विनय गुप्ता
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘एक देश, एक चुनाव‘ की अपनी जिद पर राष्ट्रव्यापी बहस प्रारंभ करवा दी है।
इस दिशा में पहला कदम उन्होंने 19 जून को उठाया जब देश के सभी राजनीतिक दलों का एक
सम्मेलन आयोजित किया गया। सम्मेलन में यह स्पष्ट हो गया कि इस मुद्दे पर देश बुरी तरह से
विभाजित है। आधी से ज्यादा पार्टियों ने सम्मेलन का बहिष्कार किया और जो पार्टियां शामिल हुईं उनमें
से भी अनेक ने इस प्रस्ताव का विरोध किया।
यहां सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि आखिर मोदी ‘एक देश एक चुनाव‘ की जिद पर क्यों अड़े हुए
हैं। वे इसलिए अड़े हैं क्योंकि ऐसा करके वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक प्रमुख एजेंडे को पूरा करेंगे।
संघ का यह एजेंडा बनाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर
का प्रमुख हाथ था। उनके लेखों और भाषणों के अनेक संग्रह हैं। उनमें से एक का शीर्षक है ‘‘बंच ऑफ़
थाट्स‘‘। इस ग्रंथ में बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है कि संघ का अंतिम लक्ष्य भारत को एक ‘हिन्दू
राष्ट्र‘ में परिवर्तित करना है। इस हिन्दू राष्ट्र में वे ही नागरिक के रूप में रह सकते हैं जिनकी जन्मभूमि
और धर्मभूमि भारत में है। संघ हिन्दुओं की परिभाषा में हिन्दू, जैन, बौद्ध और सिक्खों को शामिल
करता है। इसके अतिरिक्त वे लोग भी भारत में रह सकते हैं जिनके धर्म का उद्भव भारत के बाहर हुआ
है-परंतु दोयम दर्जे के नागरिक की हैसियत से। इस श्रेणी में मुसलमान व ईसाई आते हैं।
इस हिन्दू राष्ट्र का एक प्रमुख लक्षण होगा देश का एकात्म स्वरूप। हिन्दू राष्ट्र किसी भी हालत में
संघीय नहीं होगा। संघ की मान्यता है कि भारत में एकात्मक शासन प्रणाली (यूनीटरी सिस्टम) लागू
होनी चाहिए। संघ मानता है कि भारत केवल आर्यों की भूमि है। वह द्रविड़ संस्कृति और द्रविड़स्तान के
अस्तित्व को पूरी तरह नकारता है। क्या भारत को एकात्मक राष्ट्र बनाना संभव है? उत्तर स्पष्टतः है
‘नहीं‘। हमारे देश के लगभग सभी राज्यों का अपना-अपना सांस्कृतिक एवं भाषायी इतिहास है, अपनी-
अपनी परंपराएं हैं।
आजादी के बाद, पूरे देश में राज्यों के पुनर्गठन की मांग उठी। आंध्रप्रदेश के गठन की मांग करते हुए
पोट्टी रामिलू नाम के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने आमरण अनशन किया जिसके दौरान उनकी मृत्यु हो
गई। उसके बाद तेलुगू भाषी क्षेत्र में एक व्यापक आंदोलन छिड़ गया। इस आंदोलन में अनेक लोगों ने
अपनी जानें गंवाईं। इसी तरह, पंजाब के गठन की मांग करते हुए संत फतेहसिंह आमरण अनशन पर
बैठ गये। अंततः राज्यों के पुनर्गठन के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया गया। इस आयोग ने भाषा
को राज्यों के पुनर्गठन का आधार बनाया।
आयोग ने जो सिफारिशें कीं, उनमें पृथक मराठी भाषी और गुजराती भाषी राज्यों के गठन की सिफारिश
नहीं थी। इसके विरोध में महाराष्ट्र में एक बड़ा आंदोलन हुआ। इस आंदोलन में काफी खूनखराबा हुआ।
एक लंबे संघर्ष के बाद, पृथक महाराष्ट्र और गुजरात के गठन की घोषणा की गई। यदि आरएसएस
एकात्मक राष्ट्र बनाने का प्रयास करेगा तो उसके विरोध में संपूर्ण देश में उसी तरह का आंदोलन उठ
खड़ा होगा जैसा आजादी के बाद हुआ था। विरोध इतना तीव्र होगा कि देश में खून की नदियां बहेंगी और
गैर-हिंदी भाषी राज्य अपने को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर सकते हैं। इस तरह, आरएसएस का भारत को
एकात्मक देश बनाने का इरादा देश को तोड़ने वाला है।
इस गंभीर संभावित खतरे के बावजूद आरएसएस के राजनीतिक दर्शन में एकात्मक राष्ट्र की स्थापना को
महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। ‘‘बंच ऑफ़ थाट्स’’ में गोलवलकर ने एकात्मक राष्ट्र की जोरदार वकालत
की है। वे देश के संघात्मक ढांचे के विरोध करते हैं। उनका कहना है कि, ‘‘संघीय ढांचे के कारण देश में
पृथकता की भावना पैदा होती है। संघीय ढांचे के कारण ‘देश एक है’ की भावना कमजोर होती है। यदि
