अर्पित गुप्ता
वित्त मंत्री ने अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर लाने के लिए विशाल आर्थिक पैकेज की घोषणा की है। इस पैकेज के
आकार पर अलग-अलग विचार हैं। प्रधानमंत्री ने इसे 20 लाख करोड़ का बताया, कुछ विश्लेषकों का मानना है कि
वास्तव में यह छह लाख करोड़ का है और अन्य का कहना है कि इसमें सरकार द्वारा किए जाने वाले वास्तविक
खर्च में केवल 16 हजार करोड़ रुपए की वृद्धि हुई है। बहरहाल पैकेज का आकार जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि
सरकार इस रकम को ऋण लेकर जुटाना चाहती है, चूंकि सरकार ने किसी अन्य उपाय से राजस्व जुटाने की बात
नहीं कही है। ऋण लेने के पीछे मान्यता है कि वर्तमान संकट अल्पकालीन होगा और पैकेज को लागू करने से
अर्थव्यवस्था शीघ्र पुनः पटरी पर ही नहीं आ जाएगी, बल्कि इसमें आगे वृद्धि भी होगी। पैकेज के लिए ली गई
ऋण की रकम पर जो ब्याज देना होगा, वह अर्थव्यवस्था की बढ़ी हुई आय पर टैक्स लगा कर अदा कर दिया
जाएगा। जैसे यदि सरकार ने छह लाख करोड़ रुपए का ऋण लिया और उसके ऊपर हर वर्ष 60 हजार करोड़ रुपए
का ब्याज अदा करना हो तो आने वाले समय में जो अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ेगा, उस पर अतिरिक्त टैक्स
लगाकर यह 60 हजार करोड़ की रकम को वसूल कर लिया जाएगा। इस प्रकार ऋण के माध्यम से अर्थव्यवस्था
पुनः पटरी पर आ जाएगी। समस्या है कि अर्थव्यवस्था के पुनः पुराने स्तर पर आना संदिग्ध है। पहला कारण यह
कि वर्तमान संकट के बाद विश्व का हर देश प्रयास करेगा कि अपनी जरूरत के माल का वह स्वयं उत्पादन कर ले
और विश्व बाजार पर इतनी गहराई से परावलंबित न हो। इसके कारण भारत को निर्यात करने में कठिनाई होगी
क्योंकि दूसरे देश स्वावलंबन को अपनाएंगे। और, भारत स्वयं यदि स्वावलंबन को अपनाता है, जैसा कि प्रधानमंत्री
ने आह्वान किया है, तो अपने देश में माल की उत्पादन लागत अधिक आएगी। अपने देश में उत्पादन लागत
अधिक आने के कारण ही आयात आते हैं। इसलिए यदि हम घरेलू उत्पादन बढाएंगे तो उसमें लागत अधिक आएगी
जिससे उपभोक्ता पर बोझ बढे़गा और अर्थव्यवस्था मंद पड़ेगी। अर्थव्यवस्था के पुनः पुराने स्तर पर न आ पाने का
दूसरा कारण सोशल डिस्टेंसिंग का आर्थिक भार है। जैसे पूर्व में फैक्टरी में लोगों को पास-पास बैठा दिया जाता था,
अब उन्हें दूर-दूर बैठाना होगा। प्रातःकाल उन्हें दूर-दूर रखकर अटेंडेंस लेनी होगी जिसमें समय अधिक लगेगा। एक
ही ट्राली में 20 खेत मजदूरों को एक साथ लेकर जाना संभव नहीं होगा। विद्यालयों की कक्षा का आकार बड़ा
करना होगा ताकि छात्र दूर-दूर बैठें। इन सब कारणों से अर्थव्यवस्था में उत्पादन की लागत बढ़ेगी। तीसरा कारण
यह कि वर्तमान संकट में स्वास्थ्य के उपचार को अधिक खर्च आएगा। जो नागरिक कोरोना से ग्रसित हुए हैं, उन्हें
उपचार करने का भार आएगा जिसके कारण अर्थव्यवस्था में मांग घटेगी। कम संख्या में लोग उत्पादन कर सकेंगे।
इन तीनों कारणों से इस विशाल पैकेज के बावजूद आने वाले समय में अर्थव्यवस्था पुनः पटरी पर आती नहीं दिख
