अर्पित गुप्ता
केंद्र सरकार ने सोशल मीडिया, ओटीटी प्लेटफॉर्म और डिजिटल न्यूज के लिए गाइडलाइन जारी की। सरकार ने
कहा कि आलोचना और सवाल उठाने की आजादी है, पर सोशल मीडिया के करोड़ों यूजर्स की शिकायत निपटाने
के लिए भी एक फोरम होना चाहिए। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि सोशल मीडिया पर अगर किसी
की गरिमा (खासतौर महिलाओं से जुड़े मामले) को ठेस पहुंचाने वाले कंटेंट की शिकायत मिलती है तो 24 घंटे
में इसे हटाना होगा। वहीं, देश की सुरक्षा जैसे मामलों से जुड़ी जानकारी शेयर करने पर फस्र्ट ओरिजिन भी
बताना होगा। वहीं सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने ओटीटी और डिजिटल न्यूज पोर्टल्स के बारे में
कहा कि उन्हें खुद को नियंत्रित करने की व्यवस्था बनानी चाहिए। जिस तरह फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड है,
वैसी ही व्यवस्था ओटीटी के लिए हो। इस पर दिखाया जाने वाला कंटेंट उम्र के हिसाब से होना चाहिए। सोशल
मीडिया में फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन के इस्तेमाल बनाम गलत इस्तेमाल को लेकर लंबे वक्त से डिबेट चल रही
थी। इस मामले में अहम मोड़ किसान आंदोलन के वक्त से आया। 26 जनवरी को जब लाल किले पर हिंसा
हुई तो सरकार ने सोशल मीडिया कंपनियों पर सख्ती बरती। सरकार का कहना था कि अगर अमेरिका में
कैपिटल हिल पर अटैक होता है तो सोशल मीडिया पुलिस कार्रवाई का समर्थन करता है। अगर भारत में लाल
किले पर हमला होता है तो आप डबल स्टैंडर्ड अपनाते हैं। ये हमें साफतौर पर मंजूर नहीं है। इस मामले की
शुरुआत 11 दिसंबर 2018 से हुई, जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा कि वह चाइल्ड पोर्नोग्राफी, रेप,
गैंगरेप से जुड़े कंटेंट को डिजिटल प्लेटफॉम्र्स से हटाने के लिए जरूरी गाइडलाइन बनाए। सरकार ने 24 दिसंबर
2018 को ड्राफ्ट तैयार किया। इस पर 177 कमेंट्स आए। बहरहाल, हम कह सकते हैं कि आखिरकार सरकार
ने भारतवासियों की बात सुन ली है। सरकार ने ठोस कदम उठाए हैं, हालांकि ये उतने सख्त कदम नहीं हैं,
जितने होने चाहिए थे। लेकिन, सरकार ने विदेशी कंपनियों को साफ संकेत दे दिए हैं कि अगर भारत में रहना
है, यहां की मलाई खानी है तो आप कानून का पालन किए बगैर आगे नहीं बढ़ सकते। कहीं न कहीं, सर्विस
प्रोवाइडर भी बहुत मनमानी कर रहे थे, सरकार को ललकार रहे थे कि हम नहीं करते कानून का पालन, आप
क्या कर लेंगे। अब सरकार ने एक ही झाड़ू फेरकर तमाम सर्विस प्रोवाइडर और ओटीटी प्लेटफॉर्म को अपने
शिकंजे में ले लिया है। कानूनी धाराओं में इन्हें कवर कर लिया है। डिजिटल मीडिया के लिए जारी हुई नई
गाइडलाइन का सबसे बड़ा फायदा उन यूजर्स को मिलने जा रहा है, जिनकी सोशल मीडिया या ह्रञ्जञ्ज के
खिलाफ शिकायतें अब तक नहीं सुनी जाती थीं। सबसे ज्यादा नकेल बड़ी सोशल मीडिया कंपनियों पर कसी गई
है। उन्हें गाइडलाइन पर अमल के लिए तीन महीने का वक्त मिला है। हालांकि, सरकार इस सवाल का जवाब
टाल गई कि गंभीर आपत्तिजनक कंटेंट के मामलों में जेल किसे होगी? यूजर को या सोशल मीडिया को?
किसी भी लोकतांत्रिक समाज और देश की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि वहां वैचारिक सहमति और
असहमति को अभिव्यक्त करने की आजादी एक अधिकार के रूप में स्वीकार्य हो। लेकिन कई बार देखा जाता
है कि अभिव्यक्ति की निर्बाध आजादी का इस्तेमाल कुछ लोग इस तरह करने लगते हैं जिससे भावनाओं के
भड़कने और यहां तक कि अराजकता फैलने की आशंका खड़ी हो जाती है। खासतौर पर जब से सोशल मीडिया
के अलग-अलग मंचों का विस्तार हुआ है, उस पर अपनी राय जाहिर करने की सुविधा तक बहुत सारे लोगों की
पहुंच बनी है, तब से एक बड़ी आबादी को अपनी अभिव्यक्ति की आजादी के लिए एक नया आाकाश जरूर
मिला है, लेकिन इसके बरक्स ऐसे तमाम लोग भी हैं, जो इन मंचों का इस्तेमाल अपनी कुत्सित मंशा को पूरा
करने के लिए करने लगे हैं। ऐसी घटनाएं अक्सर दर्ज की गई हैं, जो महज एक व्यक्ति के आधे-अधूरे तथ्यों
के आधार पर फैलाए गए भ्रम के चलते होती है और उसमें नाहक ही जानमाल का नुकसान हो जाता है।
विडंबना यह है कि सोशल मीडिया के मंचों पर ऐसी हरकतें करने वाले लोगों की वजह से कभी झूठी धारणा तो
कभी अराजकता फैल जाती है, लेकिन इसके नुकसानों की जिम्मेदारी कोई नहीं लेता है। शायद इसी के
मद्देनजर सरकार ने अगले तीन महीने में एक कानून लाने की घोषणा की है, जिसके जरिए डिजिटल माध्यमों
पर सामग्रियों को नियमित किया जा सकेगा और इसके लिए जिम्मेदारी तय की जा सकेगी। सरकार का मानना
है कि सोशल मीडिया गलत तस्वीर दिखाने को लेकर लगातार शिकायतें आ रही थीं; चूंकि अपराधी भी इसका
इस्तेमाल करने लगे हैं, इसलिए ऐसे मंचों से संबंधित एक नियमित तंत्र होना चाहिए।