-प्रमोद भार्गव-
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों विवादास्पद कृषि-कानूनों को वापस लेने की घोषणा भले ही सार्वजनिक रूप से क्षमा
प्रार्थना समेत कर दी है, लेकिन किसान आंदोलन फिलहाल खत्म होता नहीं दिख रहा।
किसान संगठनों का कहना है कि जब तक संसद में औपचारिक रूप से इन कानूनों को रद्द करने की प्रक्रिया पूरी
नहीं हो जाती आंदोलन जारी रहेगा। यह मसला तो संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने के साथ हल हो जाएगा,
लेकिन किसानों ने अब न्यूनतम समर्थन मूल्य को संवैधानिक रूप देने की मांग दृढ़ता से शुरू कर दी है।
हालांकि सरकार को कानून वापसी के ऐलान से पहले शायद यह आशंका थी कि एमएसपी को प्रभावी बनाने की
मांग उठ सकती है, इसीलिए सरकार इस बाबत वादा भी कर दिया कि सरकार एमएसपी की व्यवस्था को सुचारू
बनाए रखने के उपायों के लिए एक बड़ी समिति का गठन कर रही है, जिसमें केंद्र और राज्य सरकारों के
प्रतिनिधियों के अलावा किसान संगठनों के प्रतिनिधि और कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञ शामिल रहेंगे। साफ है, कृषि
कानूनों की समाप्ति के बावजूद एमएसपी का पेचीदा मुद्दा सरकार के गले की हड्डी बनने जा रहा है, लेकिन
एमएसपी पर गारंटी का कानून एक तो बनना आसान नहीं है। दूसरे बन भी गया तो उस पर अमल मुश्किल होगा।
यह बात तो समझ आती है कि अन्नदाता की आमदनी के उपाय सुरक्षित हों। लेकिन एमएसपी की कानूनी गारंटी
मिल जाती है तो सरकार को उपज खरीदना और उसका भंडारण संकट बन जाएगा। वैसे भी किसानों की मेहनत,
बढ़ती सिंचाई सुविधाएं और कृषि भूमि के बढ़ते रकवे के चलते देश में अनाज की पैदावार बढ़ी है। इस बढ़ोत्तरी में
कृषि से जुड़ी वैज्ञानिक तकनीकें भी भागीदार रही है। गेहूं और चावल की तो इतनी बड़ी मात्रा में पैदावार हो रही है
कि समर्थन मूल्य पर खरीदा गया लाखों टन अनाज खुले में रखा रहने के कारण सड़ जाता है। ऐसे में यदि फसल
खरीदी को कानूनी सुरक्षा मिल जाती है तो बड़े किसान, छोटे किसानों के लिए संकट बन जाएंगे। वैसे भी देश में
महज 14 प्रतिशत बड़े और मझोले किसान हैं, बाकी 86 प्रतिशत लघु और सीमांत किसान हैं।
गोया, अनाज की बेहिसाब खरीद की कानूनी गारंटी मिल जाती है तो सरकार को सब्सिडी की राशि जुटाना भी
मुश्किल हो जाएगा। बावजूद यदि सब्सिडी का लाभ अमीर किसान ले लेते हैं तो छोटा किसान यथास्थिति में ही
बना रहेगा। यदि एमएसपी को कानूनी दर्जा देने में सरकार किसानों की आरक्षण की तरह क्रीमीलेयर की सीमा तय
करती है तो अमीर किसान इसे स्वीकार नहीं करेंगे। अभी भी किसान वही फसलें ज्यादा पैदा कर रहे हैं, जिनमें
सब्सिडी ज्यादा मिलती है। इस कारण किसान फसल चक्र में परिवर्तन के लिए भी तैयार नहीं हैं। नतीजतन सरकार
को दालें और खाद्य तेल बड़ी मात्रा में आयात करना होता है। लिहाजा सरकार यदि एमएसपी की गारंटी देने वाला
कानून बनाती भी है तो उसे गेहूं और चावल पर सब्सिडी देने का प्रावधान केवल ऐसे किसानों को करना चाहिए,
