विकास गुप्ता
भाद्रपद शुक्ल पंचमी को सप्त ऋषि पूजन−व्रत किया जाता है। ब्रह्म पुराण में उल्लेख है कि इस दिन
स्त्रियों को प्रातः स्नान के पश्चात घर में पृथ्वी को शुद्ध करना चाहिए और वहां हल्दी से चैकोर मण्डल
बनाना चाहिए। इस मण्डल पर सप्त ऋषियों की स्थापना कर विधि विधान से उनका पूजन करें। इस
दिन व्रत के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। पुराण में बताया गया है कि सात वर्षों तक हर बार
इसी प्रकार पूजन करने के बाद आठवें वर्ष ऋषियों की सोने की सात मूर्तियां बनवाकर ब्राह्मण को दान
करने से पुण्य लाभ होता है। ये सप्तऋषि हैं-कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि तथा
वशिष्ठ।
ऐसी भी मान्यता है कि अनजाने में हुए पापों से मुक्ति पाने के लिए भी ऋषि पंचमी का व्रत किया जाता
है। इस व्रत को स्त्री पुरुष दोनों ही कर सकते हैं। यदि संभव हो तो व्रती व्यक्ति को गंगा नदी या किसी
अन्य नदी अथवा तालाब में स्नान करना चाहिये, यदि यह नहीं हो सके तो घर के पानी में गंगा जल
मिलाकर स्नान करें। इस दिन स्नान के पूर्व 108 बार मिट्टी से हाथ धोएं, हाथ मिट्टी, गोबर, पीपल के
वृक्ष के नीचे की मिट्टी, गंगाजी की मिट्टी, चंदन, तिल, आंवला, गंगाजल, गौमूत्र इत्यादि को शुद्ध जल
में मिश्रित कर हाथ पैर धोएं। 108 बार उंगली से दांत मांजें और इतनी ही बार कुल्ला करें। 108 पत्ते
सिर पर रखकर 108 लोटा जल से स्नान करें। पूजा की सब सामग्री पहले ही जुटा कर रखें और सात
केले, घी, चीनी और दक्षिणा भी रखें। बाद में इसे किसी ब्राह्मण को दान में दे दें। ऋषि पंचमी के दिन
व्रत में केवल वृक्षों के पके फल ही खाएं। अनाज, नमक, दूध, घी, चीनी इत्यादि न खाएं।
कथा:- प्राचीन काल की बात है। सिताश्व नामक राजा ने एक बार सृष्टि रचयिता भगवान ब्रह्माजी से
पूछा कि हे पितामह! सब व्रतों में श्रेष्ठ और तुरंत फलदायक व्रत मुझे बताइए और उस व्रत को करने की
विधि भी बताइए। इस पर ब्रह्माजी बोले-हे राजन! आप जिस प्रकार के व्रत के बारे में पूछ रहे हैं वह है
ऋषि पंचमी का व्रत। इस व्रत को करने से मनुष्य के सब पाप नष्ट तो होते ही हैं साथ ही उसको
मनवांछित फल भी प्राप्त होता है।
ब्रह्माजी ने राजा सिताश्व को इस बारे में एक कथा सुनाई। विदर्भ देश में एक सदाचारी ब्राह्मण रहता
था। उसका नाम उत्तंक था। उसकी सुशीला नाम की पत्नी थी जोकि बड़ी ही पतिव्रता थी। इस दंपत्ति का
एक पुत्र और एक पुत्री थी। जब ब्राह्मण की पुत्री बड़ी हुई तो योग्य वर के साथ उसका विवाह कर दिया
गया लेकिन विवाह के कुछ समय बाद ही वह विधवा हो गई। इससे ब्राह्मण दंपत्ति को बड़ा शोक हुआ
और वह अपनी पुत्री के साथ गंगा तट पर एक कुटिया डाल कर रहने लगे।
एक बार की बात है। ब्राह्मण कन्या जब सो रही थी तो अचानक ही उसके शरीर पर कई सारे कीड़े आ
गये। उसने अपनी मां को यह बात बताई तो वह चिंतित हो उठी और ब्राह्मण से कुछ उपाय करने को
कहा। साथ ही उन्होंने अपने पति से जानना चाहा कि उनकी कन्या की यह गति होने का क्या कारण है।
ब्राह्मण ज्ञानी था उसने अपने ध्यान से यह पता लगा लिया कि उसकी पुत्री की यह गति होने का कारण
क्या है। उसने अपनी पत्नी को बताया कि पूर्वजन्म में भी उनकी पुत्री ब्राह्मण कन्या ही थी। उसने एक
बार रजस्वला की अवस्था में बर्तनों को छू दिया था। इसके अलावा इसने इस जन्म में भी लोगों को
देखने के बावजूद ऋषि पंचमी व्रत नहीं किया। इसलिए इसकी यह गति हुई है और इसके शरीर पर कीड़े
आ गये हैं।
ब्राह्मण ने अपनी पत्नी को समझाते हुए कहा कि यदि यह अब भी शुद्ध मन से और विधिपूर्वक ऋषि
पंचमी का व्रत करे तो इसके सारे कष्ट दूर हो सकते हैं। यह बात सुन उनकी पुत्री ने पूरे विधि विधान के
साथ ऋषि पंचमी का व्रत किया तो उसके सारे कष्ट दूर हो गये और अगले जन्म में उसे अच्छा घर और
अच्छा पति मिला तथा वह सौभाग्यशाली स्त्री हुई और उसे सभी सुखों का भोग करने का अवसर प्राप्त
हुआ।