सुरेंदर कुमार चोपड़ा
अयोध्या विवाद पर एक और ऐतिहासिक अदालती फैसला सुनाया गया है। दरअसल इसके साथ ही अयोध्या और
श्रीराम जन्मभूमि से जुड़े तमाम विवादों का पटाक्षेप हो जाना चाहिए। सीबीआई की विशेष अदालत ने सभी 32
आरोपियों को बरी कर दिया है। अयोध्या में 6 दिसंबर, 1992 को कारसेवकों ने विवादित ढांचे को ढहा दिया था।
अदालतें उस इमारत को बाबरी मस्जिद करार नहीं देतीं, लिहाजा ‘विवादित ढांचाÓ शब्द का इस्तेमाल किया जाता
रहा है। विध्वंस की उस महाघटना के 28 लंबे सालों के बाद सीबीआई की विशेष अदालत ने जब फैसला सुनाया,
तब तक उस आंदोलन के 17 ‘सूरमाÓ दिवंगत हो चुके थे और अधिकतर चेहरे प्रासंगिक नहीं रहे हैं।
आंदोलन के शीर्ष रथी एवं पूर्व उपप्रधानमंत्री 92 वर्षीय लालकृष्ण आडवाणी, तत्कालीन उप्र मुख्यमंत्री 88 वर्षीय
कल्याण सिंह, भाजपा के पूर्व अध्यक्ष एवं हिंदूवादी विचारक डा. मुरली मनोहर जोशी आज राजनीतिक तौर पर
अप्रासंगिक हैं और निष्क्रिय भी हो चुके हैं, लेकिन आडवाणी ने इस फैसले को ऐतिहासिक और खुशी का पर्व माना
है। उनके आवास के बाहर लड्डू भी खिलाए गए। यकीनन संघ परिवार के लिए यह आध्यात्मिक और नैतिक जश्न
और उल्लास का अवसर है। डा. जोशी ने ‘जय श्रीराम’ के नारे के साथ कहा कि ‘सबको सन्मति दें प्रभु राम।’
बहरहाल आपराधिक साजिश, राष्ट्रीय सद्भाव बिगाड़ने के आरोपों के एक बेहद संवेदनशील मामले में विशेष
अदालत ने न्यायिक फैसला सुनाया है, लिहाजा वह दस्तावेजी और ऐतिहासिक है। अब कई भ्रम टूट सकते हैं, कई
राजनीतिक कलंक धुल सकते हैं और कुछ कानून की भूमिका पर संतोष जताते हुए राजनीतिक चुप्पी धारण कर
सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने जिस फैसले में रामलला को विवादित भूखंड देने का आदेश दिया था, उसमें
विवादित ढांचे को ढहाने की घटना को ‘दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक’ करार दिया था।
शायद उसी सोच के मद्देनजर मुस्लिम पक्ष को, मस्जिद बनाने के लिए, 5 एकड़ जमीन देने का भी फैसला
सुनाया था। इस नजरिए से यह अदालती फैसला बेहद महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह अयोध्या विवाद का पटाक्षेप करता
है। हालांकि इतने सालों के दौरान यह सवाल राजनीति करता रहा कि 6 दिसंबर, 1992 की महाघटना क्यों हुई?
विवादित ढांचे का विध्वंस एक आपराधिक साजिश थी और वह अपराध किन स्तरों पर हुआ, इसकी विवेचना भी
जरूरी थी। इन सालों में सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के दो हिस्सों में हमारी सियासत भी बंट गई थी। आज
सब कुछ बेमानी और पूर्वाग्रही लग रहा है। हालांकि विरोधी पक्ष अब भी शांत बैठेगा, ऐसा लगता नहीं। 1992 के
हादसे के बाद सीबीआई और लिब्रहान आयोग से यह मामला गुजरा है। अदालत में करीब 600 दस्तावेज पेश किए
गए हैं और 351 गवाह दर्ज किए गए। अदालत में 26 आरोपी मौजूद रहे। बहरहाल विशेष अदालत के जज
एस.के.यादव ने फैसले का सारांश पढा, तो तमाम आरोप खंडित होते चले गए। जज का फैसला था कि अयोध्या में
वह घटना अचानक हुई। वह पूर्व नियोजित नहीं थी। अचानक अराजक तत्त्वों की भीड़ आई और उसने ढांचा तोड़ा।
सभी आरोपियों ने ढांचा बचाने की कोशिशें कीं, लेकिन वे नाकाम रहे। जज ने कहा कि अभियोजन पक्ष मजबूत
साक्ष्य पेश नहीं कर पाया। किसी तस्वीर और वीडियो के जरिए किसी को आरोपी नहीं माना जा सकता, लिहाजा
साक्ष्य के तौर पर वे स्वीकार भी नहीं किए जा सकते। अदालती फैसला करीब 2300 पन्नों का है। इसी के साथ
सभी आरोपी बरी कर दिए गए।
इस तरह तत्कालीन केंद्र सरकार और जांच एजेंसियों ने 120-बी के तहत आपराधिक साजिश, भीड़ को उकसाने,
उन्माद और उत्तेजना तथा राष्ट्रीय भाईचारा बिगाड़ने सरीखे जो गंभीर आरोप लगाए थे या थ्योरी गढ़ी गई थी, आज
वह बिलकुल नाकाम साबित हुई है। इस फैसले से रामभक्तों, साधु-संतों और संघ परिवार के नेताओं का प्रसन्न
होना स्वाभाविक था, क्योंकि अयोध्या में श्रीराम का भव्य मंदिर बनाना उनका आंदोलन था। वह आस्था भी थी
और एक राजनीतिक धु्रवीकरण का आधार भी था। उसके पूर्णत्व के लिए विवादित ढांचे के खंडहरों का ‘मलबा’
किया जाना जरूरी था। लिहाजा इस अदालती फैसले के बाद कुछ भाजपाई नेताओं, साधुओं, आचार्यों और समर्थकों
ने उद्घोष करना शुरू कर दिया है-अयोध्या तो झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है। संयोग है कि आज मथुरा में
श्रीकृष्ण जन्मभूमि को लेकर और ईदगाह मस्जिद के खिलाफ अदालती केस शुरू हुआ है। साफ है कि मथुरा और
काशी में कृष्ण और शिव भगवानों के तोड़े गए मंदिरों और उस जमीन पर इस्लामवादियों के अतिक्रमण का नया
अध्याय भी बहुत जल्दी सामने आ सकता है।