संयोग गुप्ता
अनाड़ी कभी खिलाड़ी नहीँ हो सकता है, लेकिन यह शायद हमारा मिथक है। क्योंकि यह प्रगतिवादी युग है। यहां
विधाएं गढ़ी जाती हैं। बस एक लकीर बनाने की ज़रूरत है। सच कहूँ , बदली स्थितियों में हम यह समझ ही नहीँ
पाए हैं कि खिलाड़ी, अनाड़ी में है या अनाड़ी, खिलाड़ी में समाया हुआ है। भ्रम की स्थित हैं या फ़िर यह मेरा
स्थापित भ्रम है। ठीक उसी तरह की 'नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है'। हमने जो देखा है वह सच है कि
खिलाड़ी कभी- कभी अनाड़ी वन जाता है और अनाड़ी कभी खिलाड़ी बन जाता है। बस जिसका दाँव बैठ गया वहीं
सिकंदर। वैसे खिलाड़ी खेल के माहिर होते हैं, उन्हें क्रिकेट की पिच से लेकर सियासी पिच का पूरा अनुभव होता है।
कब, किस दाँव का प्रयोग करना है, उसी को लेकर उनका अनुलोम- विलोम चलता रहता है। लेकिन कभी- कभी
अनाड़ी का दाँव बड़े- बड़े खिलाड़ियों को चित्त कर जाता है।
अनाड़ी और खिलाड़ी के बीच यह दाँव- पेच धरती से लेकर देवलोक तक में खेला जा रहा है। देवता हों या असुर,
इंसान हो या जानवर वह सत्ता और सिंहासन के बेहद करीब रहना चाहते हैं। एक शेर जंगल में दूसरे शेर को घास
नहीँ डालता। देवलोकवासी इन्द्र को तो हमेशा अपने सिंहासन की पड़ी रहती है। जब भी दानव या दैत्य अथवा
धरतीलोक का प्राणी उनके सिंहासन पर नज़र डालता है तो वह 'हार्स ट्रेडिंग' कर अपनी कुर्सी बचा लेते हैं। अब तक
अनगिनत राजा- महाराजा अश्वमेध यज्ञ कर देवराज का सिंहासन छीनने की साजिश रच चुके हैं।
हालांकि इन्द्र की सत्ता सिंगल मेजोरिटी कि है, अगर गठबंधन कि होती तो जाने कब की गिर गई होती। उन्हें भी
'फ्लोर टेस्ट' पर आना होता। लेकिन देवलोक में उनकी अच्छी पकड़ है। कहते हैं कि वक्त बदल गया है, लेकिन
खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है। आजकल कल पड़ोसियों के तेवर और नखरे कुछ अधिक घातक साबित हो
गए हैं। कागज पर धरती और सीमाओं को तो पलट ही रहें हैं भगवान को भी नहीँ बख्स रहें हैं। कहते हैं कि आप
पड़ोसी के यहां नहीँ हमारे यहां पैदा हुए हैं। अब बेचारे भगवान को भी पड़ोसियों की मुई 'डिप्लोमैसी' नहीँ छोड़ रहीं
है। 'लॉकडाउन' में उनकी भी मुसीबत बढ़ गई है। अब बेचारे भगवान, पड़ोसी ससुराल वालों को सम्भाले कि घर के
भक्तों को, वह ख़ुद समझ नहीँ पा रहें हैं।
वैसे भी आजकल घर बचाना मुश्किल हो गया है। क्योंकि बारिश का मौसम है। जब बाढ़ आती है तो जलजला लेकर
आती है। वह सब कुछ डुबोने को ही आती है। अपन की राजनीति में भी बाढ़ का जलजला आया है। जिस 'पायलट'
के भरोसे नेताजी बाढ़ग्रस्त इलाके का सर्वेक्षण कर जनता के दिल और दिमाग में उतर जाते हैं। अब वहीं 'पायलट'
उन्हें डूबोता नज़र आता है। अपन की राजनीति गिरगिट को भी मात दे रहीं हैं। वह चौबीस घंटे में जाने कितने रंग
बदलती है। फ़िलहाल असली रंग देखने के लिए सरकारों का दिव्यांग होना ज़रूरी है। दिव्यांग सरकारों में निर्दल की
पौबारह होती है। वह रोज नए- नए दलदल बनाते हैं। रिज़ॉर्ट और होटलों में लज़ीज भोज उड़ाते हैं। 'हार्स ट्रेडिंग' के
'ट्रेडमार्क' बनते हैं। जबकि बेचारी जनता जो उन्हें चुनकर भेजा है वह चुनावों के पांच साल बाद भी मरियल घोड़ा
साबित होती है। दिव्यांग सरकारों के लिए हमेशा से 'हार्स ट्रेडर' की ज़रूरत रहीं है, यह अघोषित किंतु सत्य है।
अपुन के यहां 'आपदा में भी अवसर' तलाशने की आदत है। सियासत कि उपजाऊ ज़मीन से एक जुमला खूब चला
है 'आत्मनिर्भरता' का। इस मंत्र का इस्तेमाल कर कोरोना काल में राजनीति का 'इम्युनिटी पावर' बढ़या जाता है।
जिसकी वजह से उसे 'च्यवनप्रकाश' और 'गिलोय बटी' की ज़रूरत नहीँ पड़ती। क्योंकि 'दिव्यांग' सरकारों में हमारे
माननीयों का 'इम्युनिटी पावर' अपने आप दुरुस्त रहता है। अगर उन्हें लगा कि 'इम्युनिटी पावर' कम हो रहीं है तो
तुरंत 'आत्मनिर्भरता' को विकल्प अंगीकार कर लिया जाता है। क्योंकि हमारे राजनेता अब 'आत्मनिर्भरता' पर
अधिक बल दे रहें हैं। इस खेल में आंकड़ेबाजी कि बाजीगरी वहीं करेगा जो 'आत्मनिर्भर' हो और उसका 'इम्युनिटी
पावर' दुरुस्त हो। जैसा कि आपको पता भी होगा कि कितने लोग दल और दिल बदल कर 'आत्मनिर्भर' बन गए हैं
और रिज़ॉर्ट में छक कर भोज उड़ा रहें हैं। कोई डाल- डाल है तो कोई पात- पात। रेगिस्तान की बंजर भूमि में भी
'आपदा में अवसर' खोजने में लोग जुटे हैं। हमारे भेजे में ही नहीँ धँस रहा है कि यहां कौन अनाड़ी है और कौन
खिलाड़ी। लेकिन इस आपदा में जो प्रबंधन कर ले वहीं सिकंदर है।