देश एक है की भावना को मजबूत करना है तो उसके लिये वर्तमान संघीय ढांचे को कब्र में गाड़ देना
चाहिए। अर्थात्, उन सभी राज्यों को समाप्त कर देना चाहिए जिन्हें तथाकथित स्वायत्तता प्रदान की गई
है। इस तरह के राज्यों को समाप्त करके एक ही राज्य में उनका विलय कर देना चाहिए।’’
सबसे पहले गोलवलकर संविधान की प्रासंगिकता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। आरएसएस भारत के संघीय
ढांचे के विरूद्ध क्यों है, इसका अंदाजा गोलवलकर की पुस्तक ‘‘विचार नवनीत’’ (बंच ऑफ़ थाट्स) के
एक अध्याय, जिसका शीर्षक ‘‘एकात्मक शासन की अनिवार्यता’’ है, को पढ़ने से लग जाएगा। इस
अध्याय में एकात्मक शासन तुरन्त लागू करने के उपाय सुझाते हुए गोलवलकर लिखते हैं-‘‘इस लक्ष्य की
दिशा में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी कदम यह होगा कि हम अपने देश के विधान से संघीय ढांचे की
सम्पूर्ण चर्चा को सदैव के लिए समाप्त कर दें, एक राज्य के, अर्थात् भारत के, अन्तर्गत अनेक स्वायत्त
अथवा अर्द्धस्वायत्त राज्यों के अस्तित्व को मिटा दें तथा एक देश, एक राज्य, एक विधानमण्डल, एक
कार्यपालिका घोषित करें। उसमें खण्डात्मक, क्षेत्रीय, साम्प्रदायिक, भाषाई अथवा अन्य प्रकार के गर्व के
चिन्ह भी नहीं होने चाहिए एवं इन भावनाओं को हमारे एकत्व के सामंजस्य का ध्वंस करने का मौका
नहीं मिलना चाहिए। संविधान का पुनः परीक्षण एवं पुनर्लेखन हो, जिससे कि अंग्रेजों द्वारा किया गया
तथा वर्तमान नेताओं द्वारा मूढ़तावश ग्रहण किया हुआ कुटिल प्रचार कि हम अनेक अलग-अलग
मानववंशों अथवा राष्ट्रीयताओं के गुट हैं, जो संयोगवश भौगोलिक एकता एवं एक समान सर्वप्रधान
विदेशी शासन के कारण साथ-साथ रह रहे हैं, इस एकात्मक शासन की स्थापना द्वारा प्रभावी ढंग से
अप्रमाणित हो जाए।’’
गोलवलकर, जिन्हें सत्तासीन भाजपाई नेता अपना गांधी मानते हैं, ने सन् 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद
की प्रथम बैठक को भेजे गए अपने संदेश में भारत में राज्यों को समाप्त करने का आव्हान करते हुए
कहा था, ‘‘आज की संघात्मक (फेडरल) राज्य पद्धति, पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण
करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है।
इसको जड़ से ही हटाकर तदानुसार संविधान शुद्ध कर एकात्मक शासन प्रस्थापित हो।’’
आरएसएस, संघीय व्यवस्था से कितनी नफरत करता है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है
कि गोलवलकर महाराष्ट्र राज्य के निर्माण के न केवल घोर विरोधी थे बल्कि एक राजनीतिज्ञ की तरह वे
नए राज्य के निर्माण के खिलाफ आयोजित सम्मेलनों में धुआंधार भाषण देते थे। बम्बई में प्रान्तीयता
विरोधी सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए गोलवलकर ने कहा था, ‘‘मैं एक देश, एक राज्य का समर्थन
करता हूँ। भारत में केन्द्रीय शासन होना चाहिए और शासन व्यवस्था की दृष्टि से राज्य समूह नहीं तो
क्षेत्र रहने चाहिए।’’
आरएसएस के संघीय राज्य के विरूद्ध इन उग्र विचारों को जानने के बाद यह अच्छी तरह से समझा जा
सकता है कि केन्द्र सरकार में शामिल स्वयंसेवक भारत के संघीय ढांचे को बर्बाद करने में कितनी
तन्मयता से जुटे होंगे।
गोलवलकर कहते हैं कि हमारे नेताओं को साहस दिखाना चाहिए और वर्तमान संघीय ढांचे के खतरे को
समझकर उसे समाप्त करने की योजना बनानी चाहिए।
गोलवलकर आगे लिखते हैं, ‘‘हमारी ईश्वर से प्रार्थना है कि वे हमारे देश के नेताओं को इतनी शक्ति दें
कि हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की दिशा में वे सही कदम उठाएं, ऐसा धर्म के रास्ते से ही हो सकता है। यदि
हमारा नेतृत्व ऐसा कर पाता है तो वह इतिहास में अपना स्थान बना लेगा। फिर भारत के लोग उन्हें वैसे
ही पूजेंगे जैसे शंकराचार्य को पूजा जाता
है।“
गोलवलकर यह भूल जाते हैं कि जिस दिन देश के संघीय ढांचे को कमजोर और समाप्त करने का प्रयास
प्रारंभ होगा, उसी दिन से देश के टूटने की प्रक्रिया भी प्रारंभ हो जाएगी। संभवतः ‘एक देश एक चुनाव‘
का विचार एकात्मक शासन प्रणाली स्थापित करने की भूमिका है।