ईवीएम पर आरोप से गिरता मतदाता का मनोबल

asiakhabar.com | April 28, 2019 | 3:53 pm IST
View Details

मतदाता बड़ी उम्मीद से अपने मनपसंद उम्मीदवार को वोट दान करता है पर जब वह उन अफवाहों पर
गौर करता है कि उनका दिया मत किसी को चला गया तो उसके विश्वास को गहरा आघात पहुंचता है।
इसलिए जरूरत इस बात की है इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) पर आरोप लगाने से पहले समूचे
विपक्ष को वोटर्स की आकांक्षाओं और उनके अटूट विश्वास को ध्यान में रखना चाहिए।

एक प्रचलित कहावत है 'नाच न जाने आंगन टेढ़ा'। इसका अर्थ होता है अपनी विफलता को स्वीकार न
करके दोष दूसरों पर डाल देना। कमोबेश, ऐसी स्थिति कुछ वर्षों से देखने को मिल रही है, जब किसी
चुनाव में विपक्ष को हार का मुंह देखना पड़ता है तो सीधा आरोप ईवीएम पर लगाया जाता है। पराजय
के बाद उनका प्रत्यक्ष रूप से आरोप होता कि सत्तापक्ष ने चुनाव के दौरान ईवीएम में गड़बड़ी कर उसे
हैक किया। दिलचस्प यह है कि हर बार विपक्षी दलों को अपने ही आरोपों पर मुंह की खानी पड़ी है।
17वीं लोकसभा के चुनाव के तीन चरण पूरे हो चुके हैं। चौथे चरण का मतदान सोमवार को है। इस बीच
सत्ता से बाहर बैठे सियासी दलों ने ईवीएम का जिन्न फिर बोतल से बाहर निकाल दिया है। इस बार भी
उनका वही पुराना आरोप है कि लोकसभा चुनाव में ईवीएम में गड़बड़ी की जा रही है।
दरअसल बार-बार ऐसे आरापों से लोग पक चुके हैं। बिना सबूत के आरोप से विपक्षी दल लगातार
बेनकाब हो रहे हैं। मगर फिर भी बाज नहीं आ रहे। ईवीएम की हैकिंग या री-प्रोग्रामिंग नहीं की जा
सकती। इसके पुख्ता प्रमाण चुनाव आयोग सभी सियासी दलों को दे चुका है। दो वर्ष पहले आम आदमी
पार्टी ने चुनाव आयोग को चुनौती दी थी कि वह ईवीएम को हैक करके दिखा सकती है। आयोग ने
चुनौती को स्वीकार करते हुए तारीख और जगह मुकर्रर कर उन्हें ऐसा करने को कहा था। हैरानी है तब
कोई नहीं गया। सवाल उठता है, जब आप चुनाव जीतते हो, तब ईवीएम सही हो जाती है और हारने पर
आपको लगता है कि मशीन के साथ छेड़छाड़ की गई है। यही विरोधाभास आरोप लगाने वालों को कटघरे
में खड़ा करता है। हां, इतना जरूर है मशीनें मानवनिर्मित हैं, इस लिहाज से पोलिंग के दौरान खराब होने
की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। मगर हैकिंग के आरोप हर बार की तरह निराधार ही कहे
जाएंगे।
2006 में चुनाव आयोग ने दिल्ली स्थित अपने मुख्यालय में जब ईवीएम के इस्तेमाल को लेकर सभी
सियासी पार्टियों की बैठक बुलाई थी, तब किसी ने विरोध नहीं किया था। आयोग ने उस वक्त बकायदा
सभी बड़े नेताओं को मशीनों में प्रयुक्त होने वाली डिवाइस और प्रोग्रामिंग आदि से रू-ब-रू कराया था।
देखा जाए तो ऐसी कोई पार्टी नहीं है जिसने ईवीएम पर सवाल न उठाए हों। भारतीय जनता पार्टी
(भाजपा) जब विपक्ष में थी तो उसने भी कांग्रेस पर आरोप लगाए थे। दरअसल सत्ता से बाहर रहने के
बाद आरोप लगाना सभी के लिए आसान हो जाता है। लेकिन सच्चाई यही है ईवीएम एकदम सुरक्षित
और निष्पक्ष काम कर रही हैं। ईवीएम के इस्तेमाल से कागजों और समय की सबसे ज्यादा बचत हो रही
है। अब तो बिना ईवीएम के चुनाव कराने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वह जमाना याद करिए
जब पोलिंग बूथों पर दबंग कब्जा करके मतदाताओं से अपने लिए वोट कराते थे। कहना न मानने पर
हिंसा करते थे। बूथ लूटे जाते थे। ऐसी स्थिति दोबारा न बने, इसलिए ईवीएम ही उपयुक्त हैं। बहुजन
समाज पार्टी प्रमुख मायावती, समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव, आम आदमी पार्टी के संस्थापक
अरविंद केजरीवाल और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सरीखे कुछ नेता ऐसे हैं जो लगातार
ईवीएम पर सवाल उठा रहे हैं।

हैरानी है 2012 में अखिलेश सिंह यादव को उत्तर प्रदेश में प्रचंड बहुमत के साथ एक तिहाई सीटें मिलीं,
तब उन्होंने कोई सवाल नहीं उठाया। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाम में वाम किले को ढहाने में कामयाब
हुईं तो वह ईवीएम पर खामोश रहीं। दिल्ली में केजरीवाल को एकतरफा जीत मिली तो उन्हें ईवीएम
अच्छी लगी। अब इनको कौन बताए, जो मशीनें उस वक्त इस्तेमाल हुई थीं, वही 17वीं लोकसभा के
चुनाव में प्रयोग की जा रही हैं। इस स्थिति से ऐसा लगता है कि जब विपक्ष मुद्दाविहीन हो जाता है तो
बेजा आरोप लगाना शुरू कर देता है। इस बार भी ऐसा ही हो रहा है।
2012 में उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार गंवाने के बाद मायावती ने अखिलेश यादव पर ईवीएम में छेड़छाड़
कराने का आरोप लगाया था और 2019 में देखिए दोनों पुरानी बात को भुलाकार लोकसभा चुनाव एक-
साथ लड़ रहे हैं। ईवीएम में कोई खराबी न आए, इसके लिए चुनाव आयोग समय-समय पर मशीनों को
आधुनिक बनाने की दिशा में काम करता रहा है। कुछ माह पहले पांच राज्यों में चुनाव से ठीक पहले भी
चुनाव आयोग ने इसके लिए टेंडर मंगाए थे। सवाल उठता है अगर मशीनों में गड़बड़ी की गई होती तो
तीन राज्यों में भाजपा की सरकारें क्यों जातीं। विपक्ष के ईवीएम पर लगातार आरोप लगाने से
मतदाताओं का मनोबल भी गिर रहा है। लोकतंत्र को जिंदा रखने और चुनाव की विश्वसनीयता के लिए
समूची सियासी व्यवस्था से एक बार फिर सोचने की दरकार है।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *