भारत के इतिहास में 1975-77 के मध्य के आपातकाल के दौर को देश के 'काले इतिहास' के रूप में जाना जाता
है। हालांकि इस विषय में अनेक विचारकों के मत यह भी हैं कि उस समय देश के सामने क़ानून व्यवस्था बनाए
रखने की जिस प्रकार की चुनौती थी, चारों तरफ़ प्रदर्शन, धरना, हड़ताल, तालाबंदी, बंद, रेल व उद्योग ठप्प हो
जाने जैसी घटनाएं घटित हो रही थीं। बड़े पैमाने पर छात्रों द्वारा सत्ता का विरोध हो रहा था। राजनैतिक विरोध व
हिंसा में इसकी परिणिति की इंतेहा ने ऐसा रौद्र रूप धारण कर लिया था कि 2 जनवरी 1975 को जब तत्कालीन
रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा समस्तीपुर-मुज़फ़्फ़रपुर रेल रुट पर बड़ी लाईन का उद्घाटन करने हेतु समस्तीपुर
प्लेटफ़ॉर्म पर उद्घाटन समारोह में मुख्य अतिथि थे उसी समय बम विस्फ़ोट कर रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा
की हत्या कर दी गयी। महात्मा गांधी की हत्या के बाद देश की किसी बड़ी राजनैतिक शख़्सियत की यह दूसरी
हत्या थी। आपातकाल समर्थक विचार रखने वालों का मत है कि ऐसे ही बिगड़ते हालात के चलते देश में
आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी। लगभग सभी कांग्रेस विरोधी दलों के हज़ारों छोटे बड़े नेताओं को जेल में दाल
दिया गया, प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई। परन्तु देश के अधिकांश लोगों ने भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े
लोकतंत्र में आपातकाल लगाए जाने का पुरज़ोर विरोध किया। उस दौर को देश में तानाशाही के तथा काले दिनों के
दौर की संज्ञा दी गयी। इसी तानाशाही के विरुद्ध देश का विपक्ष संगठित हुआ और आपातकाल हटने के बाद
1977 में हुए आम चुनावों में देश की जनता ने भी इंदिरा गांधी की 'तानाशाही' के विरुद्ध अपना फ़ैसला सुनाते
हुए उस इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फेंका जिसे भारत में ही अजेय नहीं समझा जाता था बल्कि पूरा विश्व
उनकी राजनैतिक सूझ बूझ व सहस को सलाम करता था। उस समय भी देश की जनता का सन्देश साफ़ था कि
असहमति, लोकतंत्र का आभूषण है इसका गाला घोंटने वाला लोकतंत्र का हत्यारा समझा जाएगा। जहां तक क़ानून
व्यवस्था बनाए रखने या अराजकता पर नियंत्रण रखने का सवाल है तो यह पूरी तरह प्रशासनिक विषय है लिहाज़ा
हिंसा या अराजकता की आड़ में आपातकाल लगाकर सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखने की कोशिश करना ग़ैर
लोकतान्त्रिक होने के साथ साथ तानाशाही प्रवृति का द्योतक भी है।
परन्तु प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सहित उस समय के किसी भी कांग्रेस नेता का एक भी ऐसा बयान नहीं मिल सकता
जबकि सत्ता पक्ष ने विपक्षी दल के नेताओं पर पाकिस्तानी होने, या पाकिस्तान के इशारे पर अराजकता फैलाने या
पाकिस्तान को ख़ुश करने हेतु काम करने जैसे आरोप लगाए हों। कांग्रेस के किसी नेता ने यह नहीं कहा कि इंदिरा
गांधी पर विश्वास न जताने वालों को पाकिस्तान भेज दो। किसी नेता को यह कहते नहीं सुना गया कि विपक्ष
जीतेगा तो पाकिस्तान में पटाख़े फोड़े जाएंगे। गोया विपक्ष के विरोध को ग़द्दारी या विदेशी चाल से जोड़ कर कभी
नहीं देखा गया। निश्चित रूप से इसी उच्चस्तरीय राजनीति की पहचान करने वाली जनता ने जहां 1977 के
चुनाव में इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदख़ल किया वहीं 1979 में हुए मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गांधी के प्रति
विश्वास जताते हुए उन्हें पुनः देश की बागडोर भी सौंप दी। क्या आज के दौर की तुलना 1975-77 के दौर से की
जा सकती है। निश्चित रूप से आज देश में आधिकारिक रूप से आपातकाल घोषित नहीं है। परन्तु क्या आज का
मीडिया स्वतंत्र है? गोदी मीडिया, दलाल मीडिया व बिकाऊ मीडिया जैसे जो विशेषण आज मीडिया शब्द के साथ
लग रहे हैं वे 1975-77 के दौर में भी नहीं लगे। आज सत्ता के फ़ैसलों या नीतियों से असहमति रखने वाले हर
नेता या दल को पाकिस्तानी, पाक समर्थक, देश का ग़द्दार, राष्ट्र विरोधी कुछ भी बता दिया जाता है। विपक्ष के
