लीजिए, एक और बेटी हैवानियत की भेंट चढ़ी, इनसानियत शर्मसार हुई, निर्भया फिर याद आई,
मोमबत्तियां फिर जलीं, जुलूस निकले, बड़े-बड़े राजनीतिक वादे हुए। पूरे देश ने आग लग जाने के बाद
एक बार फिर हाथों में गैंतियां-फावड़े ले कुएं खोदने को कमर कसी। लग रहा था ज्यों अबके वे आग
लगने से पहले ही कुआं खोद कर रहेंगे ताकि आज के बाद कोई और निर्भया लचीले कानून से बचने
वालों की शिकार न हो।
सोशल मीडिया पर जमकर गुस्सा फिर उतारा गया। जैसे हमारा समाज बहुदा उतारा करता है। अब हमारे
पास अपना गुस्सा निकालने के लिए दूसरा कोई सशक्त माध्यम रह भी नहीं गया है, केवल सोशल
मीडिया के सिवाय। वैसे भी विसंगतियों से भरे समाज में सोशल मीडिया के सिवाय कहीं और गुस्सा
उतारना खतरनाक साबित हो सकता है। सो, अपना गुस्सा उतारने की परंपरा को बनाए रखने के लिए
न्याय प्रक्रिया को पारदर्शी बनाए रखने का क्रम जारी रखते हुए एक बार फिर कानून का रोना फिर से
रोया गया। फास्ट ट्रैक कोर्ट को और फास्ट करने की बात की गई। सड़क से लेकर संसद तक गरमागर्म
बहस हुई। टीवी वालों को डिबेट करने का एक और मौका हाथ लगा, एक-दूसरे के सिर जिम्मेदारी मढ़ी
गई।
आखिर जो दूसरे पर जिम्मेदारी नहीं डाल सकता था वह अपना सिर खुजलाने लगा। पर इतने सियासी,
सुव्यवस्थात्मक ड्रामों के बीच जिसकी बेटी चली गई वह तो चली गई न! बेटी तो चली गई सभ्य
समाज को उसका असली चेहरा दिखा कर। पर उसने आज के सभ्य समाज को उसका तार-तार होता
चेहरा एक बार फिर उसे दिखा दिया कि वह जिस चेहरे को बारह घंटे सभ्यता के शीशे के आगे सजाता
रहता है, वह वास्तव में इतना घिनौना है कि… पर उसे अब भी पता नहीं अपने इस चेहरे से घिन्न क्यों
नहीं आ रही? लगता है घिनौने चेहरों को अपने पास शान से रखने के ज्यों हम आदी हो गए हों। वह
अपने ही हाथों अपने इस दोगले चेहरे को नोच इससे निजात क्यों नहीं पा लेता? हमें अपने घिनौने चेहरों
से भी आखिर इतना मोह क्यों हो गया है?
कोई मन से समझे या न, पर यह अब बहुत जरूरी हो गया है कि हम बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ
सरीखे अभियानों को चलाने के साथ-साथ बिगड़ते बेटों को भी नैतिक जिम्मेदारी के पाठ पढ़ाए जाएं, उन्हें
समझाया जाए कि वे सभी महिलाओं के प्रति आदर का भाव रखें। हर बेटी-महिला उनकी मां-बहन का ही
रूप है। उपभोक्तावादी समाज में कम से कम औरतें कोई उपभोग की वस्तु नहीं हैं और जो लोग औरत
को उपभोग की वस्तु या मन बहलाने की चीज मानकर उनके साथ ऐसे घिनौने कृत्यों को अंजाम देते हैं
उनके लिए समाज एवं कानून का रवैया बहुत सख्त होना चाहिए वास्तव में। केवल कागजों में कानून
बनाने से कानून-कानून नहीं होता। कानून, नियम की सार्थकता उसके लागू होने में होती है और वह भी
प्रभावशाली ढंग से। हमारे समाज को यह मान लेना चाहिए कि समाज में बेटी होना या औरत होना कोई
अपराध नहीं है। मेरे सभ्य समाज का कैसा कानून है जहां अमानवीय कृत्य करने वालों के मानवीय
अधिकारों की बात की जाती है।
यह तय मानिए कि जब तक हम एक समाज के रूप में ऐसा करने में असमर्थ रहेंगे, तब तक यूं ही बेटी
बचाओ, बेटी पढ़ाओ का हर अभियान मात्र एक नारा बनकर रह जाएगा, समाज का मुंह चिढ़ाता हुआ।
स्वच्छ एवं वैचारिक तौर पर समृद्ध भारत के निर्माण के आह्वान के लिए जरूरी है कि हर देवी! मां!
सहचरी! प्राण, किसी भी घर-समाज में अपराधों की शिकार न हों , उसे कहीं भी, कभी भी मौके के रूप
में न देख कर इनसान के तौर पर देखा जाए और जब तक हम ऐसे समाज में ऐसी मानसिकता का
निर्माण नहीं कर लेते, तब तक बड़े भारी मन के साथ मैं तो यही कहूंगी कि न आना इस देश मेरी
लाडो।