पिछले दिनों हरियाणा सरकार ने एक आदेश पारित किया है कि राज्य के सभी न्यायालयों और ट्रिब्यूनलों में सारा
काम-काज हिंदी में किया जाएगा। क्योंकि जिन आम लोगों का कचहरियों से वास्ता पड़ता है, वे हिंदी जानते हैं,
लेकिन उनकी ओर से जो वकील पेश होता है वह सारी बात अंग्रेजी में करता है। न्यायाधीश भी अंग्रेजी ही सुनता है
और अपना फैसला भी अंग्रेजी में सुनाता है। वादी-प्रतिवादी दोनों ही मुंह खोले वकील व जज की ओर आंखें फाड़
कर देखते रहते हैं कि उनके भाग्य का चित्रगुप्त क्या फैसला करते हैं। फैसला हो जाता है तो उसे जानने के लिए
वादी-प्रतिवादी को फिर वकील के पास ही जाना पड़ता है कि कम से कम यह तो पता चल जाए कि फैसला हुआ
क्या है। किसी ने बड़ी सटीक टिप्पणी की थी कि अभियुक्त को फांसी पर चढ़ने का अधिकार तो है, लेकिन उसे
फांसी पर क्यों चढ़ाया जा रहा है, अपनी भाषा में यह पूछने का अधिकार नहीं है। लेकिन अब हरियाणा सरकार ने
जब यह निर्णय किया कि आगे से न्यायालय में काम-काज वादी-प्रतिवादी की भाषा में होगा, वकील की भाषा में
नहीं, जाहिर था इससे हड़कंप मचता। जनता तो प्रसन्न हुई कि अब वह कचहरी में उनके बारे में क्या हो रहा है,
यह जान और सुन सकती है। लेकिन कुछ वकील गुस्से में आ गए।
वे सीधे देश की सबसे बड़ी कचहरी सुप्रीम कोर्ट में हाजिर हो गए। उनका तर्क था कि हम तो हिंदी बोल नहीं
सकते। हम अंग्रेजी तो फर्राटेदार बोल सकते हैं, लेकिन हिंदी में हकलाते हैं। वे वकील हरियाणा के बाहर के नहीं थे,
हरियाणा के ही थे। हरियाणा के होते हुए भी हिंदी में हकलाते थे और अंग्रेजी में गुर्राते थे, यह रहस्य तो सचमुच
चौंकाने वाला था। इसका अर्थ है कि हरियाणा में भी कुछ टापू तैयार हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका
खारिज कर दी। अलबत्ता उन्हें यह जरूर कह दिया कि यदि वे चाहें तो पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट में अपना अंग्रेजी
वाला भाग्य आजमा सकते हैं। दरअसल भाषा का यह रहस्य ही भारतीय कचहरियों की सबसे बड़ी अंधी गुफा है जो
कुछ लोगों को मालामाल कर रही है। इसको लेकर मेरा अपना एक व्यक्तिगत अनुभव है। बहुत साल पुरानी बात
है। मैं पंजाब में वकालत का धंधा करता था। पंजाब की कचहरियों में एक खास प्रकार के केसों की भरमार रहती है।
ये केस 107-51 के केस कहलाते हैं । ये केस सब डिविजनल मैजिस्ट्रेट की कचहरी में पेश किए जाते हैं। गांवों में
लोग लड़ते हैं तो पुलिस दोनों पक्षों की ओर से 107-51 में केस दर्ज कर लेती है। यानी इन से शांति भंग होने की
आशंका है। इन केसों में ज्यादा कुछ नहीं होता। दोनों पक्षों को जमानत मिल जाती है। इसमें जमानत ही सजा
मानी जाती है। मैंने नई-नई वकालत शुरू की थी। गांवों में दो पक्षों में झगड़ा हो गया। 107-51 का केस दर्ज हो
गया। एक पक्ष ने मुझे वकील कर लिया और दूसरे पक्ष ने एक नामी वकील को पकड़ा। हम दोनों कचहरी में बैठे
थे। कुछ दूर हमारे क्लाइंट भी बैठे थे। हम मैजिस्ट्रेट के आगे पेश होने वाले थे क्योंकि पुलिस कलन्दरे लेकर पहुंच
गई थी। 107-51 के केस की फाइल को पता नहीं क्यों कलन्दरे कहा जाता है। तभी मुझे दूसरे पक्ष के वरिष्ठ
वकील ने बुलाया और कहा कि अग्निहोत्री, मैजिस्ट्रेट के सामने पंजाबी में बोलना न शुरू कर देना। अंग्रेजी में पांच-
सात मिनट बोलना। मैंने कहा, बाऊ जी यह तो 107-51 का केस है। इसमें बोलना क्या है। जमानत की दरख्वास्त
ही तो देनी है। (पंजाब में वकील को बाऊ जी कहा जाता है)।
तब उस वरिष्ठ वकील ने कहा, तुमने इन जाटों से कितनी फीस ली है? मैंने कहा, पांच सौ लिए हैं। वरिष्ठ वकील
ने कहा, मैंने पंद्रह सौ लिए हैं। अब यदि तुम पंजाबी में बोलने लगे तो इन जाटों को पता चल जाएगा कि 107-51
के केस में बहस के लिए कुछ नहीं होता तो वे खुद ही आकर मैजिस्ट्रेट के सामने बात नहीं करने लगेंगे? फिर
तुम्हें और मुझे फीस कोई क्यों देगा? इसलिए पांच-सात मिनट अंग्रेजी में कुछ न कुछ बोलते रहना। तभी जाट
प्रभावित होगा। मुझे तभी न्यायपालिका में भाषा का तिलिस्म समझ में आ गया था। वरिष्ठ वकील तो दशकों पहले
यह रहस्य समझ चुका था। इसलिए उसने अपनी बढि़या कोठी बना ली थी। अब हरियाणा सरकार न्यायपालिका में
से भाषा के इसी तिलिस्म को तोड़ने की कोशिश कर रही थी। जाहिर है गांव का जाट तो प्रसन्न है, लेकिन उस
वरिष्ठ वकील का क्या होगा जो उन दिनों ही केवल अंग्रेजी बोलने के पंद्रह सौ रुपए जाट से झाड़ लेता था?
इसलिए उसका इस फैसले का विरोध करना उचित ही कहा जाएगा। यह खुशी की बात है कि देश की सबसे बड़ी
कचहरी का जज इसमें जाट के साथ खड़ा नजर आया। उसने हिंदी में काम करने के आदेश को नहीं रोका। लेकिन
जज और मुवक्किल के बीच में जो वकील खड़ा है और अंग्रेजी के बलबूते वादी-प्रतिवादी को बंधक बना कर रखता
है, उसके बारे में क्या कहा जाए?