-कुमार कृष्णन-
आज हम आधुनिकता, तकनीकी विकास और वैज्ञानिक प्रयोगों के दौर में भी मानसून के सामने अक्षम, लाचार, बेबस हैं। आखिर इसका बुनियादी कारण और उसका पक्ष क्या है?देश की राजधानी दिल्ली में 30 जून तक करीब 68 फीसदी काम ही हो पाया था। जब तेज बारिश हुई, तो कलई खुल गई, क्योंकि अधिकतर नाले जाम पड़े थे। नतीजतन दिल्ली की जो दुर्दशा और उसकी अब इसका भ्रष्ट आयाम भी देखिए।
दिल्ली में बीते दिनो बारिश ने 41 साल के पुराने रिकॉर्ड को याद दिला दिया। इससे ज्यादा बारिश 1982 की जुलाई में हुई थी। बहरहाल इस बार की बारिश से करीब 60 इलाकों में जलभराव हो गया। औसतन हर तरफ घुटनों तक पानी बरसा और जमा हो गया। मंत्रियों, सांसदों, आईएएस, आईपीएस अधिकारियों के वीआईपी आवासीय क्षेत्रों और घरों के भीतर तक, सभी दिशाओं में, पानी-पानी हो गया। पानी के साथ कूड़ा-कर्कट भी चला आया और छोटे-छोटे सरीसृप वर्ग के जीव भी दिखाई दिए। हथिनी कुंड बैराज से करीब 71,000 क्यूसेक पानी छोड़ा गया है। खतरे को भांपते हुए यमुना के आसपास के इलाकों में बसे 37,000 से अधिक लोगों को सुरक्षित जगहों पर भेजा गया है। लोक निर्माण एवं शिक्षा मंत्री आतिशी के चुनाव-क्षेत्र श्रीनिवास पुरी में एक स्कूल की दीवार गिर गई। शुक्र है कि स्कूल में बच्चे नहीं थे। यदि स्कूल चल रहा होता, तो बड़ी घटना हो सकती थी! इस स्कूल का उद्घाटन महज 4 माह पहले ही किया गया था।
स्कूल पर 16 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे। राजधानी में आधा दर्जन से अधिक जगहों पर पेड़ भी टूट कर गिर पड़े। गनीमत है कि पहाड़ों जैसा भू-स्खलन, सडक़ों का टूटना, बादल फटना और प्रलय-सा पानी का बहाव दिल्ली में नहीं होता और न ही ऐसी स्थितियां बन पाईं, लेकिन 6 लोगों की मौत हो गई और कुछ घायल भी हुए। इसका एकमात्र कारण है-व्यवस्था की नालायकी। विभिन्न दिल्ली सरकारों के दौरान टाउन प्लानिंग के विशेषज्ञों ने दस्तावेजी प्रारूप बनाकर दिए थे, लेकिन विडंबना है कि देश की राजधानी में भी अराजकता के ढोल बजते रहे हैं। चौतरफा विकास और सडक़-निर्माण के बावजूद डे्रनेज सिस्टम और बारिश-नियंत्रण आदि नाकाम हैं। बेशक राजधानी दिल्ली में भारत सरकार और संसद भी हैं, लेकिन बरसाती नालों को साफ कराना, लोक निर्माण के स्थानीय कार्यों, डे्रनेज, शहरी स्मार्टनेस की कोशिशें आदि जिम्मेदारियां दिल्ली नगर निगम और अद्र्धराज्य की केजरीवाल सरकार की हैं। इन कामों के लिए संसद और केंद्र सरकार पर्याप्त बजट आवंटित करती हैं। अब नगर निगम में भी आम आदमी पार्टी (आप) की सत्ता है और महापौर भी ‘आप’ का ही है।
मुख्यमंत्री केजरीवाल बहाना मार सकते हैं कि दिल्ली में इतनी भारी बारिश अपेक्षित नहीं थी, लिहाजा जो तैयारियां की गई थीं, वे विकलांग साबित हुईं और राजधानी दिल्ली को पानी-पानी देखना पड़ा। मुख्यमंत्री को विशेषज्ञों से विमर्श करना चाहिए था, क्योंकि जलवायु-परिवर्तन ने तमाम समीकरण बदल दिए हैं। इसे मजाक में नहीं लेना चाहिए, क्योंकि पूरी दुनिया जलवायु-परिवर्तन के घातक प्रभावों को झेल रही है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली के उपराज्यपाल को फोन कर हालात की जानकारी ली। नतीजतन उपराज्यपाल को सडक़ों पर आना पड़ा। मंत्री भी सडक़ों पर उतरे और लोगों के बीच जाकर उनकी तकलीफें हल करने की कोशिशें कीं। राजधानी दिल्ली में जो भी घटता है, वह अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन जाता है। सोशल मीडिया पर तो सरकार की भद्द पिट रही है। हम आपदा और समस्याओं की संवेदनशीलता को नकार नहीं रहे हैं, लेकिन मानसून के मौसम में ये दृश्य हर साल दिखाई देते हैं। दिल्ली सरकार आम नागरिक से कर भी वसूलती है, तो फिर व्यवस्था की जिम्मेदारी और जवाबदेही किसकी है?
दरअसल दिल्ली में हर साल 1500 करोड़ रुपए बारिश की तैयारियों, डे्रनेज, सीवर, नालों की सफाई आदि पर खर्च किए जाते हैं। पानी की सहज निकासी के लिए हजारों पंप खरीदे जाते हैं। यदि यह बजट ईमानदारी से खर्च किया जाता है, तो फिर राजधानी दिल्ली जैसा महानगर पानी में डूबने क्यों लगता है? सब कुछ ठहर-सा क्यों जाता है? इसी तरह गुरुग्राम सरीखे साइबर और आधुनिक शहर में, बारिश की तैयारी के मद्देनजर, करीब 150 करोड़ रुपए का प्रावधान है, लेकिन बरसात में इस शहर की दुर्दशा और गंदे दरिया वाली स्थिति क्यों बन जाती है? गुरुग्राम मलबे का तालाब बन जाता है, जिसमें से वाहनों की आवाजाही ऐसी होती है मानो किसी ‘चक्रव्यूह’ से निकल रहे हों! वाकई शोचनीय और अपमानजनक है।
वह पैसा भी कहां जाता है? अजीब विरोधाभास है कि गुरुग्राम में संभ्रान्त सोसायटी के फ्लैट 5-8-10 करोड़ रुपए में बिकते हैं। दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों के दफ्तर यहां हैं, लेकिन मुख्य सडक़ों पर पानी और मलबा ही दिखाई देते हैं। यह नालायकी और कोताही क्यों है? आखिर कौन, किसकी जिम्मेदारी तय करेगा? विश्व स्तर पर यह निंदनीय और शर्मनाक स्थिति हो सकती है। दरअसल राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के शहरों में अंग्रेजों के जमाने के सिस्टम मौजूद हैं, लिहाजा वे कारगर नहीं हैं और जर्जर हो चुके हैं। दिल्ली में 1976 का ही मॉडल लागू है, जब उसकी आबादी करीब 60 लाख होती थी। वह आज 2.5 करोड़ से अधिक है। फिर दिल्ली ‘दरिया’ क्यों नहीं बनेगी? समस्या अवैध और अनियमित कॉलोनियों की भी है। इन आवासीय कॉलोनियों में सडक़, नाली, सीवर आदि की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होती, नतीजतन बारिश के मौसम में वहां पानी ठहरता रहता है। इससे शहर के अन्य इलाके भी प्रभावित होते हैं। एक और बुनियादी स्थिति यह है कि शहरी नियोजन में प्राकृतिक जल-निकासी की लगातार अनदेखी की जाती रही है। इसके अलावा, सीवर ओवरफ्लो भी गंभीर समस्या है। कई जगह सीवर और सीवेज निस्तारण वाले स्थान में असमानता होती है। राजधानी दिल्ली में आईटीओ चौक के करीब सीवर का गंदा पानी और बारिश का पानी मिल कर पुलिस मुख्यालय से लेकर रिंग रोड तक को जलमग्न कर देता है। यह हाल तो देश की राजधानी का है। एक बेहद गंभीर समस्या मकानों के निर्माण-कार्य, मरम्मत, तोड़-फोड़ आदि से निकलने वाले कूड़ा-कर्कट और मलबे की है। ये लगातार पानी के प्रवाह को अवरुद्ध करते हैं और बारिश के दिनों में यही मलबा सडक़ों पर फैल जाता है। इन तमाम स्थितियों के गर्भ में भ्रष्टाचार है। पहाड़ों को छोड़ भी दें, तो दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उप्र का एक हिस्सा और बिहार आदि राज्य अब भी ‘अलर्ट’ पर रखे गए हैं। बारिश और बाढ़ से अभी तक करीब 100 मौतें हो चुकी हैं। यह कोई सामान्य आंकड़ा नहीं है। आखिर देश का नागरिक मर रहा है। ऐसी स्थिति क्यों आई है? दो माह बाद दिल्ली में जी-20 देशों का शिखर सम्मेलन है। उसमें दुनिया के 20 बड़े देशों के राष्ट्राध्यक्षों को दिल्ली में आना है। कुछ अनहोनी घट गई, तो भारत क्या कहेगा?