रही है। फिर भी सरकार को तत्काल खर्च तो बढ़ाने ही होंगे। स्वास्थ्य खर्च के साथ-साथ जो राजस्व में कटौती हुई
है, उसकी भरपाई करनी होगी। अनुमान है कि बीते अप्रैल में सामान्य राजस्व की तुलना में जीएसटी की केवल 40
प्रतिशत वसूली हो सकी है। अतः सरकार को अपने खर्चों को वर्तमान स्तर पर बनाए रखने के लिए ही भारी मात्रा
में अतिरिक्त राजस्व जुटाना ही होगा। प्रश्न है कि राजस्व किस रास्ते जुटाया जाए? यहां दो प्रमुख रास्ते हैं। पहला
रास्ता है कि सरकार मुद्रा बाजार में ऋण ले जैसा कि सरकार ने अभी मन बनाया है और ऋण लेकर उस रकम को
खर्च करे जैसा छोटे उद्योगों और उड्डयन कंपनियों आदि को वर्तमान में पैकेज दिया गया है। दूसरा उपाय यह है
कि हम चिन्हित माल पर, विशेषकर पेट्रोल पर आयात कर में भारी वृद्धि कर दें, जैसे वर्तमान में पेट्रोल पर केंद्र
सरकार द्वारा लगभग 27 रुपए प्रति लीटर का टैक्स वसूल किया जा रहा है। इसे तत्काल चार गुना बढ़ा कर
100 रुपए प्रति लीटर किया जा सकता है। ऐसा करने से बाजार में पेट्रोल का दाम 75 रुपए प्रति लीटर से बढ़कर
150 रुपए प्रति लीटर हो जाएगा। सरकार को वर्तमान में पेट्रोल पर वसूल किए गए टैक्स से लगभग चार लाख
करोड़ रुपए की रकम अर्जित हो रही है। इस टैक्स को बढ़ाने के बाद कुछ मांग में गिरावट आएगी। फिर भी मेरा
अनुमान है कि इस टैक्स से 10 लाख करोड़ रुपए प्रति वर्ष की अतिरिक्त रकम को अर्जित किया जा सकता है।
प्रश्न है कि सरकार को ऋण लेकर वर्तमान खर्च बढ़ाना चाहिए अथवा पेट्रोल पर आयात कर बढ़ाकर? दोनों तरह से
भार अंततः जनता पर ही पड़ेगा। यदि सरकार ऋण लेकर खर्च करती है, जैसा ऊपर बताया गया है, तो आने वाले
समय में उस ऋण पर ब्याज देना होगा। इस ब्याज की रकम को सरकार को आम आदमी पर टैक्स लगा कर ही
वसूल करना होगा। इसके विपरीत यदि सरकार पेट्रोल पर आयात कर बढ़ाती है तो भी पेट्रोल के बढ़े हुए दाम का
भार अंततः उसी आम आदमी पर पड़ेगा। लेकिन अंतर यह है कि ऋण पर ब्याज अदा करने के लिए जो टैक्स
वसूल किया जाएगा, वह वसूली पूरे देश के हर नागरिक से वसूल की जाएगी जैसे जीएसटी की दर में वृद्धि करके।
इसके विपरीत यदि पेट्रोल पर टैक्स बढ़ा कर यह रकम जुटाई जाएगी तो देश के उन नागरिकों पर भार ज्यादा
पड़ेगा जो यातायात अधिक करते हैं अथवा ऊर्जा-सघन माल जैसे एल्युमीनियम के दरवाजों आदि का उपयोग अधिक
करते हैं। अतः प्रश्न यह है कि आर्थिक पैकेज का बोझ उन विशेष वर्ग पर डाला जाना चाहिए जो ऊर्जा सघन माल
का उपयोग करते हैं अथवा सामान्य नागरिक पर? मेरा मानना है कि इसकी वसूली ऊर्जा सघन माल का उपयोग
करने वाले से ही की जानी चाहिए। ऐसा करने का दूसरा लाभ यह होगा कि आने वाले समय में आयातित ईंधन
तेल पर हमारा अवलंबन कम होगा। अतः सरकार को चाहिए कि वर्तमान पैकेज के लिए ऋण न ले, बल्कि पेट्रोल
पर आयात कर बढ़ाए। सामान्य नागरिक के जीवन स्तर में जो कटौती होनी ही है, वह सीधे ऊर्जा के उपयोग में
कटौती करके की जाए, न कि ऋण पर ब्याज अदा करने के लिए टैक्स लगा कर।