-तनवीर जाफ़री-
देश में एक बार फिर चुनावी महासमर का माहौल बन रहा है। दक्षिण भारत के राज्य कर्नाटक में चुनाव की तारीख़ दस मई घोषित की जा चुकी है। इसके अतिरिक्त 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पूर्व 2023 में ही 9 अन्य राज्यों में भी विधानसभा चुनाव कराये जाने हैं। इनमें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड तथा मिज़ोरम राज्य शामिल हैं। इनके अलावा जम्मू-कश्मीर में भी लोकसभा चुनाव से पूर्व विधानसभा चुनाव हो सकते हैं। वैसे तो 13 मई को आने वाले कर्नाटक के चुनाव नतीजों को ही 2024 के लोकसभा चुनाव के लिये महत्वपूर्ण रुझान के तौर पर देखा जा रहा है परन्तु कर्नाटक के बाद होने वाले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान व तेलंगाना जैसे अपेक्षाकृत बड़े राज्यों के चुनाव नतीजे भी 2024 के लोकसभा चुनाव की इबारत लिखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे। हालांकि अतिउत्साही भारतीय जनता पार्टी ने तो गत वर्ष गुजरात विधानसभा चुनाव में मिली अपनी शानदार जीत को ही लोकसभा 2024 का चुनावी रुझान बताना शुरू कर दिया था। परन्तु निश्चित रूप से 2024 लोकसभा चुनाव से पूर्व उपरोक्त दस राज्यों में होने वाला चुनावी संग्राम यह ज़रूर तय करेगा कि देश की राजनीति की दिशा व दशा आख़िर क्या होने वाली है।
जहां तक सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का प्रश्न है तो पार्टी ने अभी से लोकसभा चुनाव 2024 के मद्देनज़र अपने तैय्यारियाँ युद्धस्तर पर शुरू कर दी हैं। भाजपा में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा से लेकर अनेक राज्यपाल, केंद्रीय मंत्री, मुख्य मंत्री, पार्टी के राज्य स्तरीय अनेकानेक नेता अपने अपने कार्यों को छोड़ लेखक के रूप में मैदान में कूद चुके हैं और अपनी सरकार व पार्टी की कारगुज़ारियों का बखान करना शुरू कर चुके हैं। जहां जहां ‘रेवड़ी’ बांटने की ज़रुरत है वहां रेवड़ियां बांटी जा रही हैं। जहाँ जहां साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की ज़रुरत है वहां इस ‘शस्त्र’ की आज़माइश भी की जा रही है। जहाँ विपक्ष को कमज़ोर करना है वहां भय अथवा लालच के बल पर यह काम भी किया जा रहा है। अनेक विपक्षी दल ई डी, इंकम टैक्स व सी बी आई जैसी संस्थाओं पर सत्ता के इशारे पर विपक्षी दलों को पक्षपात पूर्ण तरीक़े से परेशान करने का आरोप पहले ही लगा रहे हैं। देश के सबसे प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के लिये तो भाजपा नेता पहले ही ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा देकर विपक्षहीन लोकतंत्र बनाने की अपनी मंशा साफ़ कर चुकी है। मीडिया पर सत्ता का नियंत्रण दुनिया देख ही रही है। अपने किसी भी विरोधी या आलोचक के लिये सत्ता ने राष्ट्र विरोधी, टुकड़े टुकड़े गैंग, पाक परस्त, हिन्दू विरोधी, देश विरोधी जैसी शब्दावलियाँ प्रचारित कर रखी हैं।
सत्ता की इन्हीं कोशिशों के विरुद्ध तथा इनकी कमियों को उजागर करते हुये कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जब अपने विदेशी दौरे के दौरान सवाल खड़ा किया तो बहुमत की सत्ता ने राहुल गाँधी से मुआफ़ी मांगने की मांग को लेकर संसद नहीं चलने दी। और आख़िरकार एक दूसरे मामले में सूरत से आये एक अदालती फ़ैसले के बाद आनन फ़ानन में राहुल की लोकसभा सदस्य्ता भी बड़ी ही तत्परता से समाप्त कर दी गयी। राहुल की लोक सभा सदस्यता समाप्त होने के बाद देश के अधिकांश विपक्षी दलों के नेताओं की शायद ‘कुंभकर्णी नींद’ खुल चुकी है। और वे यह सोचने को मजबूर हुये हैं कि जब देश के सबसे प्राचीन और सबसे लंबे समय तक देश पर राज करने वाले राजनैतिक दल के नेता राहुल गाँधी का यह हश्र हो सकता है तो क्षेत्रीय दलों के नेताओं की गिनती ही क्या है। वैसे भी अपने रास्ते के किसी भी ‘रोड़े’ को हटाना वर्तमान सत्ताधीशों की कार्यशैली का एक अहम हिस्सा है। फिर चाहे वे ‘रोड़े’ अपनी ही पार्टी के क्यों न हों। ऐसी अनेक मिसालें भी सामने हैं।
