-डा. वरिंदर भाटिया-
हाल ही में 24 जुलाई को देश को नाखुशगवार आर्थिकी के संकटों से निकालने वाले आर्थिक सुधारों के तीस बरस
पूरे हो गए हैं। इस देश में आर्थिक सुधारों की बात हो तो पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का नजरिया
नज़रअंदाज किया जाना मुश्किल है। डा. मनमोहन सिंह को आर्थिक विषयों के विशेषज्ञ होने के कारण भारत के
आर्थिक सुधारों का जनक माना जाता है, जिन्होंने वित्त मंत्री के रूप में 1991 में इन सुधारों की नींव रखी थी। इन
सुधारों के 30 साल पूरे होने पर डा. मनमोहन सिंह ने कहा कि देश को आर्थिक प्राथमिकताएं तय करनी चाहिए
ताकि सबको स्वस्थ और गरिमामय जि़ंदगी मिल सके। उन्होंने यह भी कहा कि तीन दशक के आर्थिक सुधारों का
ही नतीजा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था तीन खरब डॉलर की हो गई और दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में
गिनी जाती है। आर्थिक सुधारों का ही नतीजा है कि 30 करोड़ लोगों को ग़रीबी रेखा से ऊपर किया गया है।
आर्थिक सुधारों के बारे में कहा गया है कि एक तत्कालीन आर्थिक संकट से निबटने के लिए आर्थिक सुधार शुरू
किए गए थे, पर उसका मूल मकसद आर्थिक विकास, संपन्नता और बेहतर जीवन हासिल करना ही था। इन सुधारों
का उद्देश्य आर्थिक विकास की उच्च दर प्राप्त करना, मुद्रास्फीति की दर को कम करना, चालू खाता घाटा कम
करना और भुगतान संकट के संतुलन को खत्म करना था। आर्थिक सुधारों की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं उदारता,
निजीकरण और वैश्वीकरण थे, जिन्हें लोकप्रिय रूप से एलपीजी के रूप में जाना जाता है।
1991 की आर्थिक नीति के बाद गरीबी में 1.36 फीसदी की दर से कमी आई थी। 1991 के आर्थिक सुधारों ने
भारत को ग्लोबल लीडर के रूप में बदल दिया था। दीर्घकालीन औपनिवेशिक शासन के फलस्वरूप भारत की
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक ऐसी अर्थव्यवस्था विरासत में मिली थी जिसमें सीमित उद्योगीकरण, निम्न कृषि
उत्पादन, अल्प प्रति व्यक्ति आय तथा मंद आर्थिक विकास गति जैसी नकारात्मक विशेषताएं मौजूद थी। अशिक्षा,
संकीर्णता तथा सामाजिक असमानता इसके अन्य प्रमुख तत्त्व थे। अनेक आर्थिक विशेषज्ञ मानते हैं कि साल 1991
से शुरू आर्थिक सुधार महज बाजार को मिले फायदे का सौदा नहीं था, बल्कि पूरी तरह से राज्य की लोक
कल्याणकारी प्रकृति को बदल देने वाला कदम था। आज इन आर्थिक सुधारों के तकरीबन 30 साल हो गए हैं। इन
आर्थिक सुधारों के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था आज तक किस राह पर चल रही है, उसकी आलोचनात्मक पड़ताल
जरूरी है। गहन आर्थिक विषय को सिंपल तरीके से समझें तो साल 1991 में भारत की तंगदिल अर्थव्यवस्था को
पूरी दुनिया के लिए खोल दिया गया। दुनिया के किसी भी कोने से भारत में निवेश किया जा सकता है। भारत की
कंपनियों का मालिकाना हक दूसरे देश के निवासियों के हाथ में भी जा सकता है। आजादी के बाद का भारतीय
राज्य अपने लोगों को संभालने के लिए घरेलू बाजार पर कई तरह के प्रतिबंध लगाकर काम कर रहा था। इसके
पीछे सोच यही थी कि भारत एक गरीब मुल्क है, यहां सब कुछ सबके लिए खुले तौर पर खोला नहीं जा सकता है।
यह सोच बिल्कुल जायज थी। लेकिन साल 1991 के आर्थिक सुधारों से इन प्रतिबंधों को भी हटा दिया गया। इस
तरह से भारतीय राज्य उदारीकरण और निजीकरण के रास्ते पर चल पड़ा। धीरे-धीरे भारतीय राज्य यह खुलकर
कहने लगा कि राज्य का काम और बाजार का काम अलग-अलग है। सब कुछ राज्य नहीं कर सकता है। आज भी
यह बात दोहराई जा रही है कि राज्य का काम बिजनेस करना नहीं है। कुछ अर्थशास्त्री मानते हैं कि आर्थिक सुधारों
से पहले जब राज्य के पास अपने लोगों की भलाई को ध्यान में रखते हुए किसी भी तरह के फैसले का अधिकार
था, तब वह सबसे ऊपर था। उसके पास इसकी पूरी संभावना थी कि मजदूर और किसान वर्ग या किसी भी तरह से
