आतंकवाद का मुद्दा विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक असंख्य बार उठाया जा चुका है, लेकिन आज तक किसी बड़े देश के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। बेशक आतंकवाद क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर सबसे अहम मानवीय खतरा है, लेकिन अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्टे्रलिया सरीखे देशों में यह ‘खालिस्तान’ के रूप में और पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक, ईरान में ‘जेहाद’ के तौर पर आतंकवाद मौजूद है। चीन में भी आतंकवाद है, लेकिन वहां का कम्युनिस्ट शासन उसे प्रताडि़त कर और दबा कर रखता है। यह विडंबना है कि कोई भी देश आतंकवाद को स्वीकार नहीं करता। अजीब अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार है कि आतंकी खालिस्तानी पश्चिमी देशों में भारत के वाणिज्य दूतावासों में आगजनी कर सकते हैं। भारत के खिलाफ ‘पोस्टरबाजी’ कर मारने की धमकियां दे सकते हैं। कहने को ये हमारे ‘परममित्र’ देश हैं और रणनीतिक साझेदार भी हैं। ये देश या तो खालिस्तानी हरकतों को काबू नहीं कर सकते अथवा करना नहीं चाहते। भारत के प्रधानमंत्री मोदी को ‘शंघाई सहयोग संगठन’ (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में एक बार फिर आतंकवाद का मुद्दा उठाना पड़ा। हमें यह मुद्दा महज औपचारिकता और बयान भर लगता है। भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान और चीन का नाम लिए बिना ही यह मुद्दा उठाया। उन्होंने वर्चुअल संवाद के जरिए, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की मौजूदगी में, आतंकवाद का उल्लेख करते हुए यहां तक कहा कि कुछ देश सीमापार आतंकवाद फैलाने में जुटे हैं।
आतंकवाद को वे सरकारी नीति के तौर पर इस्तेमाल करते रहे हैं। हम ऐसे देशों के खिलाफ निर्णायक जंग लड़ेंगे। न जाने कितने देश, कितनी बार, निर्णायक जंग की बात कह चुके हैं, लेकिन आतंकवाद अब भी जारी है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि हमें एक समूह के तौर पर साथ मिलकर सोचने और लडऩे की जरूरत है। एससीओ देशों को ऐसे देशों की आलोचना और मुखालफत करनी चाहिए, जो सीमापार आतंकवाद को पोषित करते हैं। उन्हें पनाह देते हैं। आतंकवाद के संदर्भ में ‘दोगला रवैया’ नहीं अपनाना चाहिए। यहां गौरतलब है कि मुंबई के 26/11 आतंकी हमले के ‘मास्टर माइंड’ आतंकी साजिद मीर को ‘ग्लोबल टेररिस्ट’ घोषित करने के लिए अमरीका और भारत ने सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव रखे थे, लेकिन चीन ने ‘वीटो पॉवर’ का दुरुपयोग कर आतंकी और पाकिस्तान की हिफाजत की। भारतीय प्रधानमंत्री ने परोक्ष रूप से चीन को चेताया कि ऐसी कूटनीति नहीं होनी चाहिए। चूंकि आतंकवाद वैश्विक शांति और स्थिरता के लिए बड़ा खतरा है, लिहाजा प्रधानमंत्री मोदी ने आग्रह किया कि इसके खिलाफ एससीओ के सभी सदस्य-देशों को एकजुट होकर निर्णायक जंग लडऩी चाहिए। एससीओ के इस शिखर-सम्मेलन की अध्यक्षता भारत कर रहा था। अब कजाखस्तान को अध्यक्षता सौंपी गई है। सम्मेलन में तय हुआ कि सभी 9 सदस्य-देश अपने यहां सक्रिय आतंकी संगठनों की साझा सूची बनाएंगे।
क्या इसमें भी ईमानदारी की अपेक्षा की जा सकती है? पाकिस्तान में सक्रिय रहे और आतंकवाद के लिए उसकी सरजमीं का इस्तेमाल करते रहे लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मुहम्मद, हिजबुल मुजाहिदीन, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, अल बद्र, अलकायदा आदि आतंकी संगठनों में अधिकतर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्तर पर प्रतिबंधित हैं। क्या पाकिस्तान साझा सूची में उनके नाम शामिल करेगा? बैठक में अफगानिस्तान पर भी चर्चा की गई। वहां तो तालिबान के आतंकियों की हुकूमत है और लोकतंत्र की कोई गुंजाइश नहीं है। अफगानिस्तान फिलहाल एससीओ का ‘पर्यवेक्षक सदस्य’ है, लेकिन वह संपूर्ण सदस्यता का इच्छुक है। ऐसे देशों में से सिर्फ ईरान को सदस्यता दी गई है। एससीओ देशों में विश्व की करीब 42 फीसदी आबादी बसी है और करीब 25 फीसदी जीडीपी है। पश्चिमी देश इसे ‘अधिनायकवादी देशों का मंच’ करार देते हैं। भारत एक सक्रिय और महत्त्वपूर्ण सदस्य देश है, तो ऐसा समूह ‘अधिनायकवादी’ कैसे हो सकता है? एससीओ पश्चिमी देशों के लिए आर्थिक चुनौती जरूर है, लेकिन ऐसे समूह को आतंकवाद के मुद्दे पर सार्थक भूमिका निभानी चाहिए।