस ज्ञान को कानोकान पहुंचाते हुए
व्यवहार में उतार कर कर्तव्य बनाने का, सदियों से जीवनदान देने वाले इन पारंपरिक स्रोतों को जीवन
दान देने का। अन्यथा इसका खामियाजा हमारी भावी पीढ़ी को भुगतना तय है।