-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
जीवन के रागात्मक पक्षों में अध्यात्म का सर्वोच्च महात्व है। ज्योति और परम सत्ता को सभी विभिन्न जीवन शैलियों ने एक स्वर में स्वीकार किया है किन्तु सम्प्रदायों के मध्य चल रही खींचातानी, वर्चस्व की जंग और कट्टरता के प्रदर्शन ने वास्तविक धर्म और धर्म गुरुओं के वचनों के मायनों को हाशिये पर पहुंचाना शुरु कर दिया है। कहीं हिन्दू राष्ट्र की मांग उठ रही है तो कहीं इस्लाम की परम्पराओं को थोपने का षडयंत्र चल रहा है। कहीं खालिस्तान की वकालत करने वाले खूनी जंग छेडने की घोषणायें कर रहें है तो कहीं पाश्चात्य मिशन का साम्राज्य स्थापित करने के प्रयास हो रहे हैं। जीवन पध्दति को प्रभावित करने वाले कारकों को निजता से खींचकर सामूहिकता की दहलीज पर पहुंचा दिया गया है। अजान की आवाज पर इबादत में भागने वालों को शंख और घंटों की आवाजों से परहेज हो रहा है और ऐसा ही प्रतियोत्तर दूसरे पक्ष भी देने लगा है। गुरुवाणी के स्वरों पर प्रार्थना की आपत्ति दर्ज होने लगी है। इन सब के पीछे चन्द षडयंत्रकारियों की वो हरकतें उत्तरदायी हैं जो विदेशी आकाओं के इशारे पर राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और संप्रभुता को नस्तनाबूत करने में लगीं है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि समान जीवन शैली अंगीकार करने वालों के मध्य भी ऊंच-नीच की व्यवस्था को जन्म, मान्यताओं, आर्थिक स्थिति, सामाजिक रुतवा, लोकप्रियता जैसे कारकों से आधार पर प्रभावित करना कहां तक उचित है। आस्था के सभी केन्द्रों में विशेष दानदाताओं, राजनैतिक ओहदेदारों, अधिकारियों आदि के लिए अलग से व्यवस्था की जाती है। आम आवाम को दोयम दर्जे का मानकर पंक्तिवध्द होकर अन्दर पहुंचने पर कुछ क्षणों के लिए ही आराध्य को निहारने का मौका दिया जाता है जबकि विशेष प्रबंध के साथ लाव लश्कर लेकर पहुंचने वाले विशिष्ठजनों की आवभगत में आस्था के केन्द्र का पूरा तंत्र ही हाथ बांधे खडा हो जाता है। परमात्मा के दरवाजे भी भेदभाव के साथ श्रध्दालुओं के लिए खोले और बंद किये जाने लगेे हैं। पंक्तियां छोटी – बडी हो जातीं हैं। घंटों लाइन में चलने के बाद लक्ष्य तक पहुंचने वाले आस्थावानों को भीड का हिस्सा बनाकर धक्का देने वाला तंत्र ही विशिष्ट व्यक्तियों के सामने गुलाम बनकर खडा रहता है। लम्बी दूरी तय करके उधार के पैसों से आस्था से जुडी मान्यताओं को पूरा करने हेतु पहुंचे मेहनतकश को दिये जाने वाले धक्के निश्चय ही वहां मौजूद परम तत्व को निश्चय ही स्वीकार नहीं होंगे। पक्षपात करने वाली व्यवस्था को अनेक आस्था स्थलों ने अपने संविधान में भी शामिल कर लिया है ताकि संस्था के निजी संविधान की आड में अफसरों, नेताओं, पूंजीपतियों, भारी दानदाताओं, भाई-भतीजों को सुविधायें देकर व्यक्तिगत संबंधों का दायरा बढाया जा सके। साम्प्रदायिक संस्थाओं के व्यवस्था तंत्र में गुटबाजी का मकडजाल फैलता जा रहा है जो व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति के आरोप-प्रत्यारोप को निरंतर प्रचारित करके स्वयं को समर्पित कार्यकर्ता निरूपित करने में जुटा है। निजी हितों की पूर्ति में लगे लोगों के गुट किसी भी दशा में संस्था, संस्था से जुडे श्रध्दावानों तथा समाज के लिए हितकर कदापि नहीं कहे