आसाराम को मिली सजा से सबक मिलेगा सभी ढोंगी बाबाओं को

asiakhabar.com | April 27, 2018 | 5:28 pm IST
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जो लोग खुद को कानून से ऊपर समझते हैं, बापू आसाराम को मिली उम्रकैद की सजा उनके लिए सबक है। नाबालिग से बलात्कार के आरोप में सजा पाने वाले आसाराम के मामले में अदालत ने यह साबित कर दिया है कि अपराधी चाहे, किसी भी जाति, धर्म, सम्प्रदाय का हो या फिर चाहे उसकी हैसीयत कैसी भी हो, सजा से बच नहीं सकता। आसाराम ने सजा से बचने के लिए भरसक प्रयास किया। एक अधिनस्थ अदालत के जज के सामने देष के नामी−गिरामी वकीलों की फौज खड़ी कर ली। इसके बावजूद अदालत प्रभावित नहीं हुई। जज ने कानून के मुताबिक जो फैसला हो सकता था, वही किया। ऊपरी दबावों और प्रभावों से अदालत के निर्णय पर कोई असर नहीं पड़ा।

यह अंध आस्थाओं पर अदालत की जीत की मोहर है। आसाराम ने बीमारी और दूसरे कारणों से कई बार जमानत की अर्जी लगाई। अधिनस्थ अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने अर्जी हर बार खारिज कर दी। इससे जाहिर है कि अपराध और हालात इतने संगीन थे कि अभियुक्त को विभिन्न स्तरों पर अदालतों ने जमानत देने लायक भी नहीं समझा। इस मुकदमे में कई महत्वपूर्ण गवाहों की हत्या हो गई। कई गवाहों ने अपने बयान बदल दिए। किन्तु पीड़िता और उसका परिवार टस से मस नहीं हुआ। इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है कि पीड़िता के परिवार ने स्वयंभू आध्यात्मिक गुरु से लड़ाई लड़ कर कैसे न्याय हासिल किया होगा? पीड़िता और उसके परिवार पर हमले हुए, कई बार धमकियां मिलीं। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी। अदालत ने हर तरह से पीड़िता और उसके परिवार की सुरक्षा का बंदोबस्त किया।
समर्थकों के उत्पात के अंदाजे से अदालत ने जोधपुर जेल में ही अदालत लगाकर फैसला सुनाया। केन्द्र सरकार ने इससे पहले ही राजस्थान सहित चार राज्यों की सरकारों को सुरक्षा के बंदोबस्त करने के लिए आगाह किया था। पूर्व में भी समर्थकों ने कई पेशियों के दौरान जमकर उत्पात मचाया था। अदालत को अंदाजा था कि अंधभक्त किसी भी हद तक जा सकते हैं। यहां तक कि पूर्व में मीडिया को भी नहीं बख्शा गया। समर्थकों ने पहले भी कई बार कवरेज करने आए मीडियाकर्मियों से मारपीट की। उनके कैमरे, वाहनों और उपकरणों को नुकसान पहुंचाया। इस मामले में मीडिया की जितनी तारीफ की जाए, कम है।
समर्थकों की तोड़फोड़ और मारपीट के बावजूद मीडियाकर्मियों ने बगैर डरे अपनी ड्यूटी को पूरी निष्ठा और ईमानदारी से अंजाम दिया। इससे पहले भी ऐसे बाबाओं का चोला उघाड़ने पर मीडियाकर्मी निशाना बनते रहे हैं। रामरहीम, रामपाल और ऐसे दूसरे बाबाओं के समर्थकों के आसान टारगेट मीडियाकर्मी रहे हैं। आसाराम की तरह राजनेताओं के भी समर्थकों की भारी संख्या होती है। नेताओं को जब गैरकानूनी कामों के अपराध में जेल भेजा जाता है, तब भी ऐसे ही हालात होते हैं। लालू यादव को चारा घोटाले में सजा सुनाने के बाद समर्थकों ने भी कम उत्पात नहीं मचाया था। जिसे सजा मिलती है, वह उसे षड़यंत्र का हिस्सा बताने से नहीं चूकते।
