धर्म व शास्त्र प्रदत्त वर्ण व्यवस्था तमाम सरकारी व ग़ैर सरकारी कोशिशों के बावजूद देश से समाप्त होने
का नाम ही नहीं ले रही है। बल्कि ऐसा महसूस होता है कि आधुनिक भारत के शिक्षित समाज में शायद
यह और भी बढ़ती ही जा रही है। भले ही हमें महानगरों या अन्य शहरी क्षेत्रों से दलित समाज के
उत्पीड़न के समाचार तुलनात्मक रूप से कम सुनाई देते हों परन्तु देश का अधिकांश भाग यहां तक कि
दक्षिण भारत के वह क्षेत्र जिन्हें उत्तर भारत की तुलना में अधिक आधुनिक व उदारवादी सोच रखने वाला
माना जाता है, वे भी अभी तक वर्ण व्यवस्था द्वारा दिखाए गए जातिगत ऊंच नीच की बेड़ियों से मुक्त
नहीं हो पाए हैं। मुग़ल व अंग्रेज़ों के शासनकाल में भी दलितों पर सवर्णों द्वारा अत्याचार किये जाने व
उन्हें अछूत बताकर उनका अपमान करने की तमाम घटनाएं होती थीं परन्तु आज़ादी के बाद तो जैसे देश
क्या आज़ाद हुआ गोया दलितों पर अत्याचार करने की भी पूरी आज़ादी स्वर्ण दबंगों को हासिल हो गयी।
दलित उत्पीड़न के नित्य नए इतिहास लिखे जाने लगे। कहना ग़लत नहीं होगा की दलितों से नफ़रत
करने वाले लोगों द्वारा कभी कभी दलितों पर ऐसे ज़ुल्म किये जाने के समाचार आते हैं जैसे ज़ुल्म
जानवरों पर भी नहीं किये जाते। यही वजह थी कि बाबा साहब भीम राव अंबेडकर जैसे राष्ट्रवादी नेता
को भी इस बात की हमेशा चिंता सताती रही कि वर्णाश्रम के संस्कार रखने वाले हिन्दू धर्म में दलितों का
भविष्य आख़िर क्या होगा? उन्होंने अनेक बार इस आशंका को अपने भाषणों व आलेखों के माध्यम से
ज़ाहिर भी किया था कि यदि आज़ादी के बाद "हिंदू भारत" बना तो वह दलितों के लिए अंग्रेज़ी राज की
तुलना में और ज़्यादा क्रूर होगा। निःसंदेह दलितों पर स्वतंत्रता के बाद बढ़ते अत्याचार व इनके तरीक़े
बाबा साहब की उस दूरदर्शी सोच पर मोहर लगाते हैं।
भारत में आरक्षण की व्यवस्था भी इसी उद्देश्य के लिए की गई थी ताकि सामाजिक अन्याय का दंश
सदियों से झेलता आ रहा यह दबा कुचला समाज आरक्षण के सहारे शिक्षित होगा, रोज़गार हासिल करेगा,
संपन्न होगा तथा धीरे धीरे उसे शेष समाज के बराबर आने का अवसर मिलेगा। यह व्यवस्था शासन व
प्रशासन के अंतर्गत की गयी व्यवस्था तो बनी परन्तु जिस सनातनीय शिक्षा ने वर्णाश्रम की बुनियाद
डाली थी उसमें न तो कोई परिवर्तन किया गया न ही उसे समाप्त करने की कोशिश की गयी। परिणाम
स्वरूप आज भी दलित के घर में जन्म लेने वाला व्यक्ति जन्म से ही नीच व अछूत माना जाता है।
भले ही आगे चलकर वह कितना ही महान व्यक्ति क्यों न बन जाए परन्तु चूँकि उसका जन्म दलित
परिवार में हुआ है लिहाज़ा तिरस्कार, उपेक्षा व अवहेलना व स्वयं को नीच व तुच्छ समझना गोया उसका
जन्म सिद्ध अधिकार है। स्वयं को हिन्दू धर्म का ठेकेदार समझने वाली वह शक्तियां जो स्वर्ण हिन्दुओं
के संरक्षण में संचालित हैं वे कभी कभी सामूहिक भोज का "राजनैतिक प्रदर्शन" कर हिन्दू एकता का
सन्देश सिर्फ़ इसलिए तो देना चाहती हैं ताकि दुनिया को यह बताया जा सके कि भारत का हिन्दू समाज
एक और संगठित है। अपनी इन्हीं कोशिशों के तहत कभी भारत में दलित राष्ट्रपति बनाया जाता है तो
कभी गृह मंत्री, राजयपाल, रक्षा मंत्री या अन्य महत्वपूर्ण पदों पर बिठा दिया जाता है। परन्तु नफ़रत की
संस्कारित जड़ों पर सीधे प्रहार नहीं किया जाता। बजाए वर्णाश्रम व्यवस्था को चिन्हित करने या उसे
ज़िम्मेदार ठहराने के बजाए कभी मुग़लों को तो कभी अंग्रेज़ों को ही इस व्यवस्था का दोषी ठहरा कर
सच्चाई को छुपाने की कोशिश की जाती रही है। महाराष्ट्र के पुणे ज़िले मे स्थित भीमा कोरेगांव वह
जगह है जहां इसी संस्कारित नफ़रत पर आधारित एक ऐसा इतिहास लिखा जा चुका है जो लाख प्रयासों
के बावजूद छुपाए नहीं छुपता। यहां महार (दलित) समुदाय द्वारा ब्रिटिशों के साथ मिलकर ब्राह्मण
पेशवाओं के खिलाफ युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध में ब्राह्मण पेशवाओं को ब्रिटिश सेना से पराजय मिली।
ब्रिटिशर्स ने इस जीत का श्रेय महार समुदाय को दिया। इसी युद्ध की वर्षगांठ मनाने के लिए प्रत्येक वर्ष