सवाल यह है कि इन विकटतम व अभूतपूर्व राजनैतिक परिस्थितियों में विपक्षी दल न केवल 2024 के लोकसभा चुनाव में बल्कि इसके पूर्व होने वाले सभी दस राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी ठीक उसी तरह एक हो सकता है जैसा कि 1977 में कांग्रेस के विरुद्ध एक हुआ था? जो क्षेत्रीय नेता जिन्हें कांग्रेस के साथ जाने से सिर्फ़ इसलिये भय लगता है कि यदि कांग्रेस से हाथ मिलाया तो उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी ख़तरे में पड़ जायेगी, क्या वे अभी भी इस ग़लतफ़हमी का शिकार हैं कि विभाजित विपक्ष भाजपा जैसे मज़बूत, सत्तारूढ़ व साम दाम दंड भेद का इस्तेमाल करने वाले दल को पराजित कर सकता है? कुछ राजनैतिक समीक्षक तो अभी से यहाँ तक लिखने लगे हैं कि यदि यथा शीघ्र ही देश के सभी विपक्षी दलों ने देश की जनता को संयुक्त विपक्ष होने का सन्देश नहीं दिया तो इस बात की काफ़ी संभावना है कि 2024 का लोकसभा चुनाव अखिलेश यादव, मायावती, ममता बनर्जी, नितीश कुमार और अरविन्द केजरीवाल जैसे नेताओं की पार्टी के लिये लगभग अंतिम लोकसभा चुनाव साबित हों।
विपक्षी राजनीति व विपक्षी दलों की भूमिका के सन्दर्भ में एक और हक़ीक़त पूरा देश यह भी देख रहा है कि एक ओर जहां सत्ता, विपक्षी दलों को कमज़ोर करने, उसे डराने धमकाने, उसे विभाजित करने के साथ साथ स्वयं को हर तरह से मज़बूत करने में अपना पूरा ध्यान केंद्रित किये हुये है और देश के कुछ बड़े पूंजीपतियों पर अपना वरदहस्त रखे हुये है वहीँ इस ‘कथित अजेय’ भाजपा के आगे किसी भी विपक्षी नेता या दल में भाजपा की इस प्रकार की कुटिल रणनीति से लड़ने का कोई साहस नहीं है। ले दे कर कांग्रेस पार्टी ही और विशेषकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ही हैं जो बेख़ौफ़ होकर संसद के भीतर से लेकर सड़कों तक पर सत्ता से तीखे सवाल पूछ रहे हैं। भारत जोड़ो यात्रा में उन्होंने जिस साहस का परिचय दिया देश के इतिहास में किसी भी नेता ने अब तक इतनी साहसपूर्ण पदयात्रा नहीं की। राहुल के इस साहस व जुझारूपन को भी जहां देश देख रहा है वहीं प्रधानमंत्री व मुख्य मंत्री के पद की उम्मीद लगाये बैठे अनेक क्षेत्रीय क्षत्रपों की सत्ता की मनमानियों के प्रति उदासीनता को भी जनता बहुत ग़ौर से देख व समझ रही है।
इन हालात में कांग्रेस पार्टी ने विपक्षी एकता हेतु गंभीर प्रयास शुरू कर दिये हैं। स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे सभी विपक्षी नेताओं से फ़ोन पर संपर्क साधने और सब को संयुक्त विपक्षी मोर्चे में शामिल करने के प्रयासों में जुट चुके हैं। 2024 का चुनाव यदि विपक्ष संयुक्त रूप से नहीं लड़ता तो 2024 के बाद की राजनीति की दिशा और दशा का कोई अंदाज़ा नहीं। अनेक राजनैतिक विश्लेषक तो यहाँ तक कहने लगे हैं कि यदि विभाजित विपक्ष ने 2019 की ही तरह 2024 में भी भाजपा को थाली में सत्ता परोस कर दे दी तो न केवल लोकतंत्र बल्कि भारतीय संविधान, देश का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप आदि सब कुछ दांव पर लग सकता है। लिहाज़ा देश के सभी विपक्षी दलों के लिये सन्देश साफ़ है कि विपक्षी एकता, यदि अभी नहीं तो कभी नहीं।