ऑनलाइन खेल का खतरा

asiakhabar.com | October 9, 2021 | 5:27 pm IST
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-सिद्वार्थ शंकर-
मनोविश्लेषक सिगमंड फ्रायड ने कहा था कि मनुष्य का मूल स्वभाव यह है कि वह चुनौतियों को स्वीकार करता है।
फ्रायड का यह विचार ऑनलाइन खेल की जद में फंस रहे बच्चों के संदर्भ में बिल्कुल सटीक है। ब्लू ह्वेल के कारण
दुनिया में 250 से भी ज्यादा लोगों ने खुदकुशी कर ली और इनमें 90 फीसदी से भी अधिक बच्चे हैं, 13 से 17
वर्ष तक के बच्चे। समस्या सामाजिक और मनोवैज्ञानिक है, इसलिए उसका उपचार भी इन्हीं दोनों मोर्चों पर खोजा
जाना चाहिए। यह कानूनी समस्या नहीं है। इसी सोच को दर्शाते हुए गुजरात ने ऑनलाइन गेम पर प्रतिबंध लगा
दिया है। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम बच्चों को ऑनलाइन खेल से दूर रखें। अब लोगों में वैज्ञानिक समझ भी
बढऩे लगी है और इंटरनेट भी सर्वसुलभ हो गया है। ऑनलाइन खेल की बढ़ती लत को हमारी आदत ने ही बढ़ावा
दिया है। ब्लू ह्वेल से पहले भी कई खेल हैं, जिसने पूरे समाज को संकट में डाला हो। ऐसा ही एक गेम है, 'साल्ट
एंड आइस चैलेंज"। इससे बच्चे अपने शरीर के किसी हिस्से पर नमक डालते हैं और फिर उसी के ऊपर बर्फ का
एक टुकड़ा रख लेते हैं। यह गेम जानलेवा तो नहीं है, लेकिन पीड़ादायक है। बर्फ शरीर के हिस्से को ठंडा करती है,
जिससे चमड़ी संवेदनशील होती चली जाती है और चूंकि नमक बर्फ के नीचे होता ही है, इसलिए चमड़ी में जलन
प्रारंभ हो जाती है। एक और गेम ट्यूब टेप चैलेंज है। इसमें ट्यूब टेप को शरीर पर लपेट लिया जाता है, फिर उससे
बाहर आने की कोशिश होती है और अगर ट्यूब टेप गले के आसपास कस गई तो खिलाड़ी की जान भी चली जाती
है। इससे अमेरिका में मौतें हुई भी हैं। फिर, पॉकेमॉन गो के बारे में तो हम जानते ही हैं। इसमें बच्चा अपने
मोबाइल पर गेम खेलते हुए पॉकेमॉन के बताए रास्ते पर ही चलता जाता है। वह गेम में इतना खोया रहता है कि
उसे पता भी नहीं चलता कि कब वह सड़क पर आ गया व अक्सर सड़क दुर्घटना का शिकार हो जाता है। इस
प्रकार के बहुत सारे जानलेवा गेम इंटरनेट पर हैं और वे स्मार्टफोन आदि के माध्यम से बच्चों की मुट्ठी में आ गए
हैं। अत: यह मामला कानून से बहुत ऊपर की चीज हो चुका है। सामाजिक स्तर पर इस समस्या का निदान यह है
कि बच्चों को अकेला न छोड़ें। यह सही है कि इस समय महानगरों में माता-पिता कामकाजी होने लगे हैं। अत:
बच्चों को अकेला न छोडऩे की बात करना सरल है, जबकि उसका पालन करना कठिन है।
लेकिन दादा-दादी, नाना-नानी सबसे पास होते हैं। जब कोई व्यक्ति रोजगार के लिए अपने स्थान से विस्थापित हो
जाता है, तो वह अपने बुजुर्ग माता-पिता को वहीं छोड़ आता है। कुछ लोग उन्हें वृद्धाश्रम में भेज देते हैं। यदि उन्हें
अपने ही साथ रखा जाए तो वृद्धावस्था में उन्हें सहारा मिलेगा व हमारे बच्चे भी अकेलेपन से बच जाएंगे और तब
उन्हें मोबाइल और इंटरनेट का सहारा नहीं लेना पड़ेगा। अगर कोई परिजन साथ नहीं रहता है तो मोहल्ले में जान-
पहचान बढ़ानी होगी, ताकि बच्चों में पारस्परिक मेलजोल बढ़े और वे इंटरनेट की आभासी दुनिया से बचें। इस
सामाजिक समाधान के साथ-साथ समस्या के मनोवैज्ञानिक समाधान की तरफ भी ध्यान करना होगा। मनोवैज्ञानिक
तथ्य यह है कि बच्चे ज्यों ही चलना शुरू करते हैं, त्यों ही वे चुनौतियों को स्वीकार करना सीख जाते हैं। यह गुण
उनमें 14-15 वर्ष तक बना रहता है। इस आयुवर्ग में पढ़ाई में उनके अच्छे नंबर आना, खेलों आदि में उम्दा

प्रदर्शन, सीखने की ज्यादा क्षमता आदि गुणों की वजह यही होती है कि वे इस आयुवर्ग तक कई चुनौतियों को
स्वीकार करते हैं। बच्चों को जब कोई रचनात्मक चुनौती नहीं मिलती है, तब वे ब्लू ह्वेल जैसी नकारात्मक
चुनौतियां स्वीकार कर लेते हैं। उन्हें संगीत, नई भाषा, तैराकी और नृत्य जैसी रचनात्मक चुनौतियां देकर
नकारात्मक चुनौतियों से बचाया जा सकता है। यदि यह सब नहीं किया गया तो वे नेट की शरण में बने रहेंगे, जो
उनके लिए हानिकारक है। असल में देखें तो ऑनलाइन खेल की लत दुनिया भर में मानसिक स्वास्थ्य समस्या
बनकर उभरी है। देश में इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल के कारण बच्चे और युवा ऑनलाइन खेल की लत के गिरफ्त में
आने लगे हैं। यही करण है कि भारत के एम्स और निम्हांस (राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान) सहित
करीब 16 देशों के डॉक्टरों ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को आगाह किया है और ऑनलाइन व
ऑफलाइन गेम को बीमारी का दर्जा दिए जाने की वकालत की है। संभावना है कि डब्ल्यूएचओ अप्रैल-2019 में
जारी होने वाली बीमारियों की सूची में ऑनलाइन तथा ऑफलाइन खेल की लत को भी शामिल कर ले। बीमारियों
की सूची में शामिल होने पर चिकित्सा संस्थानों में इस पर बड़े पैमाने पर शोध हो सकेगा। इसके अलावा इलाज की
नई तकनीक विकसित की जा सकेगी। यही वजह है कि आस्ट्रेलिया, चीन, जर्मनी, यूके (यूनाइटेड किंग्डम),
अमेरिका, जापान, भारत सहित 16 देशों के डॉक्टरों ने एक रिपोर्ट भी तैयार की है। भारत की तरफ से इसमें एम्स
व निम्हांस के डॉक्टर शामिल हैं। यह रिपोर्ट हाल ही में जर्नल ऑफ बिहेवियर एडिक्शन में प्रकाशित भी हुई है।


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