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विनय गुप्ता
उत्तर प्रदेश में कहने को तो चुनाव बहुकोणीय होना वाला है। लेकिन, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले
राजनीतिक परिस्थितियां बदलेंगी, ये तय है। संजय सिंह और अखिलेश यादव की मुलाकात इसका सबसे ताजा
उदाहरण कहा जा सकता है। आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के बीच हुई
मुलाकात ने उत्तर प्रदेश में एक नए राजनीतिक समीकरण की सुगबुगाहट को हवा दे दी है।हालांकि, संजय सिंह ने
अखिलेश यादव से हुई मुलाकात को 'शिष्टाचार भेंट' के तौर पर पेश किया। लेकिन, ये भी माना कि सूबे की
हालिया राजनीतिक परिस्थितियों पर चर्चा की गई। एक टी वी चैनल के दिए इंटरव्यू में आप सांसद ने गठबंधन को
लेकर किसी भी चर्चा से इनकार किया है। लेकिन, ये कहने से नहीं चूके कि उत्तर प्रदेश के 'हित' में जो होगा, हम
वो फैसला लेंगे. दरअसल, यूपी विधानसभा चुनाव 2022 का सेमीफाइनल माने जा रहे जिला पंचायत चुनाव में
पंचायत सदस्यों के मामले में भले सपा आगे रही हो। लेकिन, जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में भाजपा ने
चुनावी प्रबंधन में सपा के 'नाकों चने चबवा' दिए। प्रदेश में बसपा और कांग्रेस फिलहाल हाशिये पर हैं। हालांकि,
कांग्रेस को लेकर फिर भी कहा जा सकता है कि प्रियंका गांधी वाड्रा के चेहरे के सहारे पार्टी कुछ बेहतर प्रदर्शन कर
सकती है। लेकिन, बसपा सुप्रीमो मायावती लगातार अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने को उतारू नजर आ रही हैं।
सत्ताधारी भाजपा को निशाने पर लेने की जगह मायावती लगातार सपा पर ही हमलावर दिखती हैं. बसपा सुप्रीमो के
बयानों से लगता है कि वो अपनी पार्टी के सियासी समीकरण सुधारने से ज्यादा भाजपा के खिलाफ सपा को प्रमोट
कर रही हैं।
आम आदमी पार्टी ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में पदार्पण तो कर दिया है. लेकिन, अभी भी पार्टी की भूमिका
'वोटकटवा' से ऊपर नहीं बन सकी है। भाजपा के सामने एक मजबूत छवि वाले गठबंधन के तौर सपा और आप का
साथ आना बेहतर सियासी विकल्प हो सकता है। अगर ये गठबंधन वास्तविकता को प्राप्त कर लेता है, तो केवल
आप को ही नहीं सपा को भी काफी हद तक फायदा होगा। दरअसल, सपा और आप दोनों ही भाजपा विरोधी विरोधी
वोटों को अपने साथ लाने की कवायद में हैं। वहीं, कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने भाजपा को काफी हद तक
बैकफुट पर डाल दिया है। भाजपा से छिटके इन वोटों में बिखराव को कम करने में दोनों पार्टियों का गठजोड़ काफी
हद तक प्रभावी कहा जा सकता है।
राम मंदिर निर्माण में कथित जमीन घोटाले के आरोपों पर मुखर होकर सामने आई आप के सपा के साथ आने पर
मुस्लिम वोटरों का भरोसा और ज्यादा बढ़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। अखिलेश यादव ने
इस कथित घोटाले को लेकर ज्यादा बयानबाजी नहीं की है, जो मुस्लिम वोटों को उनसे छिटका सकती है। वहीं,
सपा और आप का ये गठजोड़ असदुद्दीन ओवैसी के संभावित प्रभाव को पूरी तरह से कमजोर करने की ताकत
रखता है। इन दोनों पार्टियों के एक साथ आने से कांग्रेस और बसपा के अपने काडर वोट तक ही सीमित हो जाने
की संभावना भी बढ़ जाएगी. कहा जा सकता है कि सपा और आप के साथ आने से 'खेला होई' का चुनावी नारा
काम कर सकता है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भाजपा को दो विधानसभा चुनाव में सीधे तौर पर मात दे चुके हैं।
केजरीवाल ने दिल्ली में मोहल्ला क्लीनिक, मुफ्त बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के सहारे लोगों के बीच
अपनी छवि को चमकाया है। केजरीवाल की 'झाड़ू' बीते पंजाब विधानसभा चुनाव से लेकर हाल ही में हुए गुजरात
निकाय चुनाव में चलता रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों के खिलाफ मुखरता से आवाज उठाने वालों में
भी अरविंद केजरीवाल का नाम शुमार है. वहीं, उत्तर प्रदेश में योगी सरकार बनने के बाद से ही अखिलेश यादव
कहते रहे हैं कि सपा सरकार के कामों का फीता काटने के लिए ही ये भाजपा सरकार सत्ता में आई है। इस बात से
इनकार नहीं किया जा सकता है कि अखिलेश यादव ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में कई बड़े प्रोजेक्ट्स को हरी झंडी
दिखाई थी। अखिलेश यादव ने खुद को काम करने वाला नेता साबित करने में काफी मेहनत की है।
बसपा और कांग्रेस के साथ गठबंधन के सियासी समीकरण आजमा चुके अखिलेश यादव चुनावी बिसात पर हर चाल
सोच-समझकर चल रहे हैं। उत्तरप्रदेश के बड़े शहरों को छोड़ दें, तो आम आदमी पार्टी प्रदेश में अपना बड़ा संगठन
तैयार नहीं कर पाई है। सपा का साथ लेना काफी हद तक उसकी मजबूरी है। अगर आप अकेले चुनाव में जाने का
मन बनाती है, तो उस पर वोटकटवा होने का ठप्पा लग जाएगा. जिसका असर पंजाब और उत्तराखंड के चुनावों पर
भी पड़ेगा। कहना गलत नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश में अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव का सियासी गठजोड़
फायदे से ज्यादा राजनीतिक मजबूरी है, लेकिन, इसका सियासी फायदा सपा और आम आदमी पार्टी दोनों को ही हो
सकता है। कहा जा सकता है कि यहां अब विधानसभा चुनाव में इतना वक्त बाकी नहीं रहा है कि आप का संगठन
खड़ा हो और पार्टी अपनी प्रभावी मौजूदगी दर्ज करा पाए. ऐसे में समाजवादियों के संगठन के बूते राज्य में शुरुआती
पैठ बनाने का ये अच्छा मौका केजरीवाल के पास है, जिसका लाभ उसे मिलने की उम्मीद है।
तो तैयार हो जाइए, देश के सबसे बड़े प्रदेश की सबसे दिलचस्प टक्कर के लिए। वैसे भी मुकाबले में मजा तभी
आता है, जब टक्कर बराबरी की हो। ये वक्त टीमों के वार्मअप, नेट प्रैक्टिस और आखिरी प्लेइंग इलेवन तैयार
करने का है. जिसमें टीमें बखूबी जुट चुकी हैं। इसी कड़ी में अखिलेश ने अपनी टीम में केजरीवाल को जोड़ने का ट्रंप
कार्ड खेला है। सफलता मिली, तो उत्तर प्रदेश का ‘खेला’ मारक भी होगा और दिलचस्प भी।