-ओम प्रकाश मेहता-
क्या हमारे देश के राजनीतिक पुरखों को इस बात का अंदाजा था कि आजादी के 75 साल में ही राजनीति या प्रजातंत्र की परिभाषा बदल जाएगी? आज तो देश में प्रजातंत्र है, वह जनता का, जनता के लिए, व जनता द्वारा वाला प्रजातंत्र नहीं है, बल्कि आज का प्रजातंत्र नेता का, नेता द्वारा, और नेता के लिए प्रजातंत्र है, इसलिए इसे प्रजातंत्र की जगह यदि नेतातंत्र कहा जाए तो कतई गलत नहीं होगा और इस नए तंत्र का उद्देश्य जनसेवा नहीं केवल सत्ता और सत्ता है, जो किसी भी वाजिब या गैर-वाजिब तरीके से हासिल करना हो गया है।
साथ ही यदि यह भी कहा जाए कि आज की राजनीति में सत्ता की अवधि 5 साल से घटकर तीन या साढ़े तीन साल रह गई है तो भी गलत नहीं होगा, क्योंकि किसी भी राजनीतिक दल द्वारा सत्ता हथियाने के बाद उसे सत्ता को समझने और उसे अपने अनुकूल बनाने और अपने मोहरे फिट करने में प्रारंभिक एक साल तो लगता ही है और फिर सत्ता की लूट का सिलसिला चलता है और जब अगले चुनाव का महज एक या डेढ़ साल शेष ही रहता है, तब सत्ताधीशों को अपनी सत्ता को दीर्घ जीवी बनाने की चिंता सताने लगती है और वह उसी में संलग्न हो जाते हैं, अर्थात 5 साल के कार्यकाल में 1 साल मोहरे फिट करना दूसरे, तीसरे साल लूट और शेष डेढ़ साल में सत्ता की दीर्घायु के प्रयास। अब इसी कारण इन 5 सालों की अल्पावधि में बेचारे सत्ताधीशों को जनसेवा के लिए समय ही कहां मिल पाता है? इसी कारण आज देश की आम जनता वैसे ही है जैसे आजादी के समय थी?
पर, हां यहां इस रहस्य का उद्घाटन जरूरी है कि आज के राजनेता देश के आम वोटर को उतना ही अज्ञानी, मासूम और अशिक्षित समझते हैं, जितना वे आजादी के वक्त समझते थे, यही उनकी सबसे बड़ी भूल है, सही बात तो यह है कि आज का वोटर काफी जागरूक, शिक्षित और समझदार हो गया है, लेकिन इसके बावजूद वह स्थिति-परिस्थिति और माहौल को ठीक से समझ कर मतदान क्यों नहीं करता? यही एक आश्चर्यजनक सवाल है, लेकिन वास्तविकता यह भी है कि आज भी आम मतदाता किसी भी राजनीतिक प्रलोभन से प्रभावित होकर वोट नहीं डालता, वह अपना फैसला सही ही करता है, किंतु यदि मतदाता के सामने वोट के लिए विकल्प का अभाव हो तो वह क्या करें? शायद इसी कारण अब नोटा पर वोटों की संख्या में इजाफा हो रहा है?
वैसे 2019 के आम चुनाव के बाद एक विस्तृत सर्वेक्षण सामने आया था, जिसमें कहा गया था कि आज की चुनावी पद्धति से ही आम मतदाता का विश्वास खत्म हो रहा है, चुनाव आयोग से अपेक्षा भी की गई थी कि वह चुनावी पद्धति में समय का आवश्यकता के अनुरूप सुधार करें, जिससे कि चुनावों को और अधिक निष्पक्षता प्रदान की जा सके? मौजूदा केंद्र सरकार ने भी इस सुझाव के मद्देनजर आवश्यक आश्वासन दिया था, किंतु उस आश्वासन का आकार साक्षात रूप से अभी तक सामने नहीं आया है, जबकि अब अगले चुनाव में 1 साल ही शेष बचा है? अब यह सब हमारे प्रजातंत्र की कड़वी सच्चाईयां है, जो हमारे सामने हैं, हम इसके भुक्तभोगी भी हैं, किंतु हम इस दिशा में छटपटाने के अलावा कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं, और ना ही हमारी अगली पीढ़ी से ही ऐसी कोई अपेक्षा है?