1 जनवरी को भीमा कोरेगांव में महार समुदाय के हज़ारों लोग इकठ्ठा होते हैं। ब्राह्मण पेशवाओं द्वारा
दलितों के साथ कैसा बर्ताव किया जाता था उसका ज़िक्र इतिहास में दर्ज है।
यही मानसिकता आज कहीं दलित समाज के दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने से रोकती है कहीं निर्वाचित दलित
सरपंच को स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस पर तिरंगा फहराने से रोक देती है तो कहीं मध्यान भोजन
के समय स्कूलों में दलित छात्रों को अलग बैठाये जाने जैसी घटनाएं सामने आती हैं तो कहीं स्कूल में
यही भोजन दलित समुदाय के हाथों से बना होने के कारण स्वर्ण जाति के बच्चे खाने से ही मना कर
देते हैं। कहीं कथित उच्च जाति के लोग अपनी बस्ती से दलित की बारात नहीं गुज़रने देते तो कहीं
मृतक दलित की शवयात्रा सवर्णों के इलाक़े से नहीं गुज़रने दी जाती। गत वर्ष गुजरात में अहमदाबाद से
लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वालथेरा गांव मेंकथित ‘ऊंची’ जाति के लोगों ने एक दलित
महिला को केवल इसलिए बुरी तरह मारा क्योंकि वह ‘ऊंची’ जाति के लोगों के सामने कुर्सी पर बैठी हुई
थी। हालांकि वह दलित महिला ग्राम पंचायत द्वारा आयोजित शिविर में स्कूल में आधार कार्ड बनवाने के
लिए आए एक कथित ‘ऊंची’ जाति के लड़के की उंगलियों के निशान लिए जाने में उस बच्चे की सहायता
कर रही थी. इसके बावजूद दबंगों ने लात मारकर उसे कुर्सी से नीचे गिराया और लाठियों से पीटना शुरू
कर दिया। जब उस असहाय दलित महिला के पति और पुत्र वहां पहुंचे तो उन्हें भी इन दबंगों ने ख़ूब
पीटा। बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा व मध्य प्रदेश जैसे कई राज्यों में तो दलित महिलाओं को चुड़ैल या
भूतनी बता कर दबंग लोग जब चाहें तब पीटते रहते हैं। दलित दूल्हे की घुड़चढ़ी रोकने की घटना तो कई
राज्यों में होती ही रहती हैं। दलित बच्चियों से बलात्कार व हत्या की तमाम घटनाएं भी होती रहती हैं।
संविधान में आरक्षण की व्यवस्था का राजनैतिक लाभ भी देश के कुछ गिने चुने दलित नेताओं द्वारा
उठाया जा रहा है। वे आरक्षण को अपनी पारिवारिक बपौती समझ कर गत 70 वर्षों से इसका लाभ ख़ुद
लेते आ रहे हैं या अपने परिवार के सदस्यों को पहुंचा रहे हैं। दलितों पर देश भर से आने वाले अत्याचार
के संस्कारों के बावजूद आजतक किसी दलित मंत्री सांसद या विधायक ने रोष स्वरूप अपने इस्तीफ़े का
प्रस्ताव नहीं रखा। अभी गत 17 अगस्त को तमिलनाडु के वेल्लोर ज़िले के वानियाम्बड़ी क़स्बे में एन
कुप्पन नाम के एक 46 वर्षीय दलित व्यक्ति की मृत्यु हो गयी थी। इसकी शव यात्रा को स्थानीय स्वर्ण
जाति के लोगों द्वारा शमशान घाट जाने के लिए रास्ता नहीं दिया गया। कुप्पन के शव को अंतिम
संस्कार के लिए श्मशान घाट ले जाया जाना था, परन्तु उच्च जाति के स्थानीय लोगों की ज़मीन रास्ते
में पड़ती है। इस वजह से दलित व्यक्ति के शव को लोग मुख्य रास्ते से नहीं ले जा पाए। श्मशान घाट
पहुंचने के लिए 20 फ़ुट ऊंचे पुल का इस्तेमाल करना पड़ा, जहां नदी के ऊपर बने इस पुल से शव को
रस्सियों के सहारे लटकाकर नीचे उतारा गया। बताया जाता है कि सभी लोगों के शमशान घाट तक जाने
का एक ही रास्ता है जिसपर स्वर्ण दबंगों द्वारा क़ब्ज़ा कर अपने खेत बना लिए गए हैं। देश के किसी
भी दलित नेता द्वारा इस घटना पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया। रविदास मंदिर गिराए जाने को लेकर
दिल्ली की सड़कों पर उबाल आया हुआ है। अंबेडकर की मूर्ति तोड़ना और अन्य दलित स्मारकों का
अपमान करना देश में एक आम बात हो चुकी है। परन्तु नफ़रत की इन जड़ों पर प्रहार करने का न तो
किसी में साहस है न ही कोई करना चाहता है क्योंकि राजनेताओं के हित तो सामाजिक विभाजन व
सामाजिक बिखराव में ही निहित हैं। हां दलितों को मान सम्मान व शिक्षा आदि के अतिरिक्त अवसर
उपलब्ध करने वाली आरक्षण व्यवस्था इन कथित स्वर्ण जाति के लोगों को ज़रूर खटक रही है। कितना
अच्छा हो कि आरक्षण को समाप्त करने से पहले नफ़रत की उन जड़ों व संस्कारों को समाप्त किया जाए
जो सामाजिक असमानता, ऊंच नीच व छूत-अछूत जैसी शिक्षाएं व संस्कार देती हैं।