लिए ऐसी शब्दावली का इस्तेमाल किया जा रहा है जिसकी लोकतान्त्रिक मूल्यों पर विश्वास रखने वाले लोग कभी
यक़ीन ही नहीं कर सकते। पढ़े लिखे बुद्धिजीवी लोगों को 'अर्बन नक्सल' बताया जाता है, कभी टुकड़े टुकड़े गैंग
की संज्ञा दी जाती है तो कभी 'ख़ान मार्केट गैंग' की शब्दावली गढ़कर अपने विरोधियों को अपमानित करने की
कोशिश की जाती है। इसका परिणाम यह है कि या तो इस समय अनेक सत्ता आलोचक किसी न किसी बहाने जेल
भेजे जा चुके हैं, अनेक भयवश ख़ामोश हो चुके हैं या कर दिए गए हैं या अनेक सत्ता विरोधी नेताओं पर सी बी
आई या ई डी का शिकंजा कस दिया जाता है।
सत्ता आलोचकों के विरुद्ध भय फैलाने के इस वातावरण का सामना केवल राजनैतिक लोगों को ही नहीं करना पड़
रहा है बल्कि देश का एक बड़ा उद्योगपति तबक़ा भी इस वातावरण से चिंतित व भयभीत है। गत 1 दिसंबर को
मुंबई के एक समारोह में देश के जाने माने उद्योगपति राहुल बजाज ने अपनी व्यथा कुछ इन शब्दों में व्यक्त की।
राहुल बजाज ने कहा कि – “हमारे उद्योगपति दोस्तों में से कोई नहीं बोलेगा। मैं खुले तौर पर कहता हूं कि एक
माहौल तैयार करना होगा। जब यू पी ए 2 की सरकार सत्ता में थी तो, हम किसी की भी आलोचना कर सकते थे।
इस समय देश में ऐसा माहौल है कि अगर कोई कुछ कहता है तो, पता नहीं उनके सवालों को सही से लिया
जाएगा या नहीं, या फिर सत्ता में बैठे लोग नाराज़ हो जाएंगे?” जिस कार्यक्रम में बजाज ने अपना यह बयान दिया
था वहां गृहमंत्री अमित शाह, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन और रेल व वाणिज्य मंत्री पियूष गोयल सहित भाजपा के
कई बड़े नेता भी मौजूद थे। राहुल बजाज के इस बयान के बाद खलबली मच गयी। बाद में अपने संबोधन में गृह
मंत्री अमित शाह को बजाज की बात का जवाब देना पड़ा। उन्होंने कहा कि -'किसी को किसी से डरने की ज़रुरत
नहीं है। मीडिया में नरेन्द्र मोदी सरकार की काफ़ी आलोचना हो रही है। लेकिन, आप कह रहे हैं कि देश में डर का
माहौल पैदा हो गया है तो, इसे ठीक करने के लिए हमें काम करना होगा। हमारी सरकार पारदर्शी तरीक़े से काम
कर रही है और अगर इसकी आलोचना होती है और उस आलोचना में दम है तो, हम इसे सुधारने की कोशिश
करेंगे। परन्तु गृहमंत्री अमित शाह के इस जवाब के बावजूद भाजपाई ट्रोलर राहुल बजाज पर बरस पड़े और उनके
बयान को विपक्ष से प्रभावित बयान बताने लगे।
देश इन दिनों नागरिकता संशोधन क़ानून तथा राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का विरोध कर रहा है। परन्तु गृह मंत्री
अमित शाह कह चुके हैं कि भाजपा अपने फ़ैसले से एक इंच भी पीछे नहीं हटेगी। आंदोलनकारियों को लेकर भी गृह
मंत्री कहना है कि- ' जब भी लोग आंदोलन करने के लिए आते हैं और हिंसा करने के लिए आते हैं तो पुलिस को
क़दम उठाने पड़ते हैं. अगर पुलिस ने गोली चलाई है तो सामने से भी गोली चलाई गई. हिंसा होगी तो पुलिस को
टियर गैस भी दाग़ना पड़ेगा, लाठीचार्ज भी करना पड़ेगा और अगर ज़रूरत पड़ती है तो गोलीबारी भी करनी पड़ेगी।
बड़े पैमाने पर हो रहे इन राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शनों के जवाब में सत्ता पक्ष ने भी जवाबी प्रदर्शन व जनजागरूकता
अभियान चलाने की योजना बनाई है। ऐसे ही एक भाजपाई प्रदर्शन में जो नारे राजधानी दिल्ली में सुनने को मिले
वह ज़रूर चिंतनीय हैं। भाजपा नेताओं व समर्थकों द्वारा सार्वजनिक रूप से पुलिस व प्रशासन की मौजूदगी में यह
नारा लगाया गया कि -'देश के ग़द्दारों को, गोली मारो सालों को'। यह नारा सत्ता से असहमति व्यक्त करने वालों
को गाली भी देता है और हिंसा फैलाने के लिए प्रेरित भी करता है। क्या असहमति व्यक्त करने वालों को इन्हीं
शब्दों में व इसी लहजे में जवाब देना देना स्वच्छ लोकतंत्र की पहचान है? सत्ता की नीतियों से असहमति रखने
वाले 'देश के ग़द्दार हैं' और उन 'सालों ' को गोली मारने हेतु उकसाने जैसे नारे लगाना क्या यही हमारे लोकतंत्र
की सुंदरता का मापदंड रह गया है? निश्चित रूप से ऐसे विचार व ऐसी भावनाएं देश के बुनियादी लोकतान्त्रिक
सिद्धांतों पर गहरा प्रहार हैं। देश के लोगों को ही यह फ़ैसला करना चाहिए कि असहमति, लोकतंत्र का आभूषण है
या राष्ट्रविरोध की पहचान?