एक घर में दो कानून नहीं हो सकते। यदि घर नहीं चलाया जा सकता, तो दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चलाया जा सकता है? समान नागरिक संहिता पर भ्रम फैलाया जा रहा है। मुसलमानों को भडक़ाया जा रहा है, जबकि सर्वोच्च अदालत बार-बार कहती रही है कि समान नागरिक संहिता लाओ। तीन तलाक की वकालत करने वाले वोट बैंक के भूखे यह भ्रम फैला रहे हैं और समान नागरिक संहिता के रास्ते में रोड़े अटका रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 के बाद किसी भी सार्वजनिक मंच से इस मुद्दे का, पहली बार, ऐसा प्रहारात्मक उल्लेख किया है। स्पष्ट संकेत है कि प्रधानमंत्री इसे संसद में पेश कर, लागू कराने के, मूड में हैं। वह इसे ही 2024 का चुनावी मुद्दा बनाना चाहते हैं। दरअसल यह एक पुराना मुद्दा है, जिस पर ‘जनसंघ’ राजनीति करती रही थी। भाजपा बनी, तो 1989 के लोकसभा चुनाव में समान नागरिक संहिता को घोषणा-पत्र का हिस्सा बनाया गया। उसके बाद प्रत्येक चुनाव घोषणा पत्र में आश्वासन दिया जाता रहा कि भाजपा आई, तो समान नागरिक संहिता लागू करेगी। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी छह साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे और बीते नौ साल से नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री हैं, लेकिन खुद प्रधानमंत्री ने यह मुद्दा तब उठाया है, जब आम चुनाव में 9-10 माह शेष हैं। विधि आयोग ने अभी देश की जनता और धार्मिक संगठनों की राय मांगी है। एक माह का समय दिया गया है। जनता के अभिमत आएंगे, तो उन्हें संकलित करने में भी वक्त चाहिए। संसद के मानसून सत्र में विधेयक पेश करना अव्यावहारिक लगता है। शीतकालीन सत्र ही शेष है, जिसमें समान नागरिक संहिता पर बिल संसद में पेश किया जा सकता है। विपक्ष दबाव देगा कि बिल को स्थायी समिति या प्रवर समिति को भेजा जाए, ताकि व्यापक विमर्श किया जा सके। जनवरी, 2024 का बजट सत्र प्रतीकात्मक होगा। जनवरी में ही अयोध्या के श्रीराम मंदिर के एक पक्ष का उद्घाटन होना है।
भाजपा उस पर भी खूब शोर मचाएगी, क्योंकि धु्रवीकरण का वह बुनियादी मुद्दा है। जनवरी के सत्र में बजट के स्थान पर लेखानुदान पारित किया जाएगा। हमारा सवाल और सरोकार यह है कि भाजपा 15 साल की सत्ता के दौरान ‘एक देश, एक कानून’ की स्थिति नहीं बना सकी, तो आगामी 6-7 माह के दौरान समान नागरिक संहिता सरीखे घोर विवादास्पद और विभाजक मुद्दे पर कानून कैसे बनाया जा सकता है? क्या एक बार फिर यह जुमला ही साबित होगा और ऐसे संवेदनशील विषय पर चुनावी जनादेश का माहौल बनाया जाएगा? बेशक संविधान सभा में हमारे पूर्वजों ने इस विषय पर व्यापक विमर्श किया। अंतत: इसे संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत रखा गया और समान नागरिक संहिता के लिए केंद्र और राज्य सरकारों दोनों को ही अधिकृत किया गया। बाबा अंबेडकर और राम मनोहर लोहिया सरीखे संविधान विशेषज्ञ नेताओं की पैरोकारी के बावजूद माना जाता रहा है कि यह व्यवस्था हिंदू-मुसलमान को दोफाड़ करने की है। इसे तो ‘हिंदू सिविल कोड’ करार दिया जाए। आज सांसद ओवैसी भी लगभग यही जुबां बोल रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी समान नागरिक संहिता के संदर्भ में सिर्फ ‘पसमांदा मुसलमान’ का ही जिक्र किया है। क्या अन्य समुदायों को समान नागरिक संहिता की नई व्यवस्था मंजूर है? अभी तो इसका मसविदा सामने आना है। प्रधानमंत्री ने डिजिटल संवाद के जरिए भाजपा कार्यकर्ताओं का आह्वान किया कि वे पसमांदा समुदाय तक जाएं और उनके भ्रम दूर करें। प्रधानमंत्री तीन तलाक और समान नागरिक संहिता पर खासकर मुस्लिम औरतों और पसमांदा को लामबंद करके उनके वोट बटोरना चाहते हैं। दावा किया जा रहा है कि समान नागरिक संहिता का लक्ष्य मुसलमानों को निशाना बनाना नहीं है, लेकिन जब सभी कानून समरूप हो जाएंगे, तो मुसलमानों के कानूनों में ही व्यापक फेरबदल होगा।