दरअसल आसाराम के मामले में अदालत के फैसले से ढोंगी बाबाओं और नेताओं का यह भ्रम टूट जाना चाहिए कि समर्थकों की आड़ में अदालत को प्रभावित नहीं किया जा सकता। चाहे उनकी संख्या कितनी ही क्यों न हो। बेशक उन्हें सत्ता और विपक्ष का समर्थन ही हासिल हो। अदालत के नजरिए में सब समान हैं। सब कठघरे में अभियुक्त की तरह पेश होते हैं और दोषी पाए जाने पर सजा के हकदार होते हैं। मामला एक बार अदालत तक पहुंचना चाहिए, फिर बचना आसान नहीं है। अदालतों पर कामकाज के बोझ और सुनवाई की लंबी और जटिल प्रक्रिया के कारण मुकदमों का फैसला होने में वक्त लग सकता है, पर अपराधी का बचना आसान नहीं है।
सही मायने में तो आसाराम की शह पर सर्मथकों ने ही बाधाएं खड़ी कीं। अदालत को इस बात का यकीन हो गया कि यदि एक बार आसाराम की जमानत हो गई तो मुकदमे के लिए मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। आसाराम की सजा से इस बात की उम्मीदों को बल मिला है कि जेलों में बंद दूसरे बाबाओं को बचना भी अब आसान नहीं है। जिनके खिलाफ पुख्ता प्रमाण हैं, उन्हें अपनी करनी का फल अंततः आसराम की तरह ही भुगतना पड़ेगा। संत और बाबाओं की आड़ में आपराधिक कृत्य करने वालों को कानून बख्शेगा नहीं। न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करना और उसमें किसी तरह की बाधा उत्पन्न करने वालों के लिए यह फैसला एक सबक होगा।
इतना जरूर है कि भोले−भाले भक्तों की भावनाओं को ऐसे फैसलों से ठेस जरूर पहुंचती है। उनको लगता है कि उनका आस्था पर गहरा प्रहार हुआ है। दरअसल समर्थक और भक्त अपनी समस्याओं के लिए बाबाओं को आखिरी सहारे के तौर पर मानते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी समस्याओं का समाधान मौजूदा तंत्र से नहीं होगा। ऐसे में बाबाओं की तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक है। यह आखिरी आस्था भी जब ढहने लगती है, तो समर्थकों को अंदर तक हिला देती है। उन्हें यकीन दिलाना मुश्किल होता है कि बाबा के वेश में आरोपी है, भगवान नहीं है।
अपराधी मानसिकता के ऐसे लोगों को प्रतिष्ठा दिलाने में नेता भी पीछे नहीं रहते। वोटों की राजनीति से हर दल के नेता बाबाओं का आशीर्वाद लेने के चक्कर में रहते हैं। उसकी कारगुजारियों पर तब तक आंखें फेरे रहते हैं, जब तक मामला अदालत में नहीं पहुंच जाए। आसाराम हो या दूसरे बाबा, इनकों नेताओं ने खूब संरक्षित और प्रोत्साहित किया है। सरकारें तक इनके प्रभावों से डरी−सहमी रहती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो दलों का यदि बस चले तो मुकदमा ही नहीं चलने दें। राम-रहीम और रामपाल की करतूतों की जानकारी सरकारों को रही है, पर सरकार चाहे किसी भी दल की रही हो, किसी ने कार्रवाई करने का साहस नहीं दिखाया। आखिरकार इनके मामलों में भी अदालत के आदेशों के बाद ही कार्रवाई हो सकी। यह निश्चित है कि आसाराम के फैसले के बाद राजनेताओं और आम लोगों के लिए किसी अपराधी का समर्थन करना आसान नहीं रह जाएगा। आम लोगों को भावनाओं से ऊपर उठकर विवेक सम्मत ढंग से सोचना होगा। तभी धर्म की आड़ में अपराध करने वालों के हौसले पस्त होंगे।

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