कमजोर लोग शोषण का शिकार न बनें। राज्य के भीतर भले पूंजीवादी किस्म का विकास क्यों न होता, लेकिन
राज्य उस पर प्रतिबंध लगा सकता था। परंतु खुद राज्य ने ऐसी नीति अपना ली थी कि वह बाजार में दखलअंदाजी
नहीं करेगा।
इसका सबसे खतरनाक परिणाम कृषि क्षेत्र पर पड़ा है। लोन के जरिए वित्तीय पूंजी का सिस्टम बन रहा है। ऐसे
सिस्टम में वही आगे बढ़ते हैं जिनके पास खूब पैसा होता है और वह पिछड़ते जाते हैं जिनके पास पैसा नहीं होता,
जिनके पास रिस्क उठाने की क्षमता नहीं होती। अगर आंकड़ों के लिहाज से देखें तो बंद भारत को खोलने के बाद
भी पिछले 30 सालों में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का जीडीपी में हिस्सा जहां पर पहले था, तकरीबन उतना ही अब भी
है। साल 1990-91 में भारत की कुल जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 15 फीसदी हुआ करता था। साल 2017-
18 में पिछले 30 सालों में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के जीडीपी में हिस्से में अब तक का सबसे अधिक इजाफा हुआ।
यह महज कुल जीडीपी का 17.1 फीसदी था। इसके बाद फिर से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में कमी दर्ज की गई। साल
1991 के बाद भारत के सभी इलाकों का विकास समान तौर पर नहीं हुआ है। बिहार राज्य की पूरी जीडीपी साल
2017-18 में उतनी ही थी, जितना वह साल 1990 में हुआ करती थी। लेकिन गुजरात की कुल जीडीपी बिहार और
झारखंड से भी ज्यादा है। यही हाल दक्षिण के राज्यों के साथ है। उनकी प्रति व्यक्ति आय भारत के बीमारू राज्यों
यानी कि बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा से ज्यादा है। आकार के लिहाज से साल 1990 में
दुनिया में भारत की अर्थव्यवस्था का स्थान 12वां था। साल 2020 में यह बढ़कर छठवें स्थान पर पहुंच गया।
लेकिन जब प्रति व्यक्ति आय के आधार पर देखा जाए तो भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया के 176 देशों के बीच
133वें पायदान पर खड़ी मिलती है। इसका मतलब है कि अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ा है, लेकिन लोगों के जीवन
स्तर में बड़ा बदलाव नहीं हुआ है। साल 1990 में इस पर खूब प्रचार-प्रसार किया गया कि भारत की अर्थव्यवस्था
दमदार बनेगी, आयात कम होगा और निर्यात ज्यादा होगा। हकीकत यह है कि साल 1990 में भारत की कुल
जीडीपी में निर्यात की हिस्सेदारी तकरीबन 5.6 फीसदी थी। साल 2013-14 में सबसे अधिक बढ़ोतरी से ही इसकी
हिस्सेदारी तकरीबन 16 फीसदी के आसपास पहुंची। लेकिन फिर से गिरावट आई।
2020-21 में भारत की कुल अर्थव्यवस्था में निर्यात की हिस्सेदारी महज 10.9 फीसदी है। लेकिन आयात में खूब
इजाफा हुआ है। साल 1990 में भारत की कुल जीडीपी में आयात की हिस्सेदारी 7 फीसदी थी। अब बढ़कर 27
फीसदी हो चुकी है। यानी हमने दूसरे देशों से माल और सेवाएं ज्यादा खरीदी हैं और दूसरे देशों में अपने माल और
सेवाएं कम बेचे हैं। इसका मतलब यह है कि हमारी वजह से दूसरे देशों को रोजगार ज्यादा मिला है और हमें
रोजगार कम मिला है। भ्रष्टाचार को लेकर 1990 के बाद से लेकर अब तक लोगों के जहन में किसी भी तरह का
परिवर्तन नहीं हुआ है। अब बात करते हैं गरीबी की। आखिरकार इन 30 सालों में गरीबी की क्या स्थिति रही है?
इस पर कोई महत्त्वपूर्ण डाटा उपलब्ध नहीं है। आर्थिक सुधार आज भी देश के लिए बहुत जरूरी हैं। इस दिशा में
काम हो रहा है। इसमें कड़वे फैसले लेने में तेजी लानी हितकारी है। स्पष्ट और कटु शब्दों में कहा जाए और पिछले
30 साल के आर्थिक सुधारों का आलोचनात्मक विश्लेषण किया जाए तो यह साफ है कि भारतीय अर्थव्यवस्था कुछ
चुनिंदा धन कुबेर लोगों की गिरफ्त में है। आज जिसके पास पैसा है, उसके आगे बढ़ने की संभावना दूसरों से
ज्यादा है। आज देश के जमीनी और गरीब आदमी के कल्याण के लिए आर्थिक सुधारों के जरिए आर्थिक विकास की
रणनीति को पुनः परिभाषित किए जाने की जरूरत है।