जा सकते। यही गुट अपने अहम् की पूर्ति के लिए वाक्य युध्द से लेकर रक्तरंजित आक्रमणों तक पहुंच जाते हैं। देश-दुनिया में कथित धर्म की आड लेकर षडयंत्रों को मूर्त रूप दिया जा रहा है जबकि वास्तविक धर्म तो ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुंच कर परम तत्व की प्राप्ति के उपाय करना है। सोच, सांसारिकता और संचय की प्रवृत्ति का निजीकरण होते ही वैमनुष्यता का परचम फहराने लगा है। अपने और अपनों के लाभ के अवसर तलाशे जाने लगे हैं। जन समुदाय के व्दारा अभिवादन करने को सामाजिक प्रतिष्ठा का मापदण्ड माना जाने लगा है। पैसों की चमक से भौतिक उपकरणों का ढेर लगाना ही आज सम्पन्नता का पैमाना बन गया है। संविधान के विपरीत खुलेआम काम करने वाली अनुशासनहीनता का प्रदर्शन अब दबंग होने की परिभाषा बनती जा रही है। भय, लालच और मजबूरी में जकडे निरीहों को सोने के सिंहासन पर बैठे रुतवेदारों के सामने गिडगिडाते हुए अक्सर देखा जाता है। थाना, कचहरी और संवैधानिक तंत्र से समानान्तर दबंगों की निजी सत्ता चल रही है। यह सत्ता आस्था के नाम पर श्रध्दावानों की भीड जुटाकर पैसों की चमक से नेतृत्व पर कब्जा कर लेती है और फिर शुरू हो जाती है तुष्टीकरण की व्यवहारिक परिणति। श्रध्दावानों के कथित मुखिया के रूप में स्थापित होते ही दबंग व्दारा आस्था के केन्द्र का प्रमुख पद हथिया लिया जाता है। बस यहीं से शुरू हो जाता है श्रध्दावानों को बरगलाने का सिलसिला। कहीं आक्रान्ताओं के जुल्मों की दास्तानें सुनाकर आक्रोशित वातावरण का निर्माण होता है तो कहीं लम्बे समय तक सुल्तान के रूप में स्थापित रहने वालों को अपने अतीत की वापसी का पाठ पढाया जाता है। कहीं पाश्चात्य मान्यताओं को थोपने हेतु धन की चमक फैलाई जाती है तो कहीं छल-बल-दल के साथ सब्जबाग दिखाने का तूफानी प्रयास होता है। आस्था के केन्द्रों में फैलता विशिष्टता का जहर अब घातक स्थिति पर पहुंच चुका है। इन केन्द्रों में जब तक आगन्तुकों को एक भाव से नहीं देखा जायेगा तब तक महापुरुषों, परमात्मा के संदेश वाहकों और पुत्रों के वचनों के प्रभाव परिलक्षित हो ही नहीं सकते। आक्रान्ताओं की विभाजनकारी नीतियों को आस्था के केन्द्रों पर लागू करके आपसी सौदार्य के वातावरण को कब्र में पहुंचाने वालों की संख्या में निरंतर इजाफा होता जा रहा है। विश्वास को अंध विश्वास में, श्रध्दा को अश्रध्दा में और धार्मिकता को अधार्मिकता में परिवर्तित करने के कुप्रयास निरंतर हो रहे हैं। आस्था के केन्द्रों को बिना पैसे का व्यवसाय बनाने वालों ने अब अपने साथ खद्दर, खाकी और खतरों को शामिल करना शुरू कर दिया है। इन तीनों का उपयोग करने वाला पर्दे के पीछे से सक्रिय होकर विश्व गुरू की पदवी पर पुन: आसीन होने वाले राष्ट्र को समाप्त करने में एक साथ जुट गये हैं तभी तो बेटों की कुर्बानियां देने वालों के कुछ कथित अनुयायी आज कुर्बानियां लेने वालों के चन्द सिक्कों पर जीभ लपलपा रहे हैं। देश, धर्म और समाज के लिए जान निछावर करने वालों की इबारतों पर कथित ठेकेदारों ने कब्जा करके अपनी व्याख्यायें पेश करना शुरू कर दी है। ऐसे में आम आवाम के जागरूक हुए बिना सकारात्मक परिणाम आना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। इस सप्ताह बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।