-अशोक मधुप-
कनाडा के ट्रक चालक और दिल्ली के किसान आंदोलन में काफी कुछ एक जैसा ही है। ये ट्रक चालक अपनेदृअपने
ट्रक लेकर कनाडा की राजधानी ओटावा आए हैं। भारत में किसान अपने ट्रेक्टर लेकर दिल्ली पर चढ़ने के इरादे से
आए थे। किसान भी लंबे समय रूकने के लिए खाने−पीने का सामान लेकर आए और एक साल रूके। ये ट्रक चालक
भी रूकने की तैयारी के साथ आए हैं।
कनाडा में पचास हजार के आसपास ट्रक चालकों ने प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो का निवास शनिवार को घेर लिया। वे
अपने ट्रक साथ लिए हुए है। ये ट्रक चालक अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। नारे लगा रहे हैं। वाहनों के
हाँर्न बजा रहे हैं। ये लंबे समय के प्रवास के इरादे से खाने−पीने का सामान लेकर राजधानी आए हैं। हालत इतनी
खराब है कि राजधानी ओटावा के चारों और सत्तर मील तक जाम लगा हुआ है। शहरवासी परेशान है। ट्रक चालकों
ने अपने करीब 70 किमी लंबे काफिले को 'फ्रीडम कान्वॉइ' नाम दिया है। ट्रक वाले कनाडा के झंडे के साथ
'आजादी' की मांग वाले झंडे लहरा रहे हैं। वे पीएम ट्रूडो के खिलाफ जमकर नारेबाजी कर रहे हैं। आंदोलन को हजारों
अन्य प्रदर्शनकारियों का भी साथ मिल रहा है। सड़कों पर हजारों की संख्या में बड़े-बड़े ट्रकों की आवाजें लगातार
सुनाई दे रही हैं। ये ड्राइवर ट्रकों के हॉर्न लगातार बजाकर सरकार का विरोध कर रहे हैं। वे संसद के पास पहुंच गए
हैं।हालत इतनी खराब है कि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और उनके परिवार ने भारी विरोध प्रदर्शन की वजह
से देश की राजधानी स्थित अपने आवास को छोड़ दिया है। वे किसी गुप्त स्थान पर जाकर छिप गए हैं।
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आवास छोड़कर भागना पड़ा
ये ट्रक चालक कोरोना वैक्सीन जनादेश और अन्य सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिबंधों को समाप्त करने का विरोध कर
रहे हैं। बताया जा रहा है कि यह एक जगह पर ट्रकों का दुनिया का सबसे बड़ा जमावड़ा है। खबरें के मुताबिक पूरे
कनाडा से करीब एक सप्ताह की लंबी यात्रा करने के बाद ये विशालकाय ट्रक राजधानी ओटावा पहुंचे हैं। प्रदर्शन के
आयोजकों ने जोर देकर कहा है कि यह आंदोलन शांतिपूर्ण होगा, पर इतनी भीड़ के सामने पुलिस लाचार नजर आ
रही है। पुलिस ने कहा है कि वे इस संकट के लिए तैयार नहीं हैं।
ट्रक चालकों में गुस्सा इस बात का भी है कि कुछ दिन पहले कनाडाई पीएम ने एक बयान में ट्रक वालों को 'महत्व
नहीं रखने वाले अल्पसंख्यक' करार दिया था। पीएम ट्रूडो ने कहा है कि ट्रक वाले विज्ञान के विरोधी हैं। वे न केवल
खुद के लिए बल्कि कनाडा के अन्य लोगों के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। शहर में स्थिति गंभीर हो गई है। आलम
यह है कि ओटावा जाने वाले रास्ते पर ट्रकों की 70 किमी तक लंबी कतार लग गई है जिसके कारण अन्य यात्रियों
को भी आने-जाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। लगता है कि कनाडा सरकार ने इस आंदोलन को
गंभीरता से नही लिया। एक सप्ताह पूर्व चले आंदोलनकारियों के ट्रक राजधानी से पूर्व रोकने की व्यवस्था नही की
गई। आंदोलन की गंभीरता नही समझी गई। काश सरकार पहले से सचेत होती तो हालात इतन खराब न होते।
अभी एक साल पूर्व भारत में भी ऐसा ही प्रदर्शन हुआ था। पंजाब−हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान दिल्ली के
रास्तों पर धरना देकर बैठ गए थे। वे इस धरने के लिए अपने वाहन ट्रेक्टर आदि साथ लाए थे। लंबे समय रूकने
के लिए उन्होंने यहां तंबू लगाए। स्टेज बनाई। खाने पीने की सारी व्यवस्थाएं की। उनकी सेवा के लिए समाजसेवी
संगठन उतर आए। उन्होंने आंदोलन स्थलों पर जनसुविधांए उपलब्ध करांई। चिकित्सा शिविर शुरू हो गए। भोजन
के लिए भंडारें और लंगर शुरू हो गए। ये आंदोलन करीब एक साल चला। जब दिल्ली आंदोलन से जूझ रहा था, उस
समय कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो इन किसानों का समर्थन कर रहे थे। किसान दिल्ली का आवागमन तो पूरी
तरह नही रोक सके, पर इनके धरना स्थल से पहले से दिल्ली आने वालों को लंबा रास्ता तैकर आना पड़ा। काफी
परेशानी उठानी पड़ी। किसानों ने कई बार दिल्ली में प्रवेश की कोशिश की किंतु सरकार ने अनुमति नही दी। रास्तों
पर बाढ़ लगादी।इस आंदोलन के दौरान लालकिले जैसी कुछ अप्रिय घटनांए भी हुईं।
हालत यह हुई कि केंद्र को किसानों की मांग माननी पड़ीं। तीनों कृषि कानून वापिस लेने पड़े। तीनों कृषि कानून
वापसी की घोषणा खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राष्ट्र के नाम संबोधन में करनी पड़ी थी। कनाडा के इस आंदोलन
के हालात बता रहे हैं कि वहां के हालात किसान आंदोलन से ज्यादा खतरनाक हैं। भारत सरकार ने किसानों को
दिल्ली बार्डर से आगे नही आना दिया था, जबकि कनाड़ा में ये आंदोलनकारी शहर में दाखिल होकर संसद के पास
पंहुच गए हैं। हालत इतने खराब हैं कि वहां के प्रधानमंत्री को परिवार सहित किसी गुप्त स्थान पर जाकर छिपना
पड़ा है।
कनेड़ा और दिल्ली के आंदोलन से सीख लेने की बात यह है कि अब दुनिया को अब ऐसी योजना बनानी होगी कि
आगे से राजधानी का घेराव न हो। क्योंकि सरकार को झुकाने के इरादे से ऐसे आंदोलन आगे भी होंगे। अन्य देश
में भी होंगे। कोई भी संगठन किसी भी देश के केंद्र की राजधानी के मार्ग कभी भी रोक सकता है। राजधानी की
आवाजाही बंद कर रसद आदि का आपूर्ति बंद कर सरकारों को मांग मानने को मजबूर कर सकता है। इसलिए केंद्र
की राजधानी के विकेंद्रीयकरण पर भी विचार किया जाना चाहिए। देश की राजधानी उसके कार्यालय एक शहर में न
बनाकर अलग−अलग जगहों पर बनाए जाएं।
महाभारत में समझौते के लिए कौरवों के पास कृष्ण गए थे। उन्होंने मांग की थी कि पांडव को पांच गांव दे दिए
जांए। उन्होंने गांव के नाम भी बताए थे। इस प्रस्ताव को दुर्योधन ने यह कह कर अस्वीकार कर दिया था कि ये
पांच गांव मेरी राजधानी के चारों और हैं। आप जब चाहोंगे तक मेरे राज्य के रास्ते बंद कर दोगे। मुझे बिना लड़े
ही हथियार डालने पर मजबूर कर दोगे। ऐसा ही प्राचीन काल में सुरक्षा के लिए बने किलों के साथ होता था।
दुश्मन किले के आपूर्ति के रास्ते बंद कर देता था। मजबूरन बड़े से बड़े मजबूत किले के राजा को शस्त्र डालने पड़ते
थे। युद्ध की स्थिति में भी दुश्मन देश हमला करके एक बार में एक जगह स्थित राजधानी का सब कुछ खत्म कर
सकता है। इस सबको रोकने के लिए राजधानी के विकेंद्रीकरण पर सोचना होगा। सोचना होगा कि ऐसे आंदोलन में
व्यवस्थाएं ठप्प न हो जांए।
वैसे भी दिल्ली अब राजधानी के लिए उपयुक्त नही लगती। क्योंकि ये देश के बीच में स्थित नहीं हैं। दिल्ली जब
राजधानी बनी थी। अब पाकिस्तान नहीं था। तिब्बत भारत का हिस्सा था। नेपाल भारत का छोटा भाई जैसा था।
अब उसकी चीन के साथ नजदीकियां बढ़ रही हैं। इन सब हालात को देखते हुए राजधानी के लिए नए सिरे से
विचार करना होगा। अमेरिका दो बार अपनी राजधानी बदल चुका है। हमें भी राजधानी बनाने के लिए नई जगह
तलाशनी होगी।