-डा. वरिंदर भाटिया-
पंजाब के स्कूल शिक्षा मंत्री ने गैर-शैक्षणिक कार्यों के लिए शिक्षकों से गैर शिक्षण कार्य न लेने के मद्देनजर और छात्रों के भविष्य को बचाने के लिए पुरानी प्रथा को रोकने के लिए कहा है। उन्होंने कहा है कि यह जरूरी है कि शिक्षक हमेशा स्कूलों में उपलब्ध रहें और उनसे पढ़ाने के अलावा कोई अतिरिक्त काम न लिया जाए। बात सिर्फ पंजाब तक नहीं सीमित है, देश के लगभग सभी राज्यों में शिक्षकों से गैर शिक्षण कार्य लेने की रिवायत ही चलती है जिससे सब जगह स्कूल शिक्षा बुरी तरह प्रभावित होती है। प्रशासनिक व्यवस्था शिक्षक को सब काम करने वाला सर्वगुण युक्त नि:सहाय प्राणी समझ लेती है जिससे आज हमारे अनेक शिक्षक गैर शैक्षणिक कार्यों में उलझकर रह गए हैं। अनेक स्थानों पर उनसे स्टाफ की कमी के कारण दफ्तरी काम भी लिए जाते हैं। कंप्यूटर पर डाटा फीडिंग हो या विद्यार्थियों की फोटो अपलोड व सत्यापन, दिनभर में ऐसे ही जाने कितने कार्य शिक्षकों को पढ़ाने के अलावा करने पड़ते हैं। इनसे कहीं क्लर्क जैसा काम करते गलती हो जाए तो जॉब पर आफत बन आती है। इस पर तुरंत प्रभाव से हमें सोचना होगा।
मिड डे मील की पूरी जिम्मेदारी प्रधानाध्यापक व प्रभारी प्रधानाध्यापक की ही होती है। इसके अतिरिक्त विभाग द्वारा विद्यालय प्रबंध समिति के माध्यम से बच्चों को दिए जाने वाली अनेक सुविधाएं जैसे स्कूल यूनिफार्म, जूते, मोजे, बैग, पुस्तकें इत्यादि की खरीद-फरोख्त एवं बांटने की जिम्मेदारी भी अध्यापक की ही है। यह प्रशासनिक कार्य है, न कि शिक्षा से जुड़े काम हैं। और तो और, ग्रामीण स्तर पर संचालित की जाने वाली अनेक योजनाओं में अध्यापक का ही सहारा लिया जाता है। चाहे ग्रामीणों को स्वास्थ्य विभाग द्वारा दिया जाने वाला टीकाकरण हो या बच्चों एवं गर्भवती स्त्रियों को आयरन एवं कैल्शियम की गोली बांटनी हो, यहां तक कि पेट के कीड़ों की गोलियां भी अध्यापक को ही बांटनी होती हंै। गैर-शैक्षणिक कार्य में अधिकतर स्कूल प्रबंधन, डेटा संग्रह और दस्तावेजीकरण शामिल होता है और कई बार इस कार्य में दोहराव और मात्रा ही अधिक होती है।
दिन में गैर-शैक्षणिक कार्य का बार-बार वितरण और उच्च अधिकारियों के कॉल पर तैयार रहने का दबाव अक्सर शिक्षकों पर बोझ डालता है और शिक्षण के मुख्य कार्य को पूरा करने में समय लगाने की उनकी क्षमता को प्रभावित करता है। यह सब ठीक किया जाना चाहिए। सीबीएसई की तरफ से कुछ समय पहले जारी एक सर्कुलर में कहा गया था कि शिक्षा का अधिकार-2009 के तहत किसी भी शिक्षक को गैर शिक्षण कार्यों में नहीं लगाया जा सकता। यह भी कहा गया था कि टीचर्स को पढ़ाने, परीक्षा संचालन और जांच कार्यों के अलावा अन्य गतिविधियों में शामिल नहीं किया जाए। लेकिन अब भी ज्यादातर स्कूलों में शिक्षकों से गैर शैक्षणिक कार्य कराए जाते हैं। हमारे सरकारी और एडिड स्कूल इसका अपवाद नहीं हैं। पूरे विश्व में शिक्षा व्यक्ति के जीवन का आधार समझी जाती है। किसी भी ढांचे को खड़ा करने के लिए उसकी नींव को मजबूत किया जाना अति आवश्यक है।
यदि नींव ही मजबूत नहीं होगी तो किसी भी ढांचे का अधिक समय तक टिके रह पाना संभव नहीं। हमारे टीचर ही शिक्षा की नींव बनाते हैं। यदि हम बच्चों को क्वालिटी स्कूल एजुकेशन दिलाना चाहते हैं तो टीचरों को टीचर ही रहने दिया जाना चाहिए। उन्हें शिक्षा पर फोकस बनाए रखने के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए। क्या उन्हें सेल्फ स्टडी के लिए समय नहीं चाहिए? हमारे शिक्षकों को जब तक गैर शैक्षणिक कार्यों में फंसाकर रखा जाएगा, तो उनसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षण की उम्मीद बेमानी है। हमारे शिक्षक दबाव में रहते हैं क्योंकि गैर शिक्षण कार्यों से जुड़े हर एक आदेश का पालन कर उनको नौकरी भी बचानी होती है। इलेक्शन ड्यूटी में तो अनेक महिला अध्यापकों की हालत बहुत खऱाब हो जाती है। क्या ऐसी गैर शिक्षण गतिविधियों में महिला अध्यापकों को राहत की जरूरत नहीं है? पचास की उम्र पार कर चुकी महिलाओं को फील्ड में गैर शिक्षण गतिविधियों से दूर रखना ठीक लगता है। याद रहे गैर शिक्षण कार्यों से जब स्कूल शिक्षा व्यवस्था बाधित होती है, इसका असर अंतत: बच्चों की दी जाने वाली शैक्षणिक गुणवत्ता पर भी पड़ता है।
शैक्षणिक समयावधि के बाद शिक्षकों से अन्य और तरह के कार्य कराया जाना क्या नैतिकता होगी? क्या यह मानवीय दृष्टिकोण होगा? क्यों न हम अपने शिक्षकों को गैर शिक्षण कार्यों के डर से निकालने की पहल करें। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह स्वीकार किया गया है कि गैर-शैक्षणिक कार्य शिक्षकों के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। इसमें यह भी कहा गया है कि ‘उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के अनुसार चुनाव ड्यूटी और सर्वेक्षण करने से संबंधित न्यूनतम कार्यों के अलावा शिक्षकों को स्कूल के समय के दौरान ऐसी किसी भी गैर-शैक्षणिक गतिविधि में भाग लेने के लिए न तो अनुरोध किया जाएगा और न ही अनुमति दी जाएगी जो शिक्षक के रूप में उनकी क्षमताओं को प्रभावित करती हो’। हमें प्रशासनिक कार्य करने के लिए स्कूलों में अधिक से अधिक गैर-शैक्षणिक कर्मचारियों की भर्ती करने की आवश्यकता है। ऐसे मामलों में जहां दस्तावेजीकरण ऑनलाइन है, तब ऑफलाइन दस्तावेजीकरण को समाप्त किया जाना चाहिए। ग्रामीण स्कूलों में, जहां इंटरनेट/आईटी कनेक्टिविटी नहीं है या सीमित है, इन्हें उपलब्ध कराया जाना चाहिए और ऑफलाइन दस्तावेजीकरण की अनुमति दी जा सकती है। जहां पहले से ही डेटा उपलब्ध है, वहां स्कूलों को इसे संकलित करने और भेजने के लिए नहीं कहा जाना चाहिए। इसके अलावा शिक्षकों को अन्य गैर-शैक्षणिक गतिविधियों के बजाय मुख्य रूप से कक्षा में पढ़ाई संबंधी कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।
हम आज तक यह ही नहीं समझे हैं कि शिक्षा के गुणात्मक विकास में शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि हम चाहते हैं कि शिक्षकों द्वारा सुचारू रूप से शैक्षणिक कार्य किया जाए, तो शिक्षकों का विद्यालयों में निर्धारित पूरी कार्यावधि में उपस्थित रहना भी जरूरी है। क्यों न हम अपने अध्यापकों को सिर्फ अध्यापन और शिक्षा कार्यों में काम करने दें। एक बात तो पक्की है कि यदि हमारे शिक्षकों को गैर शिक्षण कार्यों के दबाव से मुक्ति प्राप्त होती है तो इससे शिक्षा में गतिशीलता बढ़ेगी। बेहतर होगा इस बिंदु पर देश के सभी राज्यों में संजीदगी दिखाई जाए। विचार करें कि अगर अध्यापक दिनभर अन्य गैर शिक्षण कार्यों में ही व्यस्त रहेगा तो शिक्षण कार्य कब करेगा। आज विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता के स्तर के निम्न होने के पीछे सबसे बड़ा कारण शिक्षक द्वारा गैर शैक्षणिक कार्यों में लगे रहना ही है। आज शिक्षक अन्य कार्यों के भार तले दब गया है तथा इनके पूर्ण न हो पाने पर कार्रवाई के डर के कारण वह अपने मूल कार्य से दूर ही रहता है। अत: अब वह समय आ गया है कि शिक्षक को केवल शिक्षण और शिक्षा से जुड़े कार्य करने दिए जाएं तथा अन्य कार्यों हेतु कोई और व्यवस्था कर ली जाए। अन्यथा एक दिन हम बहुत पिछड़ जाएंगे और फिर पछताने से कुछ नहीं होगा।