विनय गुप्ता
एक तरफ कोरोना वायरस ने 75 लाख से एक करोड़ तक लोगों के रोज़गार छीन लिए अथवा नौकरियां खत्म कर
दी गईं या तनख्वाहें कटी-कटाई मिल रही हैं। दूसरी तरफ महंगाई की मार ने आम आदमी को अधमरा कर दिया
है। वह पोषण की चिंता करे या घर का बजट देखे! सिर्फ गेहूं, आटा और चावल ही औसत जीवन के लिए पर्याप्त
नहीं है। भोजन तो पत्थर के कीड़े को भी नसीब होता है। इनसान सामाजिक, पारिवारिक प्राणी है। उसकी बुनियादी
ज़रूरतें भी हैं। कई और खर्च उसे करने ही पड़ते हैं। तीसरी तरफ देश के 9 राज्यों के 148 जिलों में पेट्रोल के
दाम 100 रुपए प्रति लीटर के पार जा चुके हैं। डीजल भी लगभग अनुपालन कर रहा है। बीते डेढ़ माह में पेट्रोल-
डीजल की कीमतें 24-25 बार बढ़ाई गई हैं। केंद्र सरकार अपने हिस्से की एक्साइज ड्यूटी कम करने को तैयार नहीं
है। अलबत्ता कुछ राज्य सरकारों की वैट दरों को कोसते हुए सवाल दागे जा रहे हैं। बड़ा रुआंसा-सा सवाल है कि अब
‘महंगाई डायन’ का रोना किसके आगे रोयें? अब महंगाई और मुद्रास्फीति की जवाबदेही किसकी है? यह रुदन करने
वाले ही आज सत्ता में हैं और पुरानी सरकारों की नकल पर ही दलीलें दी जा रही हैं। अब कच्चे तेल का
अंतरराष्ट्रीय मूल्य करीब 70 डॉलर प्रति बैरल है। आज थोक मूल्य पर आधारित महंगाई की दर 12.94 फीसदी है,
जो 9 साल में उच्चतम स्तर पर है।
खुदरा महंगाई दर भी 6.3 फीसदी हो गई है, जो 6 माह के उच्चतम स्तर पर है। कुल मुद्रास्फीति भी लक्ष्मण-रेखा
लांघ चुकी है। खाद्य तेल की कीमतें दोगुनी हो चुकी हैं। सरसों का तेल भी 200 रुपए में बिक रहा है। फल, अंडे,
गैर-शराब वाले पेय पदार्थ, परिवहन, ईंधन, बिजली, पान, तंबाकू और मांस-मछली आदि सब कुछ महंगे हो गए हैं।
दालें खाना तो मानो दुश्वार होता जा रहा है। खाने-पीने का सामान 5 फीसदी महंगा हुआ है, लेकिन खाद्य तेलों की
महंगाई दर 30 फीसदी से 77 फीसदी तक बढ़ी है। जिस देश में 97 फीसदी आबादी की आय घटी है और 23
करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी-रेखा के नीचे जाने को विवश हैं, जो 375 रुपए रोजाना कमाने में भी असमर्थ हैं, क्या
वे अब हवा-पानी खाना-पीना शुरू करें और अन्य चीजों का त्याग कर दें? यह ऐसा दौर है, जब पीएफ खाताधारकों
को एक लाख करोड़ रुपए से अधिक की बचत निकालनी पड़ी है। यह बचत ही आम आदमी के बुढ़ापे का आर्थिक
संबल होता है। मुद्रास्फीति 6 साल के दौरान अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच चुकी है। अर्थव्यवस्था पर बुरा असर
पड़ने लगा है, लिहाजा राजकोषीय घाटा 10 फीसदी से ज्यादा हो गया है। बैंकों के पास अब भी 4 लाख करोड़ रुपए
की नकदी है, जिसे वे रिजर्व बैंक में जमा करवा रहे हैं।
सरकार इस नकदी को लेकर पेट्रोलियम पदार्थों पर टैक्स कम क्यों नहीं कर सकती? रिजर्व बैंक भी चाहता है कि
नकदी बैंक में जमा करने के बजाय लोगों के हाथ में जानी चाहिए, ताकि बाज़ार में मांग बढ़े और उससे औसत
उत्पादन बढ़े, नतीजतन निवेश के आसार भी पुख्ता होते रहें। लेकिन इस पहलू पर किसी भी नीति-निर्धारक का
ध्यान नहीं है। वे महंगाई को बेतहाशा बढ़ने दे रहे हैं। अब ‘महंगाई डायन’ का खौफ नहीं है और न ही उतनी बुलंद
आवाज़ में कोई चीखने वाला है। बेशक यह ‘संस्थागत महंगाई और मुद्रास्फीति’ की स्थिति है। हालांकि महंगाई के
थोक सूचकांक में स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र तो शामिल ही नहीं हैं। उनके खर्च, घाटे, ज़रूरतें और बजट का
मौजूदा महंगाई दर से कोई लेना-देना नहीं है। उसके बावजूद दरें इतनी ऊंची पहुंच गई हैं। अब सवाल यह भी है कि
सरकार में बैठे चेहरों को या तो अर्थशास्त्र की जानकारी नहीं है अथवा वे आम नागरिक को राहत देने के पक्ष में
नहीं हैं। वे किसानों को मुफ्त पैसा, मुफ्त टीकाकरण, मुफ्त अनाज, मुफ्त आधारभूत ढांचा, निःशुल्क बैंक खाता,
गैस सिलेंडर और मुफ्त बहुत कुछ का राग अलापते जा रहे हैं, जबकि हकीकत यह है कि पूंजी देश के औसत
करदाता की है। नागरिकों से पैसा वसूल कर उन्हें ही महंगाई परोस रहे हैं और उन्हें ही निःशुल्क बांटने के एहसान
का एहसास करा रहे हैं। वाह री सरकार…! हमें तो महंगाई से तुरंत कोई राहत दिखाई नहीं दे रही। जो सोचना है,
देश के आम आदमी को ही सोचना है।