-प्रमोद भार्गव-
उत्तर-प्रदेश में चुनाव प्रचार बंद होने के ठीक पहले प्रमुख प्रतिद्वंद्वी दल भाजपा ने संकल्प-पत्र और सपा ने वचन-
पत्र के जरिए मतदाताओं को लुभाने के लिए वादों का पिटारा खोल दिया है।
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भाजपा ने होली-दीवाली पर दो गैस सिलेंडर, 60 वर्श से अधिक उम्र की महिलाओं को सरकारी बस में मुफ्त यात्रा,
प्रावीण्य सूची में आने वाली छात्राओं को स्कूटी और किसानों को सिंचाई के लिए मुफ्त बिजली एवं गन्ना भुगतान
में 14 दिन से ज्यादा देरी होने पर चीनी मिलों से ब्याज दिलाने का वचन दिया है। यही नहीं, यह पहली बार देखने
में आया है कि भाजपा ने कानूनी वादे की घोषणा कर 'लव-जिहाद' कानून के तहत 10 साल की कैद और 1 लाख
रुपए जुर्माने का भी वचन दिया है।
वहीं, अखिलेश यादव ने 88 पृष्ठीय 'समाजवादी वचन-पत्र' में पांच साल में एक करोड़ नौकरी, दो गैस सिलेंडर, 300
यूनिट बिजली, बारहवीं पास को लैपटाॅप, लड़कियों को मुफ्त शिक्षा व नौकरी में 33 प्रतिशत आरक्षण और किसान
आंदोलन में मृतकों के परिजनों को 25-25 लाख रुपए देने का वादा किया है। किसानों को हर साल दो बोरी डीएपी
खाद एवं यूरिया की पांच बोरी मुफ्त देने के साथ, सभी प्रकार की फसलों पर एमएसपी निश्चित करने और गन्ना
किसानों का भुगतान 15 दिन में भुगतान करने की प्रतिज्ञा ली है। यही नहीं, सपा आम आदमी के दो पहिया वाहनों
को हर माह एक लीटर, ऑटो चालकों को तीन लीटर पेट्रोल या 6 किलो सीएनजी भी देगी। कांग्रेस और आम
आदमी पार्टी भी इसी तरह के बढ़-चढ़कर वादे अपने-अपने घोषणा-पत्रों में कर चुकी हैं।
बहरहाल पांचों राज्यों में सभी राजनीतिक दलों ने घोषणाओं का इतना बड़ा पहाड़ खड़ा कर दिया है कि जीवन गुजर
जाए, तब भी वादे पूरे होने वाले नहीं हैं। अतएव मुंगेरीलाल के हसीन सपने दिखाने वाले ये असंभव वादे आखिरकार
निराशा ही पैदा करेंगे। रियासत की इतनी रेवड़ियां बांटी हैं कि मामूली समझ रखने वाला नागरिक भी इन वादों पर
भरोसा करने वाला नहीं है। एक तरह से हरेक दल ने आसमान से तारे तोड़कर लाने का वादा किया है। यह
दुर्भाग्यपूर्ण है कि युवाओं को रोजगार देने के पुख्ता उपाय और संरचनागत विकास का ढांचा खड़ा करने के वादों की
बजाय, ऐसे कार्यों के लिए सरकारी खजाने का मुंह खोलने की बात कही गई है।
जो केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों की संख्या बढ़ा कर देश व राज्यों पर आर्थिक बोझ बढ़ाने वाले हैं। क्योंकि
वाहनों को मुफ्त ईंधन देंगे तो आयात की मात्रा बढ़ानी पड़ेगी, जो विदेशी मुद्रा के लिए संकट बनेगी। याद रहे
1980 में तेल की कीमतें उच्च स्तर पर होने के कारण वेनेजुएला एक अमीर देश था। किंतु इस समृद्धि के चलते
वहां की सरकार ने खाने से लेकर यातायात सुविधा, यानी सबकुछ निशुल्क कर दिया। जबकि 70 प्रतिशत भोजन
की सामग्री यह देश आयात करता था। धीरे-धीरे आर्थिक स्थिति बदहाली में बदलने लगी। उसी समय तेल की
कीमतों में मंदी आई और वेनेजुएला आर्थिक रूप से बर्बाद हो गया।
नतीजतन इन अफलातूनी घोषणाओं के चलते मुफ्त योजनाओं के बजट का आकार नियमित बजट के आकार से
बड़ा होता जा रहा है। बावजूद इसमें कोई दो राय नहीं कि यह भ्रष्ट आचरण नहीं है, लेकिन यह चुनावों की
निष्पक्षता को जरूर प्रभावित करता है। जो लोकतंत्र के लिए घातक है।
जरूरतमंद गरीबों को निःशुल्क राशन, बिजली, पानी और दवा देने में किसी को कोई एतराज नहीं, लेकिन वोट पाने
के लिए प्रलोभन देना मतदाता को लालची बनाने का काम तो करता ही है, व्यक्ति को आलसी एवं परावलंबी बनाने
का काम भी करता है। हालांकि अब मतदाता इतना जागरूक हो गया है कि वह वादों के खोखले वचन-पत्रों के
आधार पर मतदान नहीं करता। वह जानता है कि चुनावी वादों का पुलिंदा जारी करना राजनीतिक दलों के लिए एक
रस्म अदायगी भर है।
तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने लोक-लुभावन वादों को चुनावी घोषणा-पत्रों में शामिल करने की शुरूआत की
थी, जो आगे चलकर वोट के लिए घूसखोरी बन गई। जयललिता ने 2003 में वादा किया था कि वे मुख्यमंत्री
बनती हैं तो 11 वीं और 12 वीं के सभी छात्राओं को साईकिल देंगी। अगली बार उन्होंने सभी विद्यार्थियों को
लैपटाॅप देने की घोषणा कर दीं। साईकिल तो दूरदराज के ग्रामों से विद्यालय तक आने के लिए उचित भेंट कही जा
सकती है। लेकिन जब राज्य में 24 घंटे बिजली की आपूर्ति नहीं हो पा रही थी, तब लैपटाॅप का उपहार उचित नहीं
था। जयललिता ने 20 किलो चावल और शादी के वक्त कन्याओं को 25 हजार नकद व 4 ग्राम सोने के मंगलसूत्र
देने के वादे अपने कार्यकाल में निर्विवाद रूप से पूरे किए थे।
हकीकत यह है कि मुफ्त उपहार बांटे जाने के वादे राज्यों की आर्थिक बदहाली का सबब बन रहे हैं। यह स्थिति
चिंताजनक है। मतदाता को ललचाने के ये अतिवादी वादे, घूसखेरी के दायरे में आने के साथ, मतदाता को भरमाने
का काम भी करते हैं। थोथे वादों की यह अतिवादी परंपरा इसलिए भी घातक एवं बेबुनियाद है, क्योंकि अब चुनाव
मैदान में उतरने वाले सभी राजनीतिक दल घोषणा-पत्रों में नए कानून बनाकर नीतिगत बदलाव लाने की बजाय
मतदाता को व्यक्तिगत लाभ पहुंचाने की कवायद में लग गए हैं। जबकि व्यक्ति की बजाए सामूहिक हितों की
परवाह करने की जरूरत है। अलबत्ता मुफ्तखोरी की आदत डालकर एकबार चुनाव तो जीता जा सकता है लेकिन
इससे राज्य और देश का स्थाई रूप से भला होने वाला नहीं है।