सुरेंदर कुमार चोपड़ा
सभी आमोखास को सूचित किया जाता है कि अब हम हिन्दी साहित्य में बतौर आलोचक जाने जायेंगे।
हमें हिन्दी का व्यंग्य आलोचक माना जाये। आप सबकी सुविधा के लिए घर के मुख्य द्वार पर कुत्तों से
सावधान के ऐन बगल में हमने लिखवा भी दिया है। व्यंग्य आलोचना के लिए एक बार जरूर पधारें।
आपको जानकर खुशी होगी कि हम लेखक की इच्छा के मुताबिक आलोचना लिखने का निरंतर अभ्यास
कर रहे हैं। यह मानवता के नाते किया गया कर्म माना जायेगा। यह सिद्व हो जायेगा कि राजनीति में
ही नहीं साहित्य में भी मानवता जिंदा है। लेखक के मन मुताबिक लिखकर हिन्दी आलोचना के क्षितिज
को और व्यापक करने का हमारा पुख्ता इरादा है। वचने किम् दरिद्रता- की मूल संस्कृति को मानते हुये
लेखक को परसाई और शरद जोशी की श्रेणी का सिद्ध करने की नैतिक जिम्मेवारी हमारी है।
लेखक बंधुओं से आग्रह है कि अपने पुस्तक की तीन प्रतियां हमारे पास साधारण डाक से भिजवा दिया
करें। यदि पुस्तक में एक-दो सौ के नोट छुपा दिये जायें तो पुस्तक प्राथमिकता की श्रेणी में सर्वोच्च
स्थान पा सकेगी। यदि अंक पाने हेतु इस तकनीक का सहारा बोर्ड के छात्र कर सकते हैं तो लेखक तो
बुद्धिजीवी प्राणी है। वह इशारा समझने भर समझदार तो अवश्य ही होता है। इसे रिश्वत या पारिश्रमिक
का नाम न देकर गुप्त दान कहा जा सकता है जिसे महाकल्याण की संभावना बची रहे। पुस्तक की तीन
प्रतियों हम इस हेतु मंगाते हैं क्योंकि आजकल कबार के दाम भी अच्छे मिल जाते हैं। लेखक को प्रशंसा
युक्त आलोचना मिल गई।
पाठक तो आलोचना पढ़ते नहीं हैं। अन्य आलोचक भी अपने अलावा दूसरों के द्वारा की गई आलोचना
पढ़कर अपनी धार भोथरी करना नहीं चाहते। कुल मिलाकर मेरे लिखे को केवल लक्षित लेखक ही पढ़ेगा
और अपने शत्रुओं और मित्रों को पढ़वायेगा। उसके उपरांत पुस्तक का प्रयोजन सम्पन्न हो जाता है। वह
कबारिये के कोष को समृद्ध करे तो यह राष्ट्रहित में ही होगा। लेखक बंधुओं से एक अन्य मार्मिक
अपील है। गाहे-बगाहे हमारी पुस्तकें भी धराधाम में आती रहती हैं। उनकी आलोचना एक ज्वलंत समस्या
है। यदि छद्म नाम से अपने पुस्तक की समीक्षा की भी जाये तो आनंद नहीं आता। संपादकों की उदारता
पर ही निर्भर रहना पड़ता है। यदि अपने उच्च मानवीय मूल्यों का सहारा लेकर संपादकगण प्रकाशित कर
दें तो उत्तम। कलमधारियों में यह पराश्रयता पसंद नहीं की जाती। अतः एक खुला आग्रह है कि आप मेरे
पुस्तकों की आलोचना करें मैं आपके की करूंगा। आप मेरी प्रशंसा जिस अनुपात में करेंगे लगभग उसी
या उससे कमतर अनुपात में मैं आपकी कर दिया करूंगा। समय की मांग है कि आलोचना के क्षेत्र में भी
लेखक आत्मनिर्भर हो जायें। प्रकाशन के क्षेत्र में तो प्रायः हो ही चुके हैं। अपनी पत्रिका प्रकाशित करके
अपनी रचनाओं के प्रकाशन का संकट दूर कर ही रहे हैं। अपना प्रकाशन खोलकर अपनी पुस्तकों को भी
पाठकों को ठोक रहे हैं। अपनी रचनाओं के पाठक तो स्वयं है ही।
हिन्दी साहित्य में आलोचकों का संकट हमेशा रहा है। प्रयाप्त प्रंशसा नही कर सकने की व्यक्तिगत कमी
के कारण कई स्वनामधन्य आलोचक ने अपनी दुकान का शटर गिरा दिया। जान के संकट से बचने हेतू
भी हिन्दी के आलोचक भूमिगत हो गये हैं। एक अनार और सौ बीमार की यथास्थिति बरकारर है। एक-
एक आलोचक के घर डाकिया रोज बीस किताबें ला रहा है। कई बार तो डाकिये उस क्षेत्र में नियुक्त ही
नहीं होना चाहते जहां कोई प्रख्यात आलोचक पाया जाता हो। अतः आलोचना को संकट हिन्दी पर
आगामी कुछ वर्षों तक छाया ही रहेगा। मेक इन इंडिया की तर्ज पर हमें अपनी आलोचना स्वयं करनी
होगी। आत्म निंदा से बचने हेतू आप मेरे उपयुर्क्त प्रस्ताव पर गंभीर विचार कर सकते हैं।