-ओमप्रकाश मेहता-
देश की राजनीति में वोट और अपराध को लेकर प्रजातंत्र के दो स्तंभों न्यायपालिका और विधायिका (सुप्रीम कोट व
सरकार) के बीच तीखी तकरार शुरू हो गई है, केन्द्र सरकार व सत्तारूढ़ दल वोट की राजनीति में व्यस्त है, तो
सुप्रीम कोर्ट राजनीति में अपराधीकरण पर सख्त हो गया है, सरकार खुलकर न्यायपालिका की उपेक्षा कर
राजनीतिक हित साधने की दृष्टि से देश के पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने का फैसला राज्य सरकारों को सौंपने का
कानून संसद से पारित करवा चुकी है, जिसके बारे में महज चार महीनें पहले सुप्रीम कोर्ट ने अपने अहम्् फैसले ने
यह अधिकार केन्द्र सरकार को सौंपा था, वहीं सुप्रीम कोर्ट राजनीति में अपराधिकरण के मुद्दें पर राजनीतिक दलों
पर फंदा कस रही है और यहां तक तल्ख टिप्पणी कर रही है कि आपराधिक छवि वाले नेताओं को कानून बनाने
का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिये इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश भी जारी कर दिया है कि
राज्य सरकारें राजनेताओं पर चल रहे अपराधों के मामलों को बगैर उच्च न्यायालयों की पूर्व इजाजत के वापस नहीं
ले सकती और राजनीतिक दलों को अपने चुनावी प्रत्याशियों के आपराधिक रिकार्ड नामों की घोषणा के 48 घंटें की
समय सीमा में चुनाव आयोग को प्रस्तुत करना होगें।
सुप्रीम कोर्ट के इस सख्त रूख के कारण देश के राजनीतिक दलों में खलबली मच गई है, राजनीति में अपराधिकरण
दिन दूना-रात चौगुना बढ़ रहा है और इस मामले में जहां चुनाव आयोग अपने आपको राजनीतिक दबावों के कारण
असहाय मान रहा है, वहीं न्यायपालिका भी काफी परेशान रही है, चुनाव आयोग पर चूंकि सत्तारूढ़ दल हावी रहता
है, इसलिए वह इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की मद्द भी नही कर पा रहा है। इसलिए अब सुप्रीम कोर्ट को स्वयं ही
सख्त रूख अपनाने को बाध्य होना पड़ा है।
यदी ऐसी स्थिति में यह कहा जाए कि विधायिका अपने हितों को वरियता देकर न्यायपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप
कर या उसका महत्व नकार कर राजनीति कर रही है तो कतई गलत नहीं होगा, जिस सर्वोच्च न्यायालय ने महज
चार महीनें पहले पिछड़े वर्ग की सूची तैयार करने का अधिकार केन्द्र सरकार को दिया, वहीं अधिकार केन्द्र सरकार
संसद से कानून पारित करवाकर राज्य सरकारों को सौंपने जा रही है, अब इसे प्रजातंत्र को दो प्रमुख स्तंभों में
शुद्ध रूप से टकराव ही कहा जाएगा और जहां तक तीसरे स्तंभ कार्यपालिका का सवाल है उसे तो सत्तारूढ़ दल व
केन्द्र सरकार के अधीन ही रहना है, इसलिए उसका तो स्वाभाविक रूप से केन्द्र व सत्तारूढ़ दल को ही सहयोग
प्राप्त होगा, इस प्रकार अब मुख्य रूप से विधायिका (सरकार) व न्यायपालिका (सुप्रीम कोट) के बीच ही अपने-अपने
अस्तित्व की रक्षा की यह मुख्य लड़ाई है, अब इससे देश कितना प्रभावित होता है और वह किसके साथ है? इसका
स्पष्ट फैसला होना अभी शेष है, वैसे यदि इस मामले में देश के अभी तक के संकेतों पर ध्यान दिया जाए तो देश
न्यायपालिका के साथ खड़ा नजर आ रहा है, क्योंकि देश का आम नागरिक यह नहीं चाहता कि कोई भी प्रलोभन
के माध्यम से उसका वोट खरीदने की कोशिश की जाए, जैसाकि पिछड़े वर्ग के देश के तीस फीसदी वोट को
आरक्षण के प्रलोभन के माध्यम से खरीदने की कोशिश की जा रही है, पिछड़े वर्ग के बाद अन्य वर्गों के वोटों को
लेकर भी राजनीतिक दल ऐसे प्रलोभन वाले कदम उठा सकते है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि आर्थिक और राजनीतिक लाभ के फैसलों के समय पक्ष और विपक्ष के सभी दल
एकजूट हो जाते है, जबकि प्रतिपक्षी दल महत्वहीन मसलों को विवाद के रूप में संसद को सिर पर उठा लेते है और
संसद चलने नहीं देते है, इसका ताजा उदाहरण हाल में खत्म हुआ संसद का पावस सत्र है, जहां पैगासस जासूसी
काण्ड, किसान कानून आदि मसलों पर संसद को चलने नहीं दिया, लोकसभा सिर्फ 22 फीसदी ही पूर्व निर्धारित
कार्य निपटा पाई और राज्यसभा को असंसदीय मर्यादाहीन कृत्यों के दौर से गुजरना पड़ा वहीं पिछड़े वर्ग के आरक्षण
पर पक्ष-विपक्ष ने एकजूट होकर इस मसले को कानूनी जामा पहना दिया और संसद का पावस सत्र निर्धारित अवधि
से पूर्व ही खत्म करना पड़ा।
अब न्यायपालिका व विधायिका के बीच छीड़ा यह संघर्ष किस अंजाम तक पहुंचेगा? यह तो फिलहाल नहीं कहा जा
सकता किंतु यह अवश्य कहा जा सकता है कि इस संघर्ष से किसी का भी हित होने वाला नहीं है। वैसे मूलत: इस
संघर्ष में राजनेता अपने राजनीति हित देख रहे है तो न्यायपालिका देशहित देख रही है इसीलिए इस संघर्ष में देश
फिलहाल न्यायपालिका के साथ खड़ा है और धीरे-धीरे न्यायपालिका को संरक्षक मानने की उसकी धारणा मजबूत
होती जा रही है।