इंटरनेट की राह में हैं बड़े-बड़े गड्ढे

asiakhabar.com | July 18, 2020 | 5:03 pm IST
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सुरेंद्र कुमार चोपड़ा

बीते चार महीनों में ही न जाने कितने कामकाज वर्क फ्रॉम होम पॉलिसी के रास्ते इंटरनेट के रहमो-करम पर आ
गए हैं। ऐसे में यह जानकारी कुछ लोगों को खुश तो काफी लोगों को परेशान करेगी कि देश की कुछ टेलिकॉम
कंपनियों ने ग्राहकों को दुहने के लिए हाई स्पीड डेटा और प्रायॉरिटी सर्विस वाले ज्यादा महंगे प्लान पेश किए हैं।
अमीर ग्राहकों को ध्यान में रखकर ऊंची कीमतों पर पेश किए गए इन प्लांस के तहत बाकियों के मुकाबले बेहतर
सुविधाएं देने का वादा किया गया है। हालांकि दूरसंचार नियामक ट्राई ने फिलहाल नेट न्यूट्रलिटी का हवाला देते हुए
इन प्लान्स पर रोक लगा दी है। ट्राई ने कहा है कि इन प्लान्स की वजह से उन यूजर्स की सर्विस पर असर पड़
सकता है, जो प्रीमियम सेवाएं नहीं लेते हैं।
क्या करेगा ट्राई : इससे लगता है कि इंटरनेट की स्पीड को लेकर देश में कुछ बड़े झोल कायम हैं, जिन पर आम
उपभोक्ताओं के हित में निगाह रखना और रोक लगाना जरूरी है। लेकिन जब टेलिकॉम सेक्टर का सारा खेल गिने-