जिनके पास तीन हेक्टेयर तक सिंचित भूमि और पांच हेक्टेयर तक असिंचित भूमि है। इसी तरह सरकार जो खाद्य
सामग्री दूसरे देशों से आयात करती है, केवल उन्हें पैदा करने वाले किसानों को सब्सिडी दे ? बड़े या अमीर किसानों
के लिए सरकार कुछ ऐसे आसान उपाय करे, जिससे उन्हें फसल निर्यात में सुविधा हो।
हालांकि कोरोना संकट ने तय किया है कि आर्थिक उदारीकरण अर्थात पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की पोल खुल गई है
और देश आर्थिक व भोजन के संकट से मुक्त है तो उसमें केवल खेती-किसानी का सबसे बड़ा योगदान है। भारत
सरकार ने इस स्थिति को समझ भी लिया है कि बड़े उद्योगों से जुड़े व्यवसाय और व्यापार जबरदस्त मंदी के दौर
से गुजर रहे हैं। वहीं किसान ने 2019-20 में रिकॉर्ड 29.19 करोड़ टन अनाज पैदा करके देश की ग्रामीण और
शहरी अर्थव्यवस्था को तो तरल बनाए ही रखा है, साथ ही पूरी आबादी का पेट भरने का इंतजाम भी किया है।
2019-2020 में अनाज का उत्पादन आबादी की जरूरत से 7 करोड़ टन ज्यादा हुआ था। 2020-2021 में भी 350
मिलियन टन अनाज पैदा करके किसान ने देश की अर्थव्यवस्था में ठोस योगदान दिया है। देश के पास अभी भी
इतना चावल है कि वह दुनिया के सभी भूखे लोगों के लिए पर्याप्त है। बावजूद कृषि आधारित अर्थव्यवस्था और
किसान को इसलिए भी संरक्षण देना जरूरी है, क्योंकि देश से किए जाने वाले कुल निर्यात में 70 प्रतिशत भागीदारी
केवल कृषि उत्पादों की है। यानि सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा कृषि उपज निर्यात करके मिलती है। सकल घरेलू उत्पाद
दर में भी कृषि का योगदान 45 प्रतिशत है।
खेती-किसानी से जुड़ी उपलब्धियों का मूल्यांकन करें तो पता चलता है कि देश को कोरोना संकट से केवल किसान
और पशुपालकों ने ही उबारे रखने का काम किया है। फसल, दूध और मछली पालकों का ही करिश्मा है कि पूरे देश
में कहीं भी खाद्यान्न संकट पैदा नहीं हुआ। इसलिए जरूरी है कि अनुत्पादक लोगों की बजाय, उत्पादक समूहों को
प्रोत्साहित किया जाए ? गोया, लघु और सीमांत अन्नदाताओं की आमदनी सुरक्षित करने के उपाय हों। क्योंकि छोटे
किसान द्वारा उपजाई फसलों का समय पर उचित मूल्य नहीं मिल पाने के कारण इन अन्नदाताओं के सामने कई
तरह के संकट मुंह बाए खड़े हो जाते हैं। ऐसे में वह न तो बैंकों से लिया कर्ज समय पर चुका पाते हैं और न ही
अगली फसल के लिए वाजिब तैयारी कर पाते हैं। बच्चों की पढ़ाई और शादी भी प्रभावित होते हैं। यदि अन्नदाता
के परिवार में कोई सदस्य गंभीर बीमारी से पीड़ित है तो उसका इलाज कराना भी मुश्किल होता है। इन वजहों से
उबर नहीं पाने के कारण किसान आत्मघाती कदम उठाने तक को मजबूर हो जाते हैं। यही वजह है कि पिछले तीन
दशक से प्रत्येक 37 मिनट में एक किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहा है। इसी कालखंड में प्रतिदिन करीब
2052 किसान खेती छोड़कर शहरों में मजदूरी करने चले जाते हैं। इसलिए यह भी जरूरी है कि खेती-किसानी से
जुड़े लोगों की गांव में रहते हुए ही आजीविका कैसे चले, इसके पुख्ता इंतजाम हों।
नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में न्यूनतम समर्थन मूल्य में भारी वृद्धि की थी, इसी क्रम में
'प्रधानमंत्री अन्नदाता आय सरंक्षण नीति' लाई गई थी। तब इस योजना को अमल में लाने के लिए अंतरिम बजट
में 75,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था। इसके तहत सभी किसानों को हर साल तीन किश्तों में कुल
6000 रुपए मिल रहे हैं। इसके दायरे में 14.5 करोड़ किसानों को लाभ मिल रहा है। जाहिर है, किसान की आमदनी
दोगुनी करने का यह बेहतर उपाय है। यदि फसल बीमा का समय पर भुगतान, आसान कृषि ऋण और बिजली की
उपलब्धता तय कर दी जाती है तो भविष्य में किसान की आमदनी दूनी होने में कोई संदेह नहीं रह जाएगा। ऐसा
होता है तो किसान और किसानी से जुड़े मजदूरों का पलायन रुकेगा और खेती 70 फीसदी ग्रामीण आबादी के
रोजगार का जरिया बनी रहेगी। खेती घाटे का सौदा न रहे इस दृष्टि से कृषि उपकरण, खाद, बीज और कीटनाशकों
के मूल्य पर नियंत्रण भी जरूरी है।
बीते कुछ समय से पूरे देश में ग्रामों से मांग की कमी दर्ज की गई है। निसंदेह गांव और कृषि क्षेत्र से जुड़ी जिन
योजनाओं की श्रृंखला को जमीन पर उतारने के लिए 14.3 लाख करोड़ रुपए का बजट प्रावधान किया गया है,
उसका उपयोग अब सार्थक रूप में होता है तो किसान की आय सही मायनों में 2022 तक दोगुनी हो पाएगी। इस
हेतु अभी फसलों का उत्पादन बढ़ाने, कृषि की लागत कम करने, खाद्य प्रसंस्करण और कृषि आधारित वस्तुओं का
निर्यात बढ़ाने की भी जरूरत है। दरअसल बीते कुछ सालों में कृषि निर्यात में सालाना करीब 10 अरब डॉलर की
गिरावट दर्ज की गई है। वहीं कृषि आयात 10 अरब डॉलर से अधिक बढ़ गया है। इस दिशा में यदि नीतिगत उपाय
करके संतुलन बिठा लिया जाता है, तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था देश की धुरी बन सकती है।
केंद्र सरकार फिलहाल एमएसपी तय करने के तरीके में 'ए-2' फॉमूर्ला अपनाती है। यानी फसल उपजाने की लागत
में केवल बीज, खाद, सिंचाई और परिवार के श्रम का मूल्य जोड़ा जाता है। इसके अनुसार जो लागत बैठती है,
उसमें 50 फीसदी धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य तय कर दिया जाता है। जबकि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश
है कि इस उत्पादन लागत में कृषि भूमि का किराया भी जोड़ा जाए। इसके बाद सरकार द्वारा दी जाने वाली 50
प्रतिशत धनराशि जोड़कर समर्थन मुल्य सुनिश्चित किया जाना चाहिए। फसल का अंतरराष्ट्रीय भाव तय करने का
मानक भी यही हैं। यदि एमएसपी गारंटी कानून बनता है तो केवल लघु और सीमांत किसानों को इस दायरे में
लाया जाए।
पिछले दो दशक के भीतर सरकारी कर्मचारी और अधिकारियों ने भी बड़ी मात्रा में कृषि भूमि खरीदकर किसानी शुरू
कर दी है। ऐसे किसानों की पहचान करके इन्हें एमएसपी के दायरे से बाहर करना भी आवश्यक होगा। गोया,
सरकार यदि एमएसपी गारंटी कानून लाती हैं तो संसद में बाकायदा बहस हो और पूरी पारदर्शिता के साथ कानून
अस्तित्व में आए। जिससे बिना बहस के थोपे गए कृषि कानूनों की तरह फजीहत का सामना न करना पड़े।