भारत के लिए ओलंपिक सपना ही है। हालांकि हम बहुत पहले एशियाई गेम्स और 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन कर चुके हैं। एशिया में ओलंपिक खेलों की मेजबानी अभी तक चीन, जापान, दक्षिण कोरिया के ही हिस्से आई है। भारत इनसे कमतर राष्ट्र नहीं है। विश्व की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और 140 करोड़ से अधिक आबादी है, लिहाजा भारत एक व्यापक बाजार भी है और विपुल दर्शकों का देश भी है। हम खेलप्रिय देश भी हैं और करोड़ों लोग टीवी पर भी खेलों के विभिन्न मैच देखते रहे हैं। भारत में फिलहाल एकदिनी क्रिकेट का विश्व कप जारी है। दरअसल भारत का बुनियादी ढांचा किसी भी विकसित देश से कम नहीं है। हमारे देश में राजमार्गों और सडक़ों का व्यापक और समुन्नत ढांचा है। बड़े शहर आपस में जुड़े हैं। सुंदर और व्यवस्थित होटल हैं। निर्बाध आवागमन के साधन हैं। खेल मंत्रालय के अधीन प्रशासन और प्रबंधन की अच्छी-खासी व्यवस्था है। भारतीय ओलंपिक समिति और राष्ट्रीय खेल संघों की स्वायत्तता है। हालांकि उनमें पेशेवर सुधारों की गुंजाइश है। विभिन्न खेल संघों का ‘राजनीतिक चेहरा’ बदलना है। हालांकि ये भी हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के ही हिस्से हैं। सारांश यह है कि भारत को ओलंपिक खेलों की मेजबानी क्यों नहीं मिलनी चाहिए? हाल ही में चीन में सम्पन्न एशियाई खेलों में 28 स्वर्ण पदकों समेत कुल 107 पदक जीत कर भारत चौथे स्थान पर रहा, लिहाजा खेलों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता, मेहनत और जुनून स्पष्ट हैं। हमारे खिलाडिय़ों ने विश्व कीर्तिमान भी स्थापित किए हैं। हॉकी में हम पुरानी ताकत बनते जा रहे हैं और एशियाई खेलों के ‘चैम्पियन देश’ हैं। अलबत्ता यह भी हकीकत है कि टोक्यो ओलंपिक में भारत पदकों की तालिका में 48वें स्थान पर रहा।
वह भी कुछ बेहतर प्रदर्शन था, क्योंकि चार लंबे दशकों के बाद हमारा खिलाड़ी एथलेटिक्स में स्वर्ण पदक जीत सका था। बहरहाल खेल के अतिरिक्त भारत ने जी-20 देशों की अध्यक्षता करते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साबित कर दिया कि वह ऐसी पेचीदा, सुरक्षात्मक, समयबद्ध और सफल मेजबानी करने में भी सक्षम है। दुनिया के लगभग सभी बड़े देशों के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री नई दिल्ली में आए थे। इस संदर्भ में मुंबई में आयोजित अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति की बैठक महत्वपूर्ण है, जिसके मंच पर प्रधानमंत्री मोदी ने 2036 के ओलंपिक खेलों की मेजबानी करने की इच्छा व्यक्त की और पेशकश भी की। उन्होंने इस मेजबानी को 140 करोड़ भारतीयों की भावना और महत्वाकांक्षा से भी जोड़ा। हालांकि ओलंपिक खेल अधिकतर महानगरों और बड़े शहरों में ही आयोजित किए जाते रहे हैं, जिनका सीधा असर अल्पविकसित शहरों के पुनरोद्धार और कुल मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। फिर भी ओलंपिक खेलों की मेजबानी हमारे लिए सपना है, चुनौती है और मील पत्थर भी है, क्योंकि इसमें कई पूर्वाग्रह भी जुड़े हैं। भारत के लिए मानवाधिकार और सहिष्णुता संबंधी धारणाएं भी हैं। हमारी कुछ परंपरागत बंदिशें हैं, जो अंतरराष्ट्रीय खिलाडिय़ों के अनुकूल नहीं हैं।
क्या उन बंदिशों को हटाया जा सकता है? ओलंपिक खेलों का ही नहीं, वैश्विक सभ्यताओं, संस्कृतियों और नस्लों का आयोजन भी है, लिहाजा हमें अधिक सहिष्णु और मिलनसार भी बनना है, क्योंकि दुनिया हमें किसी सूक्ष्मदर्शी आंख से देख और आंक भी रही होगी। पर्यावरण, स्वच्छ वायु, स्थिरता और टिकाऊपन आदि भी ओलंपिक खेलों की नई शब्दावली है। बहरहाल इस संदर्भ में भारत की मौजूदा स्थिति बेहतर हुई है, लेकिन अब भी कई सवाल हैं। राजधानी में ही प्रदूषण के हालात किसी ‘गैस चैंबर’ सरीखे होते जा रहे हैं। बहरहाल एक ओलंपिक की मेजबानी करना अनेक बाधाओं वाली मेरॉथन दौड़ के समान है। यदि हमारी सरकार ने संकल्प ले लिया है और वह इस बार बोली भी लगा सकती है, तो गुजरात के सबसे बड़े स्टेडियम, सबसे सम्पन्न बाजार और वैश्विक हीरा उद्योग जैसे व्यवसाय के आधार पर अपने दावे को पुष्ट करे कि भारत ओलंपिक खेल की मेजबानी करने में पूरी तरह सक्षम है।