चुने बड़े खिलाड़ियों तक सिमट गया हो तो सवाल उठता है कि ट्राई आखिर कब तक ग्राहक हितों की रखवाली कर
सकेगा। हालांकि ट्राई को यह अहसास हो गया है कि ये कंपनियां अमीरों को बाकियों से बेहतर नेटवर्क और
सर्विसेज देने का इंतजाम उसी डेटा हाई-वे पर एक अलग लेन बनाकर कर रही थीं, जो स्पेक्ट्रम के रूप में एक
सार्वजनिक संसाधन का इस्तेमाल करता है। सरकारी नीलामी में मिले स्पेक्ट्रम का ज्यादा फायदा अमीरों को दिलाने
का यह मामला कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसे गरीबों की सेवा के लिए सस्ते में मिली जमीन पर बने स्कूल और
अस्पताल सिर्फ अमीरों की सेवा में लग जाएं और गरीबों को दरवाजे से ही लौटा दें। आम तौर पर कोई भी इंटरनेट
सर्विस प्रोवाइडर (आईएसपी) ग्राहकों पर यह बंदिश नहीं लगाता कि वे लिए गए प्लान का इंटरनेट पर बातचीत
करने में, विडियो देखने में या फिर आॅनलाइन खरीदारी करने में इस्तेमाल करें या फिर इन अलग-अलग कामों के
लिए अलग-अलग शुल्क दरों पर भुगतान करें। किंतु यह एक जटिल बिजनेस मॉडल है जिसकी बारीकियां हमें
चौंकाती हैं। इस बिजनेस मॉडल के तहत सर्विस प्रोवाइडरों की कोशिश यह रही है कि इंटरनेट सेवा का इस्तेमाल
करने वाले उनके ग्राहक विभिन्न तरह के डेटा प्लान के लिए अलग-अलग शुल्क चुकाएं।
एमबीपीएस वाले मॉडल में हालांकि ये कंपनियां ज्यादा तेज रफ्तार वाले इंटरनेट के लिए अलग से पैसा पहले से ही
ले ही रही हैं। इसके बावजूद हमारे देश में ग्राहकों को इंटरनेट की वह स्पीड नहीं मिलती, जिसके वे हकदार हैं। हाल
यह है कि हमारे देश में 4जी वाले इंटरनेट उपभोक्ताओं को सिर्फ 11.46 मेगाबाइट प्रति सेकेंड (एमबीपीएस) की
गति मिलती है, जो वैश्विक औसत 32.01 एमबीपीएस से काफी पीछे है। इस मामले में 140 देशों की सूची वाली
ग्लोबल रैंकिंग में भारत 128वें स्थान पर आता है। दक्षिण कोरिया इसमें शीर्ष पर है जहां ग्राहक 103.18
एमबीपीएस की गति से इंटरनेट का आनंद लेते हैं। पड़ोसी मुल्क चीन के करीब 60 मोबाइल ऐप्स पर हाल में
पाबंदी लगाई गई है। वहां भी 67.71 एमबीपीएस की स्पीड वाला इंटरनेट आम लोगों को हासिल है। विरोधाभास
कुछ और भी हैं। जैसे मुमकिन है कि कुछ संगठनों से लेकर सरकारी संस्थाओं तक को ज्यादा तेज गति वाला
कनेक्शन हासिल हो, जबकि आम नागरिक इंटरनेट की सुस्ती झेलने को त्रस्त हों। ऐसे एक गड़बड़झाले का खुलासा
2016 में हुआ था। सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर विनोद रंगनाथन नाम के शख्स ने प्रधानमंत्री कार्यालय
के बारे में एक ऐसी ही जानकारी निकलवाई थी।
इसमें पता चला था कि देश का राष्ट्रीय सूचना केंद्र प्रधानमंत्री कार्यालय को 34 एमबीपीएस की गति वाला इंटरनेट
कनेक्शन मुहैया करा रहा था, जबकि उसी दौरान देश में औसत इंटरनेट कनेक्शन की गति मात्र 2 एमबीपीएस थी।
ऐसे में सवाल यह है कि क्या देश की आम गरीब-मध्यवर्गीय जनता को बेहतर ताकत वाले सर्वर और अच्छी गति
वाले इंटरनेट की जरूरत नहीं है? बेशक साधन-संपन्न लोगों के लिए प्रीमियम प्लान्स के एवज में ज्यादा पैसा देना
कोई समस्या नहीं है, लेकिन अब तो सरकारी योजनाओं से लेकर स्कूली पढ़ाई तक यह सेवा गांव-देहात के उन
लोगों के लिए भी जरूरी हो गई है जो इंटरनेट के लिए एक भी पैसा अतिरिक्त खर्च नहीं कर सकते। ऐसे में सवाल
यह है कि जब ये कंपनियां इस पर अड़ जाएंगी कि उनके ग्राहक चुकाए गए पैसे के मुताबिक ही इंटरनेट की स्पीड
हासिल कर पाएंगे, तब क्या किया जाएगा? इंटरनेट को इस तरह बांधना किसी भी इंटरनेट सेवा प्रदाता के लिए
मुश्किल नहीं है क्योंकि वे फिल्टर लगाकर आसानी से ऐसी व्यवस्था कर सकते हैं। यही वे बातें हैं जिनके चलते
पिछले कुछ वर्षों में देश में नेट न्यूट्रलिटी का मुद्दा चर्चा में आया और संबंधित मामले दूरसंचार नियामक

प्राधिकरण (ट्राई) के पास पहुंचे। मोटे तौर पर अभी तक देश में इंटरनेट का मौजूदा सिस्टम उपभोक्ता हितों के
अनुरूप ही रहा है लेकिन इस सिस्टम में सेंध लगाने की प्राइवेट कंपनियों की कोशिशें लगातार जारी हैं।
पहुंच बढ़ाने पर हो जोर : आज भले ही ऐसा लग रहा है कि लाखों लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करना सीख गए हैं,
लेकिन हकीकत यह है कि देश की आधी आबादी के लिए अभी भी इंटरनेट का इस्तेमाल एक नई चीज है। इसलिए
यदि सरकार और ट्राई का अंकुश कमजोर पड़ता है और प्राइवेट टेलिकॉम कंपनियों को मनमाने ढंग से पांव पसारने
की छूट दी जाती है, तो यह अंतत: इंटरनेट के प्रसार के खिलाफ जाएगा। ज्यादा जरूरी यह है कि इंटरनेट को
समाज के निचले स्तर तक पहुंचाने की कोशिश की जाए। निश्चय ही यह काम मुफ्त में नहीं हो सकता, लेकिन
इस क्रम में व्यापक आधार वाला वह कारोबारी मॉडल तो खड़ा किया ही जा सकता है जिसमें नेट न्यूट्रलिटी के
नियम-कायदे खारिज